Harsh Kumar : दोस्तों, प्रधानमंत्री की पत्रकारों के साथ मुलाकात की खबर सुर्खियों में है। जहां एक ओर पत्रकार इस बात से प्रफुल्लित नजर आ रहे हैं कि पीएम के साथ कुछ समय बिताने का अवसर उन्हें मिल गया वहीं कुछ लोग इसका बड़े ही नकारात्मक तरीके से आकलन करने का प्रयास कर रहे हैं। कुछ साथियों ने इसे पत्रकारिता के लिए काला दिन और न जाने क्या-क्या कह डाला है। मैं इस बारे में ये कहना चाहूंगा कि काश मुझे भी अपने देश के पीएम से मिलने का मौका मिल गया होता आज। पर कोई बात नहीं, कम से कम मुझे आज के वाकये के बाद ये दिलासा तो मिला कि देश के पीएम से कभी न कभी तो मिला जा सकता है। नहीं तो अब तक इस देश के पीएम आम आदमी की पहुंच से तो दूर थे ही बल्कि खास लोग भी आसानी से नहीं मिल पाते थे।
नरेंद्र मोदी ने अपनी रीच को बढ़ाने के लिहाज से ही सही लेकिन कम से कम एक आत्मीयता का परिचय तो दिया ही। खुद मेरे पत्रकार साथी सुनील पांडेय का मोदी के साथ फोटो देख में गदगद हो गया। दरअसल पत्रकारों के दिमाग में नकारात्मक विचार इस कदर भर चुके हैं कि हम हमेशा हर मौके को निगेटिव नजरिये से ही देखते हैं। क्या हमारी बिरादरी को वो ही राजनेता पसंद है जो मुंह पर तमाचा मारकर बात करे। या फिर कुछ भी खिलाफ लिख देने पर जेल में बंद करा दे? हम ओबामा से मिलने का लालयित रहेंगे, लेकिन अगर हमारे ही पीएम हम से मिल रहे हैं तो हमें वो हजम नहीं होता। मुझे याद है पिछले पीएम मनमोहन सिंह की अंतिम पीसी। उसमें मनीष तिवारी संचालन को बैठे थे और पत्रकारों की लिस्ट बनाकर बैठे थे कि कौन-कौन सवाल पूछेगा। जाहिर चंद गिने-चुने नाम ही थे। इसके अलावा ये भी तिवारी ने कहा था कि अपना परिचय देने के लिए सीट से खड़े हो जाएं ताकि मैं आपको पहचान सकूं। क्या हम इसी व्यवहार के लिए बने हैं?
अरविंद केजरीवाल जैसे नेता को हमने बनाया और जब दिल्ली का चुनाव केजरी जीत गए तो कहने लगे कि मीडिया बिका हुआ है। अंबानी ने खरीद लिया है। मैंने अपने कुछ चैनलों में कार्य कर रहे पत्रकारों को कहा भी था कि मान जाओ केजरी के पीछे इतना मत भागो, एक दिन ये ही तुम पर उंगली उठाएंगे। वही हुआ। जब तक केजरी एंड पार्टी को लाइव दिखाया जाता रहा तो मीडिया अच्छा था लेकिन जैसे ही दिल्ली की कुर्सी छोड़कर भागने के लिए मीडिया ने उन्हें निशाना बनाया तो सब बेईमान हो गए? मेरा ये मानना है कि आज का दिन पत्रकारिता का सबसे यादगार दिन है जब देश का प्रधानमंत्री खुद बिना किसी झिझक के मंच से उतरकर आप से मिल रहा है और सेल्फी खिंचवा रहा है। काश मैं भी आज एक सेल्फी खिंचवा पाता।
लेखक हर्ष कुमार दैनिक जागरण और अमर उजाला जैसे अखबारों में काम कर चुके हैं. इन दिनों दिल्ली में नवोदय टाइम्स अखबार में वरिष्ठ पद पर कार्यरत हैं. उनका यह लिखा उनके फेसबुक वॉल से साभार लेकर भड़ास पर प्रकाशित किया गया है.
पीएम-जर्नो सेल्फी प्रकरण पर कई अन्य कनिष्ठ-वरिष्ठ पत्रकारों की फेसबुकी टिप्पणियां यूं हैं…
Chandan Srivastava : पीएम के साथ पत्रकारों/संपादकों की ‘सेल्फी’ (लगे हाथ यह शब्द भी प्रसिद्धि पा गया) का विरोध करने वाले कितनी क्रांतिकारी प्रोफाइल हैं, जिनके एलबम में किसी शख्सियत के साथ एक भी सेल्फी न हो? आप जाते हैं मात्र साक्षात्कार लेने लेकिन सेल्फी लेना नहीं भूलते। और तो और जो डीम-एसपी के साथ दांत चियारे फोटो लगाते हैं, वे भी पत्रकारिता की गिरावट पर चिंतित हैं। रही बात सवाल-जवाब की तो जहां तक मुझे जानकारी है वह औपचारिक प्रेस वार्ता नहीं थी। हां प्रेस वार्ता के लिए निवेदन किया जा सकता था। इसमें भी कोई शक नहीं कि पत्रकार से गया-गुजरा, आत्म सम्मान विहीन दूसरा प्राणी धरती पर नहीं। लेकिन महोदय फिलहाल आपको गम-ए-पत्रकारिता नहीं, दहशत-ए-मोदी सता रहा है।
लखनऊ के पत्रकार चंदन श्रीवास्तव के फेसबुक वॉल से.
Vineet Kumar : मीडिया में आप अगर नौकरी मांगने जायेंगे तो अमूमन आपसे ये नहीं पूछा जायेगा कि आपने क्या-क्या पढ़ा है,किसके बारे में क्या जानते हो? आपसे पूछा जायेगा- आपको कौन-कौन जानते हैं पर्सनली? कई बार यहाँ तक पूछ लेंगे- आप अमर सिंह को फोन लगाकर बात कर सकते हो ? मतलब आपकी नेटवर्किंग कितनी है? दूसरा सवाल थोड़ा दायें-बांये करके कि आप और क्या कर सकते हो? आप बच्चा टाइप से बताने लगोगे- पैकेज बना लेता हूँ, इनपुट,आउटपुट का काम..ब्ला-ब्ला..जबकि वो जानना चाहते हैं इस मीडिया संस्थान के लिये बाहर से कितना माल ला सकते हो? ऐसे में सुधीर चौधरी से लेकर दीपक चौरसिया जैसे इस धंधे के बुढाठ लोग दांत चियारकर देश के प्रधान पीआर प्रक्टिसनर के साथ सेल्फी ले रहे हैं, उनके हाल पूछे जाने पर दुनिया के आगे नगाड़े पीट रहे हैं तो इसमें गलत क्या है ? वो दरअसल उन हजारों मीडिया छात्रों के आगे बेंचमार्क बना रहे हैं कि तुम्हें मेरी तरह देश का प्रधान पीआरओ जानता है या नहीं? अगर नहीं, तो पत्रकारिता की डिग्री की बत्ती बनाकर संध्यावंदन करो.. ( तस्वीर साभार- bhadas4media)
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मुझे समझ नहीं आ रहा कि आपलोग सुधीर चौधरी जैसे दागदार संपादक के देश के प्रधान सेवक के साथ दांत चियारकर सेल्फी लेने और थै-थै करके ट्वीट किये जाने पर इतने हलकान हो रहे हैं ? मेरे ख्याल से मीडिया लोकतंत्र का चौथा खम्भा है, जैसी मान्यताओं से मोह छूटा नहीं है. ऐसे में तो वो कल को भारतेंदु की प्रतिमा के आगे शेल्फी लेकर ट्वीट कर देंगे तो आप उन्हें गरीबों-वंचितों और हाशिये के समाज का पत्रकार मान लेंगें..हद है. ये बात समझने में भी दिक्कत है कि जिसका मालिक खुलेआम चुनाव में उस पार्टी की रैली में जाकर वोट देने की बात कर रहा हो, जिससे अच्छे दिन आने हैं, हरियाणा चुनाव के कितने दिन हुये…अब उस पार्टी के अवतारी पुरुष खुद मालिक के कर्मचारी के आगे अवतरित हो तो वो क्या उनसे ये सवाल करेगा कि आपने देश में अघोषित आपातकाल कैसे विकसित किया या फिर लहालोट होकर, मुंह बिदोरकर सेल्फी लेगा..टीवी लागत का माध्यम है, वो मैनेज नहीं होगा, प्रधान सेवक के सहोदर अर्थात मैनेजमेंट और बिज़नस की भाषा नहीं समझेगा तो क्या आपकी भाषा समझकर सड़क पर उतर आयेगा..
युवा मीडिया विश्लेषक विनीत कुमार के फेसबुक वॉल से.
Kumar Sauvir : देश के सारे लब्ध-प्रतिष्ठ पत्रकारों-संपादकों ने साबित कर दिया है कि पतन का पैमाना क्या हो सकता है। पैमाना है:- वे खुद। अब देखिये ना कि किस तरह इन लोगों ने सार्वजनिक तौर पर अपने-अपने पायजामों का नाड़ा खुलेआम खोल दिया। किसी ने बेहद तेज़, किसी ने पूरी विश्वसनीयता के साथ तो किसी ने सबसे आगे बढ़ कर।
लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार कुमार सौवीर के फेसबुक वॉल से.
Sandip Naik : झाडू बनाकर कलम को जगह बता दी है और स्पष्ट है कि झाडू कितनी भी अच्छी हो उसकी कीमत और जगह कितनी और कहाँ है। गणेश शंकर विद्यार्थी और तिलक होते तो क्या वे लेते सेल्फी ??? बेशर्मी की हद तो यह है कि अपमान सहने के बाद भी निठल्ले सम्पादक सेल्फी में व्यस्त है। अभी कुछ दिन पहले ही लिखा था मैंने कि कुछ लोगो के लिए पत्रकारिता लायसेंसशुदा वेश्यावृत्ति का व्यवसाय है। बंद कर दो अखबार और बन जाओ भांड चारण वैसे भी बचा क्या है अब !!! सच साबित हो गया सब कल।
सोशल एक्टिविस्ट संदीप नाईक के फेसबुक वॉल से.
Praveen Mishra : ये है इस देश के महान पत्रकार श्री सुधीर चौधरी जो की जी न्यूज़ में नौकर है। इनकी विशेषता है ये है की कुछ महीनो पहले ये हवालात में रह कर आये थे। आपने टी वी चेनलो पर एक पांच सितारा होटल में स्टिंग ऑपरेशन देखा होगा जिसमे ये नवीन जिंदल की कोयले की खदानों की खबरों को दबाने के लिए १०० करोड़ मांगते हुए दिखाई दे रहे थे। आज ये महाशय प्रधानमंत्री की चाय पार्टी में शामिल थे और उनके साथ अपने ” मोबाइल ” से ” सेल्फ़ी” के जरिये अपना फोटो ले रहे थे। ब्लैकमेलिंग का इनका केस अभी कोर्ट में विचाराधीन है। मुझे आस्चर्य होता है की प्रधानमंत्री जैसा व्यक्ति इस उठाईगीरे / ब्लैकमेलर पत्रकार के साथ हंस कर मुस्कराकर फोटो खिचवा रहे है। प्रधानमंत्री जी आप इस पद की गरिमा को क्यों गिरा रहे है केवल ईसलिये की ये ” चारण भाट ” पत्रकार २४ घंटे जी न्यूज़ पर आपकी चरण वंदना करते है। प्रधानमंत्री जी आपने सविंधान की शपथ ली है यदि आप इस तरह अपने हितो के लिए इन चाटुकारो के साथ फोटो खिंचवाएंगे तो ये पद निस्पक्ष कैसे रह पायेगा?
जन पत्रकार प्रवीण मिश्रा के फेसबुक वॉल से.
Vinod Singh : दंतचियार मीडिया क्या खाके मोदी का विरोध करेगी? जो चाय के बुलावे पर ही लोटपोट हुई जा रही हो। मठाधीश मोदी के साथ एक अदद सेल्फी के लिए जिस तरह ठेलमठेली की गई, वह मीडिया की औकात बताने के लिए काफी है। बंद कमरों में चरणरज लेने की बातें दबी जुबान से सुनने को मिल ही जाती हैं, लेकिन सरेआम नजारा कम ही देखने को मिलता है। अच्छा हुआ कि आज पूरा देश इसका गवाह बना। जिस सच के हथियार (कैमरा) से आप दूसरों को नंगा करते हो, आज उसी हथियार ने आपको भी नंगा कर दिया। जियो कर्णधारों, आपको शत् शत् नमन। आप जैसे लोगों के लिए ही कभी किसी ने लिखा था…. अब तो दरवाजे से अपने नाम की तख्ती उतार, लफ्ज नंगे हो गए, शोहरत बेमानी हो गई।
दिल्ली के पत्रकार विनोद सिंह के फेसबुक वॉल से.
Shakil Ahmed Khan : क्या भारत में सचमुच कोई चौथा स्तम्भ है भी ? क्योंकि पत्रकारिता मिशन होती है सच तक पहुँचने का जूनून होता है उसका एक पेशेवर अंदाज़ होता है, कलम झाड़ू बन जाए और लोकतंत्र की गंद बुहार दे या पत्रकार कुत्ता बन जाए और लोकतंत्र की पहरेदारी करे दोनों ही सूरतें वन्दनीय है, पर आज अधिकाँश पत्रकार दलाल हैं और पत्रकारिता उनके हाथ में ख़ंजर है ,जो उन्होंने लोकतंत्र की पीठ पर घोंप दिया है.
जन पत्रकार शकील अहमद खान के फेसबुक वॉल से.
Awadhesh Kumar : जब ऐसे लोग भी क्षुब्ध हो जाएं… शांत और संतुलित रहने वाले जाने माने पत्रकार और राज्य सभा टीवी में कार्यरत अरविन्द कुमार सिंह की टिप्पणियों में पीड़ाजनक क्षोभ दिखने लगे तो यह इस बात का प्रमाण माना जाएगा कि स्थिति किस सीमा तक बिगड़ गई है। पहले उन्होंने चार पंक्ति की एक छोटी टिप्पणी टीवी पर आने वाले बहसकर्ताओं पर लिखी। उसके बाद कल प्रधानमंत्री के पत्रकारों से दीपावली मिलन के दौरान पैदा हुए दृश्य पर आक्रोश व्यक्त किया। वस्तुतः जिस तरह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ सेल्फी या फोटो खिंचवाने की होड़ लगी थी वैसा दृश्य पत्रकार सम्मेलनों में इसके पहले कभी नहीं देखा गया। एकदम अशालीन और चिंताजनक दृश्य था। अरविन्द कुमार सिंह सत्ता के, राजनीतिक बदलाव के, बदलाव लाने वाले अनेक नेताओं के करीब रहे हैं, साथ ही कुछ वास्तविक आंदोलनों के गवाह और उनके नेताओं से गहरा जुड़ाव रहा है। वास्तविक आंदोलन आज की कुछ एनजीओ मार्का हल्लाबोल नहीं। उनका हस्र भी उन्होंने देखा है। आज भी इन दोनों धाराओं के उस समय के लोगों से उनका संबंध हैं। अरविन्द जी की तरह कुछ ऐसे बड़े पत्रकार हैं जो अपने अनुभव के कारण सामान्यतः यथास्थितिवाद के विरुद्ध आक्रामक नहीं होते, और हवा में नहीं बहते, क्योंकि उनने बहुत कुछ देखा है और उनका अपना नजरिया है। पर अब वे भी क्षुब्ध होकर विद्रोही स्वर अपना रहे हैं तो जाहिर है, पत्रकारिता की दुनिया में वैसा भी हो रहा है, जो नहीं होना चाहिए, वैसे लोग भी निर्णायक स्तर पर हैं जिन्हें वहां नहीं होना चाहिए….वैसे चेहरे भी दिख रहे हैं जिनको नहीं दिखना चाहिए…..। यानी कुल मिलाकर भविष्य के लिए एकदम चिंताजनक स्थिति।
दिल्ली के वरिष्ठ पत्रकार अवधेश कुमार के फेसबुक वॉल से.
Chanchal : कल मेला था. उभयलिंगियों की. भीड़ लगी थी, फोटो खिंचवा रहे थे. ताकि जब कभी भी शर्मिन्दा होने का मन करे, कपड़े से बाहर निकल कर सड़क पर टहलने का मन करे तो अपनी इस तस्वीर को देख लें. और फिर उसे चौपत कर गोलार्ध के बीच सुरक्षित रख दें कि आनेवाली पीढियां यह जान सकें कि हमारे पुरखे कितने लिजलिजे थे कि बगैर रीढ़ के भी चलते फिरते थे और फोटो तक खिचवा लेते थे. (शुक्रिया यशवंत भाई)
पत्रकार, स्तंभकार, कलाकार, रंगकर्मी और नेता चंचल के फेसबुक वॉल से.
मूल खबर….