हेपेटाइटिस यानि लीवर की एक खतरनाक बीमारी…. जानकारी से ही बचाव संभव है!
शेष नारायण सिंह
मैं कई बड़े पत्रकारों और शिक्षाविदों को जानता हूँ जिनको या तो स्वयं को या किसी रिश्तेदार को लीवर से सम्बंधित बीमारियों से परेशानी हुई और सही वक़्त पर जानकारी मिलने से जीवन बचाया जा सका लेकिन अपने समुदाय के अन्य लोगों के लाभ के लिए कोई प्रयास नहीं करते. मैं खुद इस बीमारी का शिकार होते होते बचा क्योंकि किसी अन्य बीमारी के इलाज के दौरान इसका भी पता लगा और बात संभाल ली गयी. उसके बाद से मैं अक्सर इसके बारे में लिखता रहता हूँ. किसी अखबार में नहीं छपता तो अपने फेसबुक पेज के ज़रिये ही सूचना पहुंचाता रहता हूं. इसलिए आइए आज थोड़ी सेहत की बात कर ली जाए.
बीमारियों से मुक्ति और स्वस्थ रहना इंसान की ज़िंदगी की सबसे बड़ी उपलब्धि है. आम तौर पर कैंसर, हार्ट अटैक, एड्स आदि को जानलेवा बीमारी माना जाता है लेकिन सबसे भारत में सबसे ज्यादा मौतें हेपेटाइटिस से होती हैं लेकिन दुर्भाग्य यह है कि इस जानलेवा बीमारी के बारे में जानकारी बहुत कम है. अगर सही तरीके से देखभाल किया जाए तो हेपेटाइटिस से जान बचाई जा सकती है. हालांकि लीवर की यह बीमारी पूरी दुनिया में बहुत ही खतरनाक रूप ले चुकी है.
दुनिया में ऐसे ११ देश हैं जहां हेपेटाइटिस के मरीज़ सबसे ज़्यादा हैं. हेपेटाइटिस के मरीजों का ५० प्रतिशत तीसरी दुनिया के देशों में रहते हैं. जिन देशों में हेपेटाइटिस के सबसे ज्यादा मरीज़ रहते हैं उनमें ब्राजील, चीन, मिस्र, भारत, इंडोनेशिया , मंगोलिया, म्यांमार, नाइजीरिया, पाकिस्तान उगांडा और वियतनाम में रहते हैं. ज़ाहिर है इन मुल्कों पर इस बीमारी से दुनिया को मुक्त करने की बड़ी जिम्मेवारी है.
२०१५ के आंकडे मौजूद हैं. करीब ३३ करोड़ लोग हेपेटाइटिस की बीमारी से पीड़ित थे. हेपेटाइटिस बी सबसे ज़्यादा खतरनाक है और इससे पीड़ित लोगों की संख्या भी २५ करोड़ के पार थी. ज़ाहिर है अब यह संख्या और अधिक हो गयी होगी. २०१५ में हेपेटाइटिस से मरने वालों की संख्या १४ लाख से अधिक थी .चुपचाप आने वाली यह बीमारी टीबी और एड्स से ज्यादा लोगों की जान ले रही है. ज़ाहिर है कि इस बीमारी से युद्ध स्तर पर मुकाबला करने की ज़रूरत है और इस अभियान में जानकारी ही सबसे बड़ा हथियार है.
विज्ञान को अभी तक पांच तरह के पीलिया हेपेटाइटिस के बारे में जानकारी है. इस जानलेवा बीमारी के बारे में पूरी दुनिया में जानकारी बढाने और उन सभी लोगों को एक मंच देने के उद्देश्य से यह तरह तरह के आयोजन पूरी दुनिया में किये जाते हैं. हर साल करीब १३ लाख लोग इस बीमारी से मरते हैं. इस लिहाज से यह टीबी, मलेरिया और एड्स से कम खतरनाक नहीं है. हेपेटाइटिस के ९० प्रतिशत लोगों को पता भी नहीं होता कि उनके शरीर में यह जानलेवा विषाणु पल रहा है. नतीजा यह होता है कि वे किसी को बीमारी दे सकते हैं या लीवर की भयानक बीमारियों से खुद ही ग्रस्त हो सकते हैं. अगर लोगों को जानकारी हो तो इन बीमारियों से समय रहते मुक्ति पाई जा सकती है.
हेपेटाइटिस ए, बी, सी, डी और ई. सभी खतरनाक हैं लेकिन बी से खतरा बहुत ही ज्यादा बताया जाता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन हेपेटाइटिस को २०३० तक ख़त्म करने की योजना पर काम भी कर रहा है. भारत भी उन देशों में शुमार है जो इस भयानक बीमारी के अधिक मरीजों वाली लिस्ट में है. इसलिए भारत की स्वास्थ्य प्रबंध व्यवस्था की ज़िम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है.
इस वर्ग की बीमारियों में हेपेटाइटिस बी का प्रकोप सबसे ज्यादा है और इसको ख़त्म करना सबसे अहम चुनौती है. इस बारे में जो सबसे अधिक चिंता की बात है वह यह है एक्यूट हेपेटाइटिस बी का कोई इलाज़ नहीं है. सावधानी ही सबसे बड़ा इलाज़ है. विश्व बैंक का सुझाव है कि संक्रमण हो जाने के बाद आराम, खाने की ठीक व्यवस्था और शरीर में ज़रूरी तरल पदार्थों का स्तर बनाये रखना ही बीमारी से बचने का सही तरीका है. क्रानिक हेपेटाइटिस बी का इलाज़ दवाइयों से संभव है. ध्यान देने की बात यह है कि हेपेटाइटिस बी की बीमारी पूरी तरह से ख़त्म नहीं की जा सकती. इसे केवल दबाया जा सकता है. इसलिए जिसको एक बार संक्रमण हो गया उसको जीवन भर दवा लेनी चहिये. हेपेटाइटिस बी से बचने का सबसे सही तरीका टीकाकरण है. विश्व स्वास्थ्य संगठन का सुझाव है कि सभी बच्चों को जन्म के साथ ही हेपेटाइटिस बी का टीका दे दिया जाना चाहिए.अगर सही तरीके से टीकाकरण कर दिया जाय तो बच्चों में ९५ प्रतिशत बीमारी की संभावना ख़त्म हो जाती है. बड़ों को भी इम्युनाइज़ेशन से फायदा होता है.
पूरी दुनिया में हेपेटाइटिस को खत्म करने का अभियान चल रहा है. मई २०१६ में वर्ल्ड हेल्थ असेम्बली ने ग्लोबल हेल्थ सेक्टर स्ट्रेटेजी आन वाइरल हेपेटाइटिस २०१६-२०२० का प्रस्ताव पास किया था. संयुक्त राष्ट्र ने २५ सितम्बर को अपने प्रस्ताव संख्या A/RES/70/1 में इस प्रस्ताव को सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स को शामिल किया था. वर्ल्ड हेल्थ असेम्बली का यह प्रस्ताव उन उद्देश्यों को शामिल करता है. इस प्रस्ताव का संकल्प यह है कि हेपेटाइटिस को ख़त्म करना है. अब चूंकि भारत इन ग्यारह देशो में है जहां हेपेटाइटिस के आधे मरीज़ रहते हैं इसलिए भारत की ज़िम्मेदारी सबसे ज़्यादा है. जिन देशों का नाम है उनमें भारत और चीन अपेक्षाकृत संपन्न देश माने जाते हैं इसलिए यह ज़िम्मेदारी और बढ़ जाती है. सरकार को चाहिए कि जो भी संसाधन उपलब्ध हैं उनका सही तरीके से इस्तेमाल करने की संस्कृति विकसित करें. बीमारी को बढ़ने से रोकें. रोक के बारे में इतनीजानकारी फैलाएं कि लोग खुद ही जांच आदि के कार्य को प्राथमिकता दें और हेपेटाइटिस को समाप्त करने को एक मिशन के रूप में अपनाएँ .
अपने देश में इस दिशा में अहम कार्य हो रहा है . देश के लगभग सभी बड़े मेडिकल शिक्षा के संस्थानों, मेडिकल कालेजों और बड़े अस्पतालों में लीवर की बीमारियों के इलाज और नियंत्रण के साथ साथ रिसर्च का काम भी हो रहा है. सरकार का रुख इस सम्बन्ध में बहुत ही प्रो एक्टिव है. नई दिल्ली में लीवर और पित्त रोग के बारे में रिसर्च के लिए एक संस्था की स्थापना ही कर दी गयी है. २००३ में शुरू हुयी इंस्टीटयूट आफ लीवर एंड बिलियरी साइंसेस नाम की यह संस्था विश्व स्तर की है. जब संस्था शुरू की गयी तो इसका मिशन लीवर की एक विश्व संस्था बनाना था और वह लगभग पूरा कर लिया गया है.
इस संस्थान की प्रगति के पीछे इसके संस्थापक निदेशक डॉ शिव कुमार सरीन की शख्सियत को माना जाता है. शान्ति स्वरुप भटनागर और पद्मभूषण से सम्मानित डॉ सरीन को विश्व में लीवर की बीमारियों के इलाज़ का सरताज माना जाता है. बताते हैं कि दिल्ली के जी बी पन्त अस्पताल में कार्यरत डॉ शिव कुमार सरीन ने जब उच्च शोध के लिए विदेश जाने का मन बनाया तो तत्कालीन मुख्यमंत्री ने उनसे पूछा कि क्यों विदेश जाना चाहते हैं. उनका जवाब था कि लीवर से सम्बंधित बीमारियाँ देश में बहुत बढ़ रही हैं और उनको कंट्रोल करने के लिए बहुत ज़रूरी है कि आधुनिक संस्थान में रिसर्च किया जाए.
तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने प्रस्ताव दिया कि विश्वस्तर का शोध संस्थान दिल्ली में ही स्थापित कर लिया जाए. वे तुरंत तैयार हो गए और आज उसी फैसले के कारण दिल्ली में लीवर की बीमारियों के लिए दुनिया भर में सम्मानित एक संस्थान मौजूद है. इस संस्थान को विश्वस्तर का बनाने में इसके संस्थापक डॉ एसके सरीन का बहुत योगदान है. वे स्वयं भी बहुत ही उच्चकोटि के वैज्ञानिक हैं. लीवर से सम्बंधित बीमारियों के इलाज के लिए १७ ऐसे प्रोटोकल हैं जो दुनिया भर में उनके नाम से जाने जाते हैं. सरीन्स क्लासिफिकेशन आफ गैस्ट्रिक वैराइसेस को सारे विश्व के मेडिकल कालेजों और अस्पतालों में इस्तेमाल किया जाता है.
अभी कुछ दिन पहले डॉ एस के सरीन से इस सम्बन्ध में बात हुयी तो उन्होंने कहा कि मैं चाहता हूँ कि इस बीमारी के बारे में जानकारी बढे और सभी मेडिकल कालेजों और अस्पतालों में इस सम्बन्ध में जागरूकता हो और देश के कोने कोने में इसका इलाज़ संभव हो. उन्होंने साफ़ कहा कि वे चाहते हैं कि उनके संस्थान का बहुत प्रचार न हो क्योंकि अगर सभी मरीज़ एक ही अस्पताल में आना चाहेंगे तो बहुत ही मुश्किल हो जायेगी. डॉ सरीन की कोशिश है कि देश भर के शिक्षा संस्थानों और मीडिया संस्थाओं को इस दिशा में जागरूक किया जा सके. लेकिन मुश्किल यह है कि अगर किसी को कुछ बताने की कोशिश की जाए तो लोग समझते हैं कि जो व्यक्ति प्रयास कर रहा है उसका कोई निजी लाभ होगा.
लेखक शेष नारायण सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.