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कश्मीर में बाढ़ की रिपोर्टिंग का सच : ‘हिन्दुस्तानी कुतिया’ ‘रंडी’ की वो गाली सिर्फ मेरे लिए नहीं थी, सारे मीडिया समाज के लिए था

मैं चारों तरफ से बाढ़ से घिरी हुई थी। रिपोर्टिंग करनी थी। अपने आठ साल की पत्रकारिता में अच्छे बुरे सभी तरह के लोगों से पाला पड़ा लेकिन कभी भी ऐसा अवसर नहीं आया जब महिला पत्रकार होने के नाते खुद पर शर्मिंदगी महसूस हुई हो। छह सितंबर को आई बाढ़ से हजारों लोग प्रभावित थे और मैं अकेली महिला पत्रकार थी जो वहां से रिपोर्टिंग कर रही थी। मेरा घर श्रीनगर के पहाड़ी क्षेत्र निशात में स्थित था जो बाढ़ से प्रत्यक्ष प्रभावित नहीं था। एक तरफ पत्रकारिता का जुनून, दूसरी तरफ परिवार की चिंता। मुझे खीज महसूस हो रही थी। 7 सितंबर को मैंने अंतिम रिपोर्ट अपने मुख्यालय तेहरान भेजा था। अगले पांच दिनों तक मैं यह सोचती रही कि क्या करूं।

<p>मैं चारों तरफ से बाढ़ से घिरी हुई थी। रिपोर्टिंग करनी थी। अपने आठ साल की पत्रकारिता में अच्छे बुरे सभी तरह के लोगों से पाला पड़ा लेकिन कभी भी ऐसा अवसर नहीं आया जब महिला पत्रकार होने के नाते खुद पर शर्मिंदगी महसूस हुई हो। छह सितंबर को आई बाढ़ से हजारों लोग प्रभावित थे और मैं अकेली महिला पत्रकार थी जो वहां से रिपोर्टिंग कर रही थी। मेरा घर श्रीनगर के पहाड़ी क्षेत्र निशात में स्थित था जो बाढ़ से प्रत्यक्ष प्रभावित नहीं था। एक तरफ पत्रकारिता का जुनून, दूसरी तरफ परिवार की चिंता। मुझे खीज महसूस हो रही थी। 7 सितंबर को मैंने अंतिम रिपोर्ट अपने मुख्यालय तेहरान भेजा था। अगले पांच दिनों तक मैं यह सोचती रही कि क्या करूं।</p>

मैं चारों तरफ से बाढ़ से घिरी हुई थी। रिपोर्टिंग करनी थी। अपने आठ साल की पत्रकारिता में अच्छे बुरे सभी तरह के लोगों से पाला पड़ा लेकिन कभी भी ऐसा अवसर नहीं आया जब महिला पत्रकार होने के नाते खुद पर शर्मिंदगी महसूस हुई हो। छह सितंबर को आई बाढ़ से हजारों लोग प्रभावित थे और मैं अकेली महिला पत्रकार थी जो वहां से रिपोर्टिंग कर रही थी। मेरा घर श्रीनगर के पहाड़ी क्षेत्र निशात में स्थित था जो बाढ़ से प्रत्यक्ष प्रभावित नहीं था। एक तरफ पत्रकारिता का जुनून, दूसरी तरफ परिवार की चिंता। मुझे खीज महसूस हो रही थी। 7 सितंबर को मैंने अंतिम रिपोर्ट अपने मुख्यालय तेहरान भेजा था। अगले पांच दिनों तक मैं यह सोचती रही कि क्या करूं।

किसी तरह मैंने हौसला पैदा किया। दुनिया को कश्मीर की बाढ़ और सरकार द्वारा किये जा रहे राहत कार्यों की वास्तविकता से अवगत कराने का। मैं घर से निकली तो मेरी सुरक्षा को लेकर चिंतित पापा भी मेरे साथ हो लिए। पापा गाड़ी चला रहे थे और मैं तस्वीरें लेने में व्यस्त थी। एक ही पहाड़ी रास्ता था जो थोड़ा सुरक्षित था परन्तु व्यस्त एवं खतरों से भरा था।

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लाल चौक सिटी सेंटर के रास्ते में बहुत जाम था। उससे निकलना मुश्किल था। मैंने हिम्मत पैदा की और हब्बा कडाल पर ट्रैफिक पुलिस बन गई। यातायात को नियंत्रित करते वक्त मैं आराम से यह महसूस कर सकती थी कि पुरुष मुझे ऐसे देख रहे हैं जैसे मै सड़क पर खड़ी कोई पागल या मूर्ख महिला हूं। खैर, हब्बा कदाल में इस मुसीबत से छुटकारा मिला। कुछ किलोमीटर चलने के बाद फिर मैं जाम में फंस गई जिससे निकलना नामुमकिन था। हमने गाड़ी पार्क कर के पैदल ही आगे बढ़ने का निश्चय किया। तकरीबन तीन किलोमीटर चलने के बाद हम डलगेट चौक पहुचे। इस समय तक मेरे फोन की बैटरी समाप्त हो चुकी थी। वहां एक सहृदय व्यक्ति थे जिनकी बेकरी थी। उन्होंने मेरे गैजेट को चार्ज करने की व्यवस्था की। मैं ताजन्म उनकी शुक्रगुजार रहूंगी। जब मेरा गैजेट चार्ज हो गया तो हमने सिटी के हालात, बाढ़ से हुई मौतें तथा पहले भी कभी ऐसा हुआ था या नहीं, इस पर चर्चा की।

मेरा कैमरामैन सुबह से डलगेट पर इंतज़ार कर रहा था लेकिन जब लोगों ने हमें कैमरा के साथ देखा तो आक्रोशित हो गए क्योंकि वे राष्ट्रीय मीडिया द्वारा की जा रही झूठी रिपोर्टिंग से बहुत खफा थे। मैंने एक बुजुर्ग का साक्षात्कार लेने के लिए सोचा जो कश्मीर के बाढ़ के इतिहास और इस बार क्यों इतनी ज्यादा क्षति हुई, इससे संबंधित अपना अनुभव साझा करना चाहते थे। जैसे ही कैमरा शुरू हुआ, आसपास के लोग मशरूम की तरह इकट्ठे हो गए और चिल्लाने लगे- पत्रकार झूठे हैं और मीडिया हालात का गलत चित्रण कर रही है। मैंने उनके गुस्से को शांत करने का भरपूर प्रयास किया। उन्हें बताया मैं कोई विदेशी पत्रकार नहीं हूं, स्थानीय हूं, उनकी ही तरह मैं भी प्रभावित हूं, मुझे काम करने दें ताकि दुनिया को यह पता चले कि कश्मीर में क्या चल रहा है।

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अचानक एक चुभती आवाज मेरे कान में आई- हिन्दुस्तानी कुतिया, रंडी, बंद करो यह ड्रामा। इन्ही शब्दों के साथ भीड़ उग्र हो गई और मेरे कैमरामैन को लात घूंसों से मारना शुरू किया। कुछ युवको ने हमें बचाया और हमारी टीम को बाहर निकाला। उन बचाने वालों में से एक का नाम मुझे याद है। शुक्रिया, मिर्ज़ा आबिद।

उस समय मुझे पत्रकार होने पर शर्मिंदगी का अहसास हुआ। इसलिए नहीं कि हताश पुरुषों की भीड़ ने मुझे गाली दी बल्कि इसलिए कि बड़े बड़े मीडिया संस्थान और पत्रकार कश्मीर की बाढ़ और बचाव के सिर्फ पांच प्रतिशत की ही रिपोर्टिंग कर रहे हैं।

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मुझे अपने महिला होने पर भी अफसोस हुआ इसलिए नहीं कि मेरे साथ जो हुआ उससे मैं भयभीत थी बल्कि मैं दुखी थी कि अकेले रिपोर्टिंग नहीं कर सकती थी और न ही बचाव टीम का हिस्सा हो सकती थी। कश्मीर की बाढ़ की वास्तविकता का सच अभी तक सामने नहीं आया है और न उसकी रिपोर्टिंग हुई है। यह सिर्फ तबाही का मंजर नहीं है, यह एक अहसास है और इस अवधारणा की पुन: पुष्टि है कि भारत सरकार के लिए कश्मीर के लोग दोयम दर्जे के निवासी हैं। सबसे पहले पर्यटकों को बाहर निकाला गया। यहाँ तक कि वहां कार्यरत भारतीय मजदूरों का बचाव प्राथमिकता थी। बचाव टीम के लिए कश्मीरियों का कोई महत्व नहीं था।

वह देश जो कश्मीर को अपना अभिन्न हिस्सा मानता है, एक बार फिर कश्मीरियो का दिल जीतने में हार गया। हां, वह विशेष शब्द “” रंडी “” जिसे किसी भी सभ्य समाज में फूहड़ माना जाता है, वह एक पत्रकार के रूप में सिर्फ मेरे लिए नहीं था बल्कि सारे मीडिया समाज के लिए था।

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इरान के न्यूज चैनल प्रेस टीवी की भारतीय पत्रकार शहाना बट्ट के अनुभव का हिंदी रुपान्तारण. शहाना बट्ट से संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है. हिंदी अनुवाद का काम किया बिहार के गया जिले के जाने माने वकील, पत्रकार और एक्टिविस्ट मदन तिवारी ने.

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0 Comments

  1. ओम सराफ

    September 30, 2014 at 8:52 am

    हब्बा कडाल/कदाल नहीं, कदल. कश्मीरी भाषा में कदल पुल को कहते हैं.

  2. mahender thakur

    September 30, 2014 at 1:37 pm

    mam g aap sahi hai.par ginhonne ye kiya bo gatl hain.lekin aap doglapan apna rahi hai bas bo bhi galt hai g

  3. Rakesh Garg

    October 1, 2014 at 6:53 am

    afsos, itani madad ke bad bhi aapka dil nahi jeet sake ham.
    1. bharat sarkar ke aap logo ke liye khajana kol diya.
    2. poore bharat ke log sadako me utarkar log pese jod kar aap logo ki madad ke liye bhej rahe hae.
    3. desh ki sena ne din rat ek kar diya aapki help ke liye.
    4. poora desh ek sath help kar raha tha aap loge ke liye
    5. poore desh se khane, peene, rahane ki samagri bheji gai.
    ———-
    aap ye sab bhool gai my sistar.
    ye sab kam kisi ka dil jeetane ke liye nahi kiya ja raha tha. aap sab hamare apne ho, is bhavana ke sath kiya ja raha tha.
    doosari bat aapko ye sab likhane ke pahale ye sochana chaiye tha ki ye samanya time nahi tha. ye to ek badi trasadi thi. eese samay hamako dharya rakhana padata hae. aap uttarakhand ki trasadi ye koi aur trasadi ko dekhe. waha ke log to na esa sochate aur na hi waha ke kisi pratakar ne kaha ki aap hamara dil nahi jeet paye.
    aapki patrakarita wesi hae jese film- “Peepli Live”
    dil me jab pahale se hi galat bat bethi ho to usame achchai nahi dikhati hae.
    help ke bad thnx kahane ki bajay aapne kya likha hae socho jara. jin loge ne aap logo ke doobe gharo tak, rote hue bachcho ko khana, pani, milk pahuchaye etc.. wo sab bekar ho gaya….yahi hae aapka matalab?
    behatar ho… behata hota yadi aap bharat ke kasmeer aur pakistan ke kasmeer ki trasadi ke help me antar dekhati. to aapko wastavikata pata chalegi.
    mind ko saf kar achchai parkarita kijie. aap sab hamare hae. ham sab ek hae.

  4. vikash

    October 1, 2014 at 4:11 pm

    Ye snaskar kasmiroyon ka hai… un kashmiriyon ko sharm nahi ayee ki ek mahila ko RANDI kah rahe hain, hindustani kutiya kah rahe hian… ayese longo ko madad nahi jute marne chahiye…jo apni ma bahan ko RANDI kahta ho..

  5. priyanka

    October 3, 2014 at 7:34 am

    मोहतरमा लिख रही हैं कि सबसे पहले भारतीय पर्यटकों को निकाला गया। मैं यहां बताना चाहती हूं कि जब उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदा आई थी, तब भी सरकार ने अपना प्राथमिकता में पर्यटकों और बाहर से आए यानि अन्य प्रदेशों से आए श्रद्धालुओं को बाहर निकालने का काम सबसे पहले किया था। वो तो उत्तराखंड था, नहीं तो फिर कोई यही आरोप लगाता कि अपने लोगों को पहले बाहर निकाला। दरअसल किसी भी प्राकृतिक आपदा के वक्त पहले दूसरे प्रदेशों के लोगों को बचाने की कवायद की जाती है, इसमें अपने या पराए लोग वाली बात कहां से आ गई। दरअसल मोहतरमा आप तो पत्रकार होते हुए भी यही सोच रही हैं कि भारत सरकार की नीयत गलत है, जबकि नीयत तो आपकी खोटी है, जो अपने ही देश यानि भारत को शक की नज़रों से देखते हो।

  6. priyanka

    October 3, 2014 at 7:39 am

    एक सवाल और, क्या आपकी बोली, भाषा, चेहरा-मोहरा देखकर भी स्थानीय लोगों ने नहीं पहचाना कि आप भी स्थानीय ही हो। आपके अपनेे ही लोगों ने आपके लिए अपशब्द का इस्तेमाल किया। उनकी इतनी गंदी भाषा के बाद भी आप उनके लिए ही सहानुभूति जता रही हो, यह बताने की कोशिश कर रही हो कि उन्होंने आपको गाली क्यों दी। मुझे भी पत्रकारिता में दस साल हो गए हैं, कई विपरीत परिस्थितियों में रिपोर्टिंग की है, लेकिन कभी ऐसे हालात का सामना नहीं किया, क्योंकि भारत के मैदानी इलाकों में या यूं कहें आपके इलाके को छोड़कर अन्य हिस्सों में महिलाओं को सम्मान की नजर से देखा जाता है।

  7. kumar vivek

    October 4, 2014 at 7:54 am

    भारत सरकार के लिए कश्मीर के लोग दोयम दर्जे के निवासी हैं। सबसे पहले पर्यटकों को बाहर निकाला गया। यहाँ तक कि वहां कार्यरत 😐 भारतीय मजदूरों 😐 का बचाव प्राथमिकता थी। बचाव टीम के लिए कश्मीरियों का कोई महत्व नहीं था।àæãUæÙæ Áè …. ØãU âÕ Ìæð ˜淤æçÚUÌæ ·¤æ çãUSâæ ãñUÐ ÂãUÜð Ìæð ¥æ·ð¤ Á’Õð ·¤æð âÜæ×Ð Üðç·¤Ù °·¤ ÕæÌ ×éÛæð âÕâð ’ØæÎæ ¥¹ÚU ÚUãUè ãñU ç·¤ àææØÎ ¥æ Öè ¹éÎ Öè ·¤à×èÚU ¥æñÚU ÖæÚUÌ ×ð´ Ȥ·ü¤ ·¤ÚU ÚUãUè ãñUÐ ¥æ·¤æ ØãU çܹÙæ ç·¤ âÕâð ÂãUÜð ØãUæ´ âð çßÎðàæè ÂØüÅU·¤æð´ ¥æñÚU çȤÚU ÖæÚUÌèØ ×ÁÎêÚUæð´ ·¤æð çÙ·¤æÜæ »ØæÐ §Uâè âð ¥æ·¤è âæð¿ ¥æñÚU ÙÁçÚUØæ çιæ§üU ÎðÌæ ãñUÐ

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