Dayanand Pandey : हिंदी दिवस पर उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के पुरस्कार कार्यक्रम में मुख्य मंत्री अखिलेश यादव की चरण वंदना करती रंगनाथ मिश्र सत्य की यह एक फ़ोटो फ़ेसबुक पर वायरल हो कर उपस्थित है। रंगनाथ मिश्र सत्य ने तो अपना साहित्य भूषण पुरस्कार इस चरण वंदना में धो दिया है। अपनी ऐसी तैसी करवा ली है। लेकिन उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के निदेशक और मम अरण्य, शाने तारीख़ और रंग राची जैसे कालजयी उपन्यासों के तपस्वी रचनाकार सुधाकर अदीब इस अपमानजनक घटना के अनिवार्य साक्षी रहे हैं। यह अपमानजनक दृश्य देख कर उन की आंखें वहीँ तुरंत छलक पड़ीं। निरंतर बहती रहीं।
यह समाज और साहित्य का कृष्ण पक्ष भर नहीं है। साहित्य और समाज का बिखरा हुआ, पतित हुआ एक अनिवार्य व्याकरण भी है। जो अनायास खुल गया है। कालीन के नीचे छुपा हुआ कूड़ा अचानक दिख गया है। पर यह सब कोई पहली बार नहीं हुआ है। हमने तो और भी कई स्वनाम धन्य लोगों को पुरस्कार ले कर चरण वंदना करते बार-बार देखा है। अबकी बार भी कई सारे लेखकों ने मुख्यमंत्री और अन्य उपस्थित लोगों की चरण वंदना की।
फ़र्क बस यह है कि रंगनाथ मिश्र सत्य का यह सत्य एक अखबार ने उद्घाटित कर दिया यह फ़ोटो छाप कर। नहीं तो फिसल गए तो हर गंगे, वाली इस चरण वंदना की गंगा में डुबकी तो सर्वदा की तरह औरों ने भी मारी है। किस-किस का नाम लूं और किस-किस का न लूं? इस हमाम में बहुतेरे नंगे हैं। कोई परदे में है तो कोई परदे से बाहर। पर लेखकों के इस जुगाड़, प्रणाम और चरण वंदना में लिपटे पुरस्कार समारोह और तिकड़म की कथा अनंत है। बहुत सारी प्याज की परतें हैं, अपमान की अनंत कथाएं है, दारुण और शौर्य में भीगी और रोती हुई, सिसकती हुई और चहकती हुई भी। साजिश, राजनीति और घिन की गलियां बहुत हैं। इनकी दास्तान फिर कभी।
लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार दयानंद पांडेय के फेसबुक वॉल से.
पुरस्कार के बदले चरण वंदना हाल ही में लखनऊ में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव जब साहित्यकारों को सम्मानित कर रहे थे तो डाक्टर रंग नाथ मिश्र ने उनके पैरों पर गिर पड़े। वहां मौजूद नवागत साहित्यकार या अन्य लोग चौक पड़े, लेकिन साहित्य के सामंत खामोस थे। उनके चेहरे पर कोई शिकन तक नहीं। आज इतने दिनों बाद भी कोई प्रतिक्रिया भी नहीं आई। शायद इस लिए कि इनके लिए कोई नई बात नहीं। यही बताता है कि स्थितियाँ कैसी हैं। जब आप इंसानियत को बचाने की कवायद में अपनी पूरी कहानी में मरे जाते हैं और उसी कहानी पर पुरस्कार के लिए भरी सभा में पाँव पकड़ कर इंसानियत के साथ उस कहानी का भी गला घोंट देते हैं। हे साहित्य के सामंत ऐसे गिर-गिरकर खुद के साथ साहित्य और हिंदी को तो न गिराओ।
साहित्य जो लोकप्रियता और पैसा अपने लेखकों को नहीं दे पाता, उसकी भरपाई वह पुरस्कारों, पदों से करने की कोशिश करता है। इसके बदले वह सत्ता के खेल को इंधन देता है। पुरस्कार पहले प्रतिभाओं को मिलत़ा था। बाद में इसका स्थान जुगाड़ ने ले लिया और अब जुगाड़ के साथ प्रणयाम भी जुड़ गया। अब यह इतना आम हो गया है कि अगर आपको अपने काम से भी मिले तब भी लोग उसी नजर से देखेंगे।
सुहवल
गाजीपुर
मुकेश मणिकांचन
September 19, 2015 at 11:19 am
रंगनाथ मिश्र सत्य/ सत्य को स्वीकारने में संकोच कैसा/ कालीन के नीचे की गंदगी रही है और रहेगी/