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शैलेंद्र की जनसत्ता कोलकाता से हो गयी विदाई, अगले हफ्ते मेरी बारी

माननीय ओम थानवी का आभार कि शैलेंद्र जी और मेरे करीबन पच्चीस साल एक साथ काम करते हुए साथ साथ विदाई की नौबत आ गयी। पिछले साल जब शैलेंद्र रिटायर होने वाले थे, तब हमने उनसे निवेदन किया था कि 1979 से शैलेंद्र हमारे मित्र रहे हैं और अगले साल मेरी विदाई है तो कमसकम उन्हें एक साल एक्सटेंशन दे दिया जाये। वैसे ओम थानवी से मेरे संबंध मधुर नहीं थे लेकिन उनने तुरंत फेसबुक पर सूचना करीब दो महीने पहले दे दी कि शैलेंद्र की सेवा जारी है।

माननीय ओम थानवी का आभार कि शैलेंद्र जी और मेरे करीबन पच्चीस साल एक साथ काम करते हुए साथ साथ विदाई की नौबत आ गयी। पिछले साल जब शैलेंद्र रिटायर होने वाले थे, तब हमने उनसे निवेदन किया था कि 1979 से शैलेंद्र हमारे मित्र रहे हैं और अगले साल मेरी विदाई है तो कमसकम उन्हें एक साल एक्सटेंशन दे दिया जाये। वैसे ओम थानवी से मेरे संबंध मधुर नहीं थे लेकिन उनने तुरंत फेसबुक पर सूचना करीब दो महीने पहले दे दी कि शैलेंद्र की सेवा जारी है।

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अबकी दफा आज तक हमें मालूम नहीं था कि शैलेंद्र जा रहे हैं जबकि डेस्क पर हम लोग कुल पांच लोग थे। शैलेंद्र, मैं, डा.मांधाता सिंह, जयनारायण और रामबिहारी। राम बिहारी वेज बोर्ड पर नही हैं। चूंकि दस्तूर है कि संपादक मैनेजर की सेवा में विस्तार सामान्य बात है और उपसंपादक विदा कर दिये जाते हैं। हम मान रहे थे कि इस बार हम विदा होंगे जरूर, लेकिन शैलेंद्र रहेंगे। वैसा नहीं हुआ।

माननीय प्रभाष जोशी ने आईएएस जैसी परीक्षा लेकर हमें चुना तो उनने अगस्त्य मुनि की तरह जो यथावत रहने का वरदान दिया,उसके मुताबिक हम यथावत विदा हो रहे हैं हालांकि मजीठिया वेतन बोर्ड में दो प्रमोशन का प्रावधान है। वेतनमान बदल गया है लेकिन हैसियत नहीं बदली। अखबार भी अब खबरों का अखबार हो गया है और संपादक भी बदल गये हैं। जिन्हें मैं निजी तौर पर नहीं जानता। वे कृपापूर्वक कोलकाता आये और हमने उनसे कहा कि दस साल तक कोलकाता कोई संपादक आये नहीं हैं तो आप आये हैं तो आपका आभार।

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हमने उनसे कहा कि हमें अब तक कुछ नहीं मिला तो आगे भी कोई उम्मीद नहीं है और न हमारी कोई मांग है। वैसे भी हम जा रहे हैं तो हम बस इतना चाहते हैं कि हमारे साथी रामबिहारी का वेतन थोड़ा बढ़ा दिया जाये और स्ट्रींगरों का कुछ भला हो जाये। हमें तब भी उम्मीद थी कि अगर संस्करण जारी रहता है तो कमसकम शैलेंद्र बने रहेंगे। कल तक यही उम्मीद बनी हुई थी जबकि हम जाने की पूरी तैयारी कर चुके हैं और बाद में क्या करना है, यह भी तय कर चुके हैं।

मेरे जाने से हफ्तेभर पहले ही शैलेंद्र की विदाई 25 साल का साथ छूटने का दर्द दे गयी और इसके लिए हम कतई तैयार न थे। खुशी इस बात की है कि कोलकाता में हम लोग एक परिवार की तरह आखिर तक बने रहे। अब यह परिवार टूटने के आसार हैं।  जिस तेजी से सूचना परिदृश्य बदला है, उससे परिवर्तन तो होना ही था और इस परिवर्तन में जाहिर है कि सनी लिओन की प्रासंगिकता हो भी सकती है, हिंदी पत्रकारिता और साहित्य में हमारी कोई प्रसंगिकता नहीं है। जाते जाते हमें कोई अफसोस नहीं है।

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मामूली पत्रकार होने के बवजूद जनसत्ता में होने की वजह से जो प्यार, सम्मान और पहचान मुझे मिली, मेरी जाति और मेरे तबके के लोगों के लिए इस केसरिया समय में हासिल करना बेहद मुश्किल है। फिर पिछले 25 साल में अपनी बातें कहने लिखने और संपादक की आलोचना तक कर देने की बदतमीजियां जैसे मैंने की, उसके मद्देनजर मुझे किसी भी स्तर पर रोका टोका नहीं गया। हम संपादक या मैनेजर नहीं हुए, इसका भी कोई अफसोस नहीं है। हमने विशुद्ध पत्रकारिता की है चाहे कोई हैसियत हमारी हो न हो, जनसत्ता ने हमें इतनी आजादी दी, इसके लिए हम आभारी हैं।

शैलेंद्र से हमारी मुलाकात 1979 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में डा.रघुवंश की कक्षा में हुई थी, जहां इलाहाबाद पहुंचते ही शैलेश मटियानी जी ने मुझे भेज दिया था। इलाहाबाद में मैं जबतक रहा तब तक लगातार हम साथ साथ रहे। वैसे शुरू से शैलेंद्र वामपंथी रहे हैं और पत्रकारिता में भी उनने वामपंथ का निर्वाह किया और यह आज के केसरिया दौर में उनकी अपनी उपलब्धि है। इलाहाबाद में तब वामपंथी कम नहीं थे। उदितराज तब रामराज थे और एसएफआई के सक्रिय कार्यकर्ता थे और जिनके साथ वे जेएनयू लैंड हुए, वे देवीप्रसाद त्रिपाठी भी वामपंथी थे।

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अनुग्रह नारायण सिंह तब एसएफआई की तरफ से इलाहाबाद विश्विद्यालय के अध्यक्ष थे जिनने सबसे पहले दलबदल किया। इसलिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय की मौजूदा अध्यक्ष की राजनीति पर मुझे कोई अचरज नहीं हुआ। रीता बहुगुणा भी पीएसओ से इलाहाबाद विश्वविद्यालय की उपाध्यक्ष बनी थीं। तमाम लोग बदल गये लेकिन शैलेंद्र नहीं बदले और न हम बदले। हम जब तक रहे, पूरे मिजाज और तेवर के साथ रहे, शायद जनसत्ता जैसे अखबार की वजह से ऐसा संभव हुआ।

शायद प्रभाष जी संपादक थे तो हम लोगों की नियुक्तियां जनसत्ता में हो सकीं और हमने पच्चीस साल बिता भी लिये। वैसे अपने सरोकार और सामाजिक सक्रियता जारी रखते हुए दैनिक आवाज में अप्रैल 1980 से शुरू पत्रकारिता 2016 तक बिना किसी व्यवधान के जारी रख पाना कुदरत का करिश्मा ही कहा जायेगा। अब मौसम बदल रहा है। फिजां बदल रही है। देश मुक्तबाजार है तो पत्रकारिता भी मुक्तबाजार है।

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सूचना और विचार की बजाय सर्वोच्च प्राथमिकता बाजार और  मनोरंजन है और हम जैसे बूढ़े लोग न बाजार के लायक हैं और न मनोरंजन के लिहाज से काम के हैं, इसलिए ऐसा होना ही था। हिंदी समाज के लिए जनसत्ता के होने न होने के अलग मतलब होसकते हैं।आज के दौर में नहीं भी  हो सकते हैं। बहरहाल हम चाहते हैं कि हम रहे या न रहे, जनसत्ता अपने मिजाज और तेवर के साथ जारी रहे।

लेखक पलाश विश्वास जनसत्ता कोलकाता में कार्यरत हैं.

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0 Comments

  1. Ashok Upadhyay

    May 12, 2016 at 2:02 pm

    प्रिय पलाश जी ,
    आपने लिखा है कि जनसत्ता अपने मिजाज और तेवर के साथ जारी रहे .आपकी कामना अपनी जगह मगर अब ऐसा हो नहीं सकता .प्रभाष जोशी जी की परम्परा ओम थानवी पर आ कर खत्म हो जाती है . अब तो अखबार का नाम बदलना ही बाकी है …..न्यू जनसत्ता….कैसा रहेगा

  2. Manoj K Rahi

    May 12, 2016 at 6:16 pm

    AtiPriya Palash Da,
    Saadar Namashkar.
    Aaj kafi arsey baad aapki tashveer dekhi. Mazaa aa gaya aapko dekh kar, lekin aap dono ko dekh ker aur retire hone ki baat jaan ker apni bhi tabiyat kharab hone lagi. Mun baith gaya. Kitna jaldi samai beet jata hai. 12 warsh pahle aapse wida liye, aur ab apke retirement per milne ki utkat iksha ho rahi hai. Please call or miss call me.. Mera no. 09935833496 hai. Shailendra ji ko bhi namashkar. Unhein bhi mera no. denge aur tab hum baat karenge. Regards

  3. varsha

    May 31, 2016 at 4:02 am

    जी अब तो चालीस के नजदीक पहुंचते ही लोगों को बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा है. अब सिर्फ फ्रेशर चाहिए, जो कम पैसे में ज्यादा काम करे और जब वो अपनी जिम्मेदारियों के ताने बाने में आए, तो नौकरी जाने का डर साथ गुंथ जाए।

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