Anil Singh : भड़ास पर एक खबर पढ़ने के बाद मन बुरी तरह व्यथित है. पत्रकारिता के पेशे में ईमानदार होना और रीढ़ रखना कितना दुखदायी हो सकता है, इसके जीते जागते उदाहरण हैं दैनिक जागरण, बनारस के पत्रकार शशिभूषण तिवारी. कैंसर से पीडि़त एवं बदहाली से जूझते शशि भैया की तस्वीर देखकर दिल विचलित हो गया. बेहद हंसमुख और मिलनसार तबीयत वाले शशि भैया के साथ दैनिक जागरण, चंदौली ब्यूरो में लंबे समय तक काम करने का अवसर मिल चुका है, इसलिये उनकी हालत देखकर तकलीफ कुछ ज्यादा हो रही है. उनको फोन मिलाया तो यह दर्द और बढ़ गया. फोन भाभी ने उठाया, मैंने परिचय दिया तो उन्होंने बताया कि बोल नहीं पा रहे हैं. फिर भी, बात कराया, लेकिन वे ठीक से बोल नहीं पा रहे थे. उनकी आवाज तक समझ नहीं आ रही थी. उनकी ऐसी हालत देखकर भगवान पर भी भरोसा करने का मन नहीं हो रहा है.
दरअसल, पत्रकारिता के चमकदार चेहरे के पीछे जिंदगी कितनी स्याह होती है, उसके जीते जागते उदाहरण बन गये हैं शशि भूषण तिवारी. अखबार के घटियापन के शिकार शशि भइया को इस हालत में पहुंचाने का जिम्मेदार दैनिक जागरण, वाराणसी का प्रबंधन है. खासकर वाराणसी यूनिट में समाचार संपादक रहे राघवेंद्र चड्ढा एवं मैनेजर अंकुर चड्ढा. शशि भूषण तिवारी की गलती केवल इतनी थी कि उन्होंने दैनिक जागरण प्रबंधन की ओर से मजमीठिया नहीं मांगने के लिये बनाये गये पत्र पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया था. यही इनकार उनकी जिंदगी के लिये परेशानी का सबब बन गया. बेहद ईमानदार और भाषा पर जबर्दस्त पकड़ रखने वाले शशि भूषण तिवारी इसके बाद ही जागरण प्रबंधन के निशाने पर आ गये. पहले उन्हें चंदौली से हटाकर बनारस लाया गया, फिर उन्हें जबरदस्ती इलाहाबाद यूनिट भेज दिया गया. इलाहाबाद में उनके साथ प्रबंधन जितना दुर्व्यवहार कर सकता था किया. इलाहाबाद में तैनाती के दौरान उनसे बात होती थी तो बताते थे कि किस तरीके से अधिक समय तक काम कराया जा रहा है. तरह तरह से प्रताडि़त करने का प्रयास किया जा रहा है.
मामूली तनख्वाह देने वाले प्रबंधन ने जब हद से ज्यादा परेशान कर दिया तो उन्होंने श्रम न्यायालय में मजीठिया वेज बोर्ड के लिये मामला दायर कर दिया, लेकिन तमाम सरकारी संस्थानों की तरह श्रम न्यायालय भी दैनिक जागरण प्रबंधन के दबाव में अब तक मामले को लटकाये रखा है. इसके बाद उनका तबादला आगरा यूनिट के लिये कर दिया गया, जहां कुछ दिन काम करने के बाद बीमारी के चलते आवेदन देकर घर चले आये. कुछ दिन प्राइवेट नौकरी करके काम चलाते रहे. कैंसर के महंगे इलाज ने धीरे-धीरे सब कुछ बिकवा दिया. बेइमानी कभी की नहीं इसलिये कोई अवैध संपत्ति या बैंक बैलेंस जमा नहीं किया. बीमारी के दौरान एकमात्र पुत्र के प्राइवेट नौकरी से खर्च चल रहा था, लेकिन पिता के इलाज के लिये ज्यादा अवकाश लेने पर उसकी नौकरी भी खतरे में आ गई है.
सवाल यही है कि समाज और सिस्टम किसी पत्रकार को बईमान या भ्रष्ट घोषित करने में एक मिनट की देरी नहीं करता, लेकिन एक पत्रकार, जो मामूली पैसे में नौकरी करने के बावजूद ईमानदारी से अपना काम करता है, के साथ समाज का एक आदमी खड़ा नहीं होता, आखिर क्यों? शशि भूषण तिवारी अगर बेईमान होते या रीढ़विहीन होते तो शायद दैनिक जागरण में मलाई खा रहे होते. महंगे से महंगा ईलाज भी उनसे तमाम लाभ लेने वाले करा देते, लेकिन ईमानदारी से अपना काम किया तो पूरा परिवार बरबादी के कगार पर है. फिर क्यों कोई पत्रकार संवेदनहीन समाज के लिये ईमानदारी और जिम्मेदारी से काम करे? क्यों?
कई न्यूज चैनलों और अखबारों में काम कर चुके लखनऊ के पत्रकार अनिल सिंह की एफबी वॉल से.
मूल खबर-
vikash gupta
September 4, 2019 at 11:37 pm
श्री अनिल जी कॉर्पोरेट मीडिया बईमान और ईमानदार दोनों का बुरा हश्र कर रही है, जरूरी है कि दोनों ही तरह के पत्रकार इस बात को समय रहते समझे और पूरे दम से कोई दूसरा काम करने की हट पाले, नही तो सबका हाल एक दिन यही होगा. बस स्वरूप भिन्न हो सकता है.