दुखद सूचना हिंदुस्तान ग्रुप की मैगजीन कादम्बिनी से आ रही है। यहां कार्यरत वरिष्ठ पत्रकार शशिभूषण द्विवेदी का निधन हो गया है।
फेसबुक पर महेंद्र अवधेश श्रीवास्तव लिखते हैं-
भाई शशि भूषण द्विवेदी नहीं रहे। एक बेबाक-बिंदास टिप्पणीकार के रूप में इसी फेसबुक के जरिये मैंने उन्हें जाना। समझने-परखने का प्रयास किया, अपना कोई कद-पहचान न होते हुए भी। मिलने की बहुत इच्छा थी। सोचा था कि कभी किसी पुस्तक मेले में दर्शन का सौभाग्य मिला, तो उन्हें प्रणाम करूंगा। लेकिन, जिम्मेदारियों और बेबसी ने इस कदर जकड़ा कि पिछले दो-तीन पुस्तक मेले मुझसे छूट गए। शशि जी जब कुछ कहते थे, तो लगता कि जैसे कोई अपने बीच का आदमी बोला। मैं उनकी हर पोस्ट को पढ़ता और लाइक करता, लेकिन कमेंट नहीं करता। डर सा लगता था। सादर नमन मेरे भाई। विधाता आपकी आत्मा को अपने श्री चरणों में स्थान दें।
अरुण शीतांश की टिप्पणी पढ़ें-
Shashi Bhooshan Dwivedi से मेरी मुलाकात दिल्ली विश्वविद्यालय के गेस्ट हाउस में हरे प्रकाश उपाध्याय के साथ हुई थी, प्र ले सं का राष्ट्रीय सम्मेलन में। वहां हमलोग साथ में खाना-वाना खाए।
विष्णु नागर ने कादम्बिनी पत्रिका में कविता प्रकाशित की थी तो उसकी चर्चा की।
फोन पर बातचीत हमेशा होती रहती थी।
विश्वास नहीं हो रहा है आज नहीं हैं।
उनको रिक्शा पकड़ा कर गेस्ट हाउस लौट आया था। उस क्षण की बहुत याद आ रही है।
मन बहुत दुःखी है। ये जाने की उमर नहीं थी। बहुत प्यारे इंसान थे। लग रहा है यह झूठी ख़बर है।
उन्होंने अपना फ्लैट लिया। उसके बाद बात नहीं हो सकी।
मैं तो लगातार सबको फोन कर रहा हूं जब से कोरोना काल की शुरुआत हुई है। अब इन्हीं से बात होने वाली थी कि….! नमन!!
अजित प्रियदर्शी की प्रतिक्रिया-
नयी सदी के चर्चित और अपने तरह के अनोखे कथाकार Shashi Bhooshan Dwivedi का इतनी जल्दी जाना हतप्रभ कर गया। वे जितने अच्छे कथाकार थे, उतने ही अच्छे इंसान। दोटूक, बेबाक, जि़न्दादिल इंसान की गवाही देते थे उनके पोस्ट। दिल्ली के आत्ममुग्ध और अहमन्य साहित्यिक परिदृश्य के बाहर था उनका व्यक्तित्व। किसी साहित्यिक प्रकरण की जानकारी लेने के लिए उन्होंने एक बार फोन किया था।उनसे दिलचस्प संवाद याद है। उनके परिवार को यह कठिन दुख सकने की शक्ति मिले। उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि!
कश्यप किशोर मिश्र का कमेंट-
“अतीत झूठा होता है अतीत में ठीक ठीक वापसी संभव नहीं।”
“मरना ही सबकुछ नहीं होता सही समय पर मरना जरूरी होता है।”
बीते चार घंटे पहले शशिभूषण जी के एकाएक न रहने की खबर पढ़ी। बड़ी देर तक दिमाग में कोई प्रतिक्रिया नहीं आ रही थी। कुछ सोचा ही नहीं जा रहा था। सिर्फ यहां वहां उनके नहीं रहने की खबर देख रहा था पढ़ रहा था।
आज के दौर में, साहित्य और साहित्यकार “सुपर मार्केट” के प्रोडक्ट की तरह हैं उनके बीच शशिभूषण जी पुराने वक्त के कस्बाई या छोटे शहरों की एक परचून की दूकान की तरह थे। बिना किसी तड़क भड़क के बिना किसी चमकदार पैकिंग के, बिना किसी डिस्काउंट आफर के बेहद सहज तरीके से सिर्फ जरूरत भर की बात जरूरत भर की पुड़िया में बांध देते थे।
विनीत कुमार नें शशिभूषण जी को याद करते हुए कहा कि “फोन पर बात करते हुए वो अपने साथ एक जंगल लेकर काल करते थे।” मेरे ख्याल में वो खुद में एक जंगल बन गये थे। भरी – पुरी आबादी के बीच एक पुरानी हवेली की मानिंद थे जिसमें समय के साथ साथ पौधों लतरों झाड़ झंखाड़ का एक जंगल उग आया हो। बीच आबादी एक मकान अपनें पैदा किये जंगल के साथ अपनी गति से जी रहा हो।
ऐसी हवेलियां अपना जंगल लिए खत्म होती हैं या इनके जंगल इन्हें लिए दिए खत्म होते हैं। ऐसा ही हुआ भी। शशिभूषण जी के साथ साथ उनके परिवेश और व्यक्तित्व के सायबान तले फैला फूला जंगल भी सहसा ही खत्म हो गया।
सुरेशचंद रोहरा
May 8, 2020 at 12:11 pm
कादम्बिनी एक विशिष्ट पत्रिका है, शशि जी वहां संपादकीय टीम मे थे इस तरह उन्हे एक कहानी लेखक एक संपादकीय टीम के सदस्य के रुप में याद किया जा सकता है!