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सुख-दुख

साइंस के लिए अबकी दिए गए नोबेल पुरस्कार धरती को जिंदा बचाए रखने की उम्मीद जगाते हैं!

चंद्र भूषण-

ज्यादा संवेदनशील हुए हैं साइंस के नोबेल पुरस्कार…

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2021 के लिए विज्ञान के तीनों नोबेल पुरस्कारों की घोषणा हो चुकी है। सदी में एक बार आने वाली कोविड जैसी ग्लोबल महामारी से उबरने में जुटी दुनिया के लिए यह खुशी की बात होनी चाहिए कि इन पुरस्कारों में व्यक्त हो रही विज्ञान की नई दिशा अभी चमत्कारिक खोजों से ज्यादा मानवजाति और पृथ्वी के प्रति अधिक संवेदनशील होने की है। इस बार की वैज्ञानिक नोबेल घोषणा में पर्यावरण चेतना जितनी गहराई से प्रतिबिंबित हुई है, वह खुद में एक भरोसा जगाने वाली बात है।

पिछले सोमवार को घोषित चिकित्साशास्त्र और शरीर क्रिया विज्ञान का नोबेल पुरस्कार कैलिफोर्निया प्रांत के दो अमेरिकी वैज्ञानिकों को गर्मी, सर्दी और दबाव का बोध कराने वाली प्रक्रिया की खोज के लिए दिया गया है। डेविड जूलियस और आर्डेन पैटापूशन ने अपनी खोजें अलग-अलग ढांचों में रहते हुए कीं, हालांकि इनमें कुछ चीजें साझा भी थीं। डेविड जूलियस का मुख्य काम जलन के एहसास को लेकर रहा है। कोई गरम चीज छू जाने पर हम चौंक कर वहां से हट जाते हैं। स्नायुओं के जरिये दिमाग तक संदेश जाना और उस चीज को छोड़ देने या उससे दूर हट जाने का संदेश दिमाग से शरीर के उस हिस्से तक आना- इस पूरी प्रक्रिया के ब्यौरे काफी पहले खोजे जा चुके हैं और मेडिकल साइंस उनका इस्तेमाल भी कर रही है। जूलियस और पैटापूशन की खोजें वहां से आगे जेनेटिक्स के स्तर की हैं, जहां किसी के आग से या एसिड से या किसी और तरीके से जल जाने पर उसका बेहतर ट्रीटमेंट खोजे जाने की संभावना है।

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इस तरह के प्रयोग आप जल जाने की रासायनिक प्रक्रिया के साथ नहीं कर सकते, क्योंकि ऐसा करने में या तो प्रयोग में लाई जा रही कोशिका नष्ट हो जाएगी या उसकी कार्यप्रणाली इतनी बिगड़ जाएगी कि ठीक से उसका अध्ययन नहीं किया जा सकेगा। डेविड जूलियस ने इसके लिए मिर्ची के मूल रसायन कैप्साइसिन का इस्तेमाल किया। उनकी टीम ने डीएनए के लगभग दस लाख टुकड़ों की एक लाइब्रेरी बनाई और कैप्साइसिन के साथ उनका रिएक्शन देखा। इस क्रम में उन्होंने पाया कि डीएनए का एक टुकड़ा (जीन) कैप्साइसिन के संपर्क में आने पर एक ऐसा प्रोटीन बना रहा है, जो स्नायुओं (नर्व्स) में मौजूद टीआरपीवी-1 नाम के रिसेप्टर के जरिये दिमाग में दर्द का संदेश भेजता है।

किसी चीज का गर्म या ठंडा होना एक ही भौतिक राशि, तापमान के ऊपर या नीचे होने के कारण होता है लेकिन प्राणियों में दोनों के लिए अलग-अलग संवेदनाएं देखी जाती हैं। लोग आग से झुलसते हैं और बेहद ठंडे इलाकों में देर तक बर्फ का संपर्क भी उनकी त्वचा को उसी तरह झुलसा देता है। लेकिन आंख पर पट्टी बंधी होने के बावजूद दोनों का फर्क कोई भी बता सकता है। डेविड जूलियस और आर्डेन पैटापूशन, दोनों ने ही ठंड के एहसास के लिए पुदीने में पाए जाने वाले केमिकल मेंथॉल के साथ जीन्स के संपर्क वाले प्रयोग अलग-अलग किए, लेकिन उसी तरह जैसे जलन वाले प्रयोग कैप्साइसिन के साथ किए गए थे।

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यह प्रयोग उन्हें टीआरपीएम-8 नाम के रिसेप्टर की ओर ले गया, जो संबंधित जीन द्वारा बनाए गए एक अन्य प्रोटीन के जरिये सक्रिय होता है। आर्डेन पैटापूशन का एक बिल्कुल अलग क्षेत्र दबाव का संदेश दिमाग तक पहुंचाने वाली प्रक्रिया को समझने का था। इसमें उन्होंने पाया कि किसी के शरीर का कोई हिस्सा दबाने या कोंचने पर उसकी एक अलग जीन सक्रिय होती है, जिसके बनाए हुए प्रोटीन से पीजो-1 नाम का रिसेप्टर दबाव का संदेश दिमाग तक पहुंचाता है। निश्चय ही इस संदेश की प्रॉसेसिंग दिमाग बड़े महीन तरीके से करता है और आप तुरंत जान जाते हैं कि आपका बच्चा आपको छूकर कुछ कहना चाहता है, या किसी अजनबी ने पीछे से पिस्तौल सटाकर आपको दबाव में लेने की कोशिश की है।

ध्यान रहे, पीजो भौतिकी के लिए एक सुपरिचित शब्द है। मेडिकल इमेजिंग और कई इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में पीजो इफेक्ट का इस्तेमाल दबाव से इलेक्ट्रिक सिग्नल पैदा करने के लिए किया जाता है। बीते मंगलवार को घोषित भौतिकी के नोबेल पुरस्कार ने तो कमाल ही कर दिया। भला किसने सोचा था कि पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाले वैज्ञानिकों को भौतिकी का नोबेल प्राइज मिल जाएगा। इस सदी में दो बार शांति का और एक बार रसायनशास्त्र का नोबेल पुरस्कार पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाले व्यक्तियों और संस्थाओं को दिया जा चुका है।

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शांति पुरस्कार में तो निजी संकल्प मायने रखता है जबकि रसायनशास्त्र में इसे यह साबित करने के लिए दिया गया था कि उद्योग-धंधों और गाड़ी चलाने जैसे रोजमर्रा के कामों में पैदा होने वाले कुछ केमिकल गर्मी को अपने भीतर रोक कर रखते हैं, उसे वापस पर्यावरण से बाहर अंतरिक्ष में नहीं जाने देते। लेकिन इससे सौ टके खरेपन के साथ यह साबित नहीं किया जा सकता कि पृथ्वी जैसा बड़ा सिस्टम इस गड़बड़ी से निपटने में लाचार है। जापान के रहने वाले और अमेरिका की प्रिंसटन यूनिवर्सिटी में पढ़ाने वाले स्युकुरो मानाबे ने 1967 में पहली बार एक ऐसा कंप्यूटर मॉडल बनाया, जिसमें समुद्र से लेकर जमीन और वायुमंडल तक पृथ्वी को एक ऐसी प्रणाली के रूप में समझने की कोशिश की गई थी, जिसमें प्राकृतिक और मानवीय, दोनों ही स्रोतों से कुछ-कुछ फीडबैक आ रहे हैं।

इसके कोई दस साल बाद जर्मनी के हैंबर्ग शहर में स्थित मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट के मौसम विज्ञानी क्लॉज हैसेलमान ने एक और कंप्यूटर मॉडल बनाया, जिसमें पहली बार मौसम और जलवायु को एक साथ जोड़कर समझने की कोशिश की गई थी। ध्यान रहे, मौसमों के अध्ययन का शास्त्र अंग्रेजी राज से जुड़ा है, जिसकी ताकत काफी हद तक समुद्री जहाजों के सुरक्षित और सुचारु संचालन पर निर्भर करती थी। धरती के दूसरे छोर पर चिली में होने वाली प्राकृतिक घटनाएं भारत के मौसम को कैसे प्रभावित करती हैं, यह जानकारी अंग्रेजों को थी। लेकिन रोजमर्रा का मौसम जलवायु में आ रहे स्थायी बदलावों से निर्धारित हो रहा है, ऐसी मॉडलिंग क्लॉज हैसेलमान ने शुरू की।

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इन दोनों वैज्ञानिकों को भौतिकी नोबेल की पुरस्कार राशि का एक-एक चौथाई हिस्सा प्राप्त हुआ है। बाकी आधी राशि इटली में रोम यूनिवर्सिटी के ठेठ भौतिकशास्त्री ज्योर्जियो पैरिसी को दी गई है, जो अभी के दौर में इस शास्त्र में अपने ढंग के अकेले विद्वान हैं। उनका काम बड़ी प्रणालियों पर छोटी-छोटी गड़बड़ियों और उतार-चढ़ावों के समेकित बदलाव को लेकर है और इसका असर गणित और जीवविज्ञान से लेकर कंप्यूटर साइंस, लेसर और मशीन लर्निंग तक पर देखा जा रहा है। पर्यावरण को लेकर अलग से उनका काम कुछ खास नहीं है लेकिन इस क्षेत्र में काम करने वाले बहुत सारे लोगों को ज्योर्जियो पैरिसी के खोजे हुए सूत्रों और उनके बनाए हुए मॉडलों से सहायता मिलती है।

यूं कहें कि वहां पहुंच कर तमाम प्रेक्षण और अटकलें ठोस वैज्ञानिक निष्कर्ष के दायरे में आ जाती हैं। बुधवार को घोषित रसायनशास्त्र नोबेल पुरस्कार वैसे तो उत्प्रेरकों (कैटेलिस्ट्स) का एक नया क्षेत्र खोजने को लेकर दिए गए हैं लेकिन इन खास उत्प्रेरकों की विशेषता यह है कि ये पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाते और इनकी मदद से ग्लोबल वॉर्मिंग से निपटने की बेहतर रणनीति बनाई जा सकती है। यह पुरस्कार प्राप्त करने वाले डेविड मैकमिलन स्कॉटलैंड में जन्मे ब्रिटिश रसायनज्ञ हैं जबकि दूसरे केमिस्ट बेंजामिन लिस्ट जर्मन हैं। दोनों का काम असिमिट्रिक ऑर्गेनोकैटेलिसिस पर है, जो पूरी तरह से इक्कीसवीं सदी का शास्त्र है।

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जैसा कि हम जानते हैं, उत्प्रेरकों का काम रासायनिक क्रियाओं को तेज करने और दोतरफा रासायनिक क्रियाओं को एकतरफा बना देने का है। जैसे वनस्पति तेल में मॉलिब्डेनम धातु की उपस्थिति में एक खास तापमान पर हाइड्रोजन गुजारी जाती है तो वह दानेदार घी में बदल जाता है। इधर कुछ समय से इसका चलन कम हो गया है, वरना कुछ समय पहले तक यह नमक और मसाले की तरह हर रसोई की जरूर चीज हुआ करता था। अब से कोई चार दशक पहले तक उत्प्रेरक के रूप में दो ही चीजें जानी जाती थीं। कुछ धातुओं के अलावा कुछ एंजाइम, जिन्हें पहले शरीर में खुद ब खुद बनते हुए पाया गया था, फिर ये प्रयोगशालाओं और कारखानों में भी बनाए जाने लगे। लेकिन एक तो इन दोनों चीजों के काम का दायरा सीमित है, दूसरे हर धातु अपने बारीक रूप में प्राणियों और पर्यावरण के लिए जहर का काम करती है।

यह सिलसिला ऑर्गेनोकैटेलिस्ट्स के उदय के साथ टूटना शुरू हुआ। रसायनों की एक ऐसी श्रेणी, जिससे एंजाइम्स को जान-बूझकर बाहर रखा गया। डेविड मैकमिलन और बेंजामिन लिस्ट ने अलग-अलग काम करते हुए असिमिट्रिक ऑर्गेनोकैटेलिस्ट्स की श्रेणी को विकसित किया, जिनके बल पर दवा उद्योग से लेकर सोलर सेल्स तक कई बहुत मुश्किल कामों को अंजाम दिया जा रहा है।

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हम जानते हैं कि सोलर सेल्स अभी सिलिकॉन वेफर्स पर आधारित हैं, जिसका लगभग तीन चौथाई कारोबार अकेले चीन के हाथ में है। यह चीज रेत को बहुत ऊंचे तापमान पर गर्माकर बनाई जाती है, जिसके लिए कोयला या कोई न कोई पेट्रो पदार्थ ही जलाना पड़ता है। ऐसे में एक तरफ हम सौर ऊर्जा से कार्बन उत्सर्जन घटाने की बात करते हैं, दूसरी तरफ इसका औजार बनाने के लिए बेतहाशा कार्बन फूंकते हैं। इधर कुछ सालों से ऐसे सोलर सेल्स बनाने पर काम चल रहा है, जिन्हें बनाने के लिए इस रास्ते से न गुजरना पड़े। इस काम में असिमिट्रिक ऑर्गेनोकैटेलिस्ट्स की मदद आज भी ली जा रही है और आगे इनके बल पर काम के और ज्यादा आसान, बेहतर और सस्ता होने की उम्मीद की जा रही है।

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