मध्य प्रदेश भारत का ह्दयप्रदेश है और हिन्दी के एक बड़ी पट्टी वाले प्रदेश के रूप में हमारी पहचान है। हिन्दी हमारे प्रदेश की पहचान है और लगातार निर्विकार भाव से हिन्दी में कार्य व्यवहार की गूंज का ही परिणाम है कि चालीस साल बाद हिन्दी के विश्वस्तरीय आयोजन को लेकर जब भारत का चयन किया गया तो इस आयोजन के लिए मध्यप्रदेश को दसवें विश्व हिन्दी सम्मेलन की मेजबानी सौंपी गई। गंगा-जमुनी संस्कृति वाले भोपाल में हिन्दी का यह आयोजन न केवल भोपाल के लिए अपितु समूचे हिन्दी समाज के लिए गौरव की बात है।
भोपाल में हो रहा यह आयोजन हिन्दी को विश्व मंच पर स्थापित करने में मील का पत्थर साबित होगा, यह हिन्दी समाज का विश्वास है। मध्यप्रदेश, देश का ह्दयप्रदेश होने के नाते बहुभाषी और विविध संस्कृति वाला प्रदेश है। विभिन्न भाषा-बोली के लोग मध्यप्रदेश में निवास करते हैं किन्तु इन सबकी सम्पर्क भाषा हिन्दी है। अहिन्दी प्रदेशों से यहां रोजगार के लिए आने वाले लोग भी हिन्दी सीख कर गौरव का अनुभव करते हैं। यह छोटा सा तथ्य इस बात को प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है कि दसवें विश्व हिन्दी सम्मेलन के आयोजन के लिए सर्वथा उपयुक्त निर्णय है।
बहुतेरे ऐसे लोग भी हैं जिनके मन में इस बात की शंका है कि आखिरकार इस आयोजन का परिणाम क्या होगा या इनमें से कुछ इस संदेह से घिरे हुए हैं कि ऐसे आयोजनों का परिणाम शून्य होता है। ऐसे लोगों की शंका और संदेह बेबुनियाद है क्योंकि प्रयास का दूसरा पहुल संभावना होती है। विश्व हिन्दी सम्मेलन का आयोजन किया जाना एक प्रयास है और हिन्दी का भविष्य इसकी संभावना है। 1975 में पहला विश्व हिन्दी सम्मेलन नागपुर में हुआ था। इसके बाद यह चौथा अवसर है जब हिन्दी का विश्व समागम भोपाल में होने जा रहा है। हिन्दी को विश्व मंच पर स्थापित करने की इस कोशिश का परिणाम आप जब दुनिया के नक्शे में देखेंगे तो सहज ही अनुमान हो जाएगा कि ऐसे आयोजन परिणाम शून्य होने के बजाय परिणाममूलक रहे हैं। दुनिया के अधिसंख्य विश्वविद्यालयों में हिन्दी का विशेष रूप से पठन-पाठन हो रहा है। विश्व के 150 से 180 देशों के विश्वविद्यालयों में हिन्दी की उपस्थिति इसका प्रमाण है। अमेरिका के राष्ट्रपति श्री बराक ओबामा स्वयं कहते हैं कि-‘हिन्दी विश्व की भाषा बनने जा रही है और हिन्दी को जानना सबके लिए आवश्यक है।’ क्या यह तथ्य हिन्दी के विश्व आयोजनों को सार्थकता प्रदान नहीं करता है?
वास्तव में भारतीय समाज के लिए हिन्दी मात्र एक भाषा नहीं है। हिन्दी भारतीय समाज की अस्मिता है, उसकी पहचान है। हिन्दी हमारी धडक़न है। हिन्दी अपने जन्म से लेकर हमारे साथ चल रही है, पल रही है और बढ़ रही है। ऐसे में हिन्दी को लेकर जो चिंता व्यक्त की जाती रही है, वह कई बार बेमानी सी लगती है क्योंकि जिस भाषा में भारत के करोड़ों लोगों का जीवन निहित है, जिस भाषा से उनकी पहचान है, उस भाषा को लेकर चिंता महज एक दिखावा है। इस संबंध में भूतपूर्व सांसद एवं सुविख्यात कवि श्री बालकवि बैरागी लिखते हैं कि-‘गैर हिन्दी भाषी लोग जैसी हिन्दी लिख या बोल रहे हैं, उन्हें वैसा करने दो। उनका उपहास मत करो। उन्हें प्रोत्साहित करो। अपने हकलाते तुतलाते बच्चों के प्रति जो ममत्व और वात्सल्य आप में उमड़ता है, उस भाव से उनकी बलाइयां लो। यह भाव हमारे अभियान के आधार में रहे। यह हिन्दी की शास्त्रीयता और शुद्धता का समय नहीं है। वह जैसा रूपाकार ले रही है, लेने दो।’
पिछले दो-तीन दशकों की विवेचना करें तो स्पष्ट हो जाएगा कि हिन्दी घर-घर की भाषा बन गई। विश्व बाजार की नजर भारत के बड़े हिन्दी समाज पर है। मुठ्ठी भर अंग्रेजी के मोहपाश में बंधे समाज से बाहर निकल कर हिन्दी समाज की भाषा-बोली में आना भारतीय बाजार की विवशता है। देश में प्रकाशनों की बात करें तो अनेक बड़े प्रकाशनों को हिन्दी की धरती पर आना पड़ा है। अंग्रेजी के संस्करणों का उन्होंने त्याग कर दिया है अथवा हिन्दी के साथ-साथ अंगे्रजी के प्रकाशन के लिए मजबूर हैं। इस मजबूरी में खास बात यह है कि कल तक हिन्दी का प्रकाशन अनुदित सामग्री पर निर्भर था किन्तु आज हिन्दी में मौलिक सामग्री का प्रकाशन हो रहा है। यहां तक कि हिन्दी की पठनीय सामग्री को अनुवाद कर अंग्रेजी में प्रकाशित किया जा रहा है। क्या इस तथ्य को भी नजरअंदाज कर दें? शायद ऐसा करना संभव नहीं होगा।
मध्यप्रदेश की धरा अपने हिन्दी सेवकों से गौरवांवित होती रही है। हिन्दी सेवकों की यह श्रृंखला विशाल है। पराधीन भारत से लेकर वर्तमान समय तक, हर कालखंड में हिन्दी के गुणी सेवकों ने मध्यप्रदेश का गौरव बढ़ाया है। हिन्दी का यह गौरव बहुमुखी है। हिन्दी केवल अध्ययन, अध्यापन तक नहीं है और न ही साहित्य रचनाकर्म तक अपनी सीमारेखा खींच रखी है अपितु संगीत, कला, रंगमंच, सिनेमा और लोकजीवन में भी हिन्दी का विशिष्ट प्रभाव देखने को मिलता है। इस संबंध में सुविख्यात आलोचक डॉ. विजयबहादुर सिंह कहते हैं-‘ हिन्दी भी एक बड़े राष्ट्रीय जीवन की, एक अति प्राचीन देश की, बहुमान्य, बहुजन-संवेदी भाषा है। विश्व कोई एकल भाषा परिवार तो है नहीं। फिर हिन्दी और वृहत्तर अर्थों में हिन्दुस्तानी एक देश और समाज से मुक्ति संघर्ष, आत्माभिमान, परम्परा संवेदी, रूढि़-प्रतिरोधी, स्वातंत्र्यकामी चेतना की भाषा है। वह हमारे यथार्थ जीवन की, जमीन की बोलचाल तो है ही, हमारे सपनों की भी भाषा है।’
इस तरह यह बात स्पष्ट हो जाती है कि हिन्दी के इस विश्व आयोजन को चश्मा लगाकर देखने के बजाय खुले और बड़े मन से देखे जाने की जरूरत है क्योंकि हिन्दी खुले मन की भाषा है। हिन्दी हमारी अस्मिता है, हमारी पहचान है। आलोचना करने के लिए बेबुनियाद आलोचना करने वालों से श्री बैरागी कहते हैं-‘खीजने, झल्लाने या किसी को कोसने से हम हिन्दी के निश्च्छल चरित्र को कोई नया आयाम नहीं दे पाएंगे। हम खुद पहले हिन्दी के हो जाएं और हिन्दी में हो जाएं। हिन्दी में सोचें और हिन्दी पर अवश्य सोचें। हिन्दी के संदर्भ में यह युग और यह शताब्दी चिंता की नहीं है। यह हमारी चेतना का युग है। आत्म मंथन और पूर्ण समर्पण का युग है। आपके हमारे बच्चे आज जिन खिलौने से खेल रहे हैं उनमें हिन्दी है या नहीं, इस पर नजर रखिए। जिस भ्रम को आप पाल रहे हैं, उसमें कहीं ऐसा तो नहीं है कि आप और हम अंतर्राष्ट्रीय बनने की जुगाड़ में राष्ट्रीय भी नहीं रहें। राष्ट्रीयता हमारी भाषा है और यही हमारा भारत है।’ अस्तु, भोपाल मेंं हो रहे दसवां विश्व हिन्दी सम्मेलन, हिन्दी को विश्व मंच पर स्थापित करने में मील का पत्थर साबित होगा, यह निश्चय है।
लेखक मनोज कुमार भोपाल से प्रकाशित मासिक शोध पत्रिका “समागम” के संपादक है. संपर्क: 09300469918
mamta yadav
September 7, 2015 at 1:15 pm
isi khulepan ka natiza hai sthaniye sahitykaro ko pucha hi nhi gaya entry fees hi itni rakh di gai ki koi himmat nhi kar pa raha sarkari logo ko free agr ise sarkari ayojan kaha ja raha hai to galat nhi hai
sadaraabik
September 7, 2015 at 2:58 pm
bhataiti hai ,lekh nahin hai
modi ke liye hi pooraa tamaashaa hai
hindi kaa to koi bhalaa nahin honaa hai
bhateti karnewaalon ki pou baarh hai