पत्रकार : अच्छा ख़ासा वक़्त (कोई एक दशक) vernacular media में 1984-1993 तक अपना भी गुज़रा । फिर व्यावसायिक ज़िम्मेदारियों ने मैदान से बाहर कर दिया और जब लौटने लायक हालात हुए तो तकनीक ने outdated कर दिया । अब हमें replace कर चुकी पीढ़ी का युग है और हम संस्मरण दर्ज करने की उम्र/स्थिति में । फ़ेसबुक ने पुन: इस जलवागार में साँस लेने की जगह दे दी ।
हिन्दी पत्रकार : सवर्ण सामंती मध्यवर्गीय टुच्चई से ओतप्रोत विशिष्ट जीव हैं (बहुमत)। एक दूसरे की फ़ज़ीहत (व्यवस्था बदलने की लड़ाई के सबसे ईमानदार सैनिक होने के ख़ुद बनाये/लगाये/ओढ़े आवरण के नाम पर ) करने में जीवन का 70-80 % लगाते हैं । चूँकि अब ज़्यादातर सोशल मीडिया पर हैं, उनकी प्रोफ़ाइलें इसकी तसदीक़ कर देंगी । सबको गुमान है कि उनके साथ खेल/षड्यंत्र/गेम हुआ है वरना वे उससे हज़ार गुना क़ाबिल हैं, जो सबसे प्रमुख एंकर/संपादक आदि आदि हैं। सबमें भाषा विचार की विलक्षणता है, सब कमाल हैं, सबके पास एक “न भूतो न भविष्यति” वाला प्रोजेक्ट है, बस कोई अंबानी/मोरारका/बिल्डर/पान मसाला/गरम मसाला किंग नहीं टकरा रहा !
बहुमत क्रान्तिकारी है पर मुझे ज़्यादातर ने बनिया मानकर खुला आफर दे रखा है ….”उनके यहाँ कोई काम हो बताना, अपना एकदम ख़ास आदमी है “! ज़्यादातर को लालू, मुलायम, मायावती, अहमद पटेल, सोनिया गांधी आदि आदि के जिस्मानी रिश्तेदारों की चटकीली कथाओं, विदेशी खातों, घोटालों का आद्योपांत पता है । मोदी/अमित शाह का कुछ नहीं पता !,(किसी किसी को है पर …)। आप किसी का नाम ले लो, मेज़ पर हथेली ठोंक वे प्रलयंकारी अधिकार से कहेंगे “फ्राड है साला”।
ज़्यादातर पत्रकारिता को एक सेकेंड में लात मार दें गर सामने किसी करोड़ी ठेके का, राजनीतिक पोस्ट का या विदेश भ्रमण/रमण का वास्तविक “आफर” हो ! राजीव शुक्ला, रजत शर्मा और इस क़द के अन्य उनकी गालियों के निशाने हैं पर ज़्यादातर के सुबह के स्वप्न में इनकी जगह कुर्सियों पर वे ख़ुद हैं !
शीतल पी सिंह के एफबी वॉल से
Sanjeev Chauhan
April 24, 2015 at 8:53 am
क्या सर,
आप कह रहे हैं कि…
“जब लौटने लायक हालात हुए तो तकनीक ने outdated कर दिया । अब हमें replace कर चुकी पीढ़ी का युग है और हम संस्मरण दर्ज करने की उम्र/स्थिति में “
आज का कोई चूतिया सिर्फ टीआरपीमार्का संपादक अगर यह कहे तो जायज था….आपसे यह सब सुनना पढ़ना अच्छा नहीं लगता। आज जितने चूतियों को आप चैनलों और अखबारों का बड़ा संपादक समझने की गलती अनजाने में कर रहे हैं, वे नंबर एक के बौड़म हैं। इन सबकी नौकरियां मालिकों के तलबे चाटकर चल रही हैं, न कि काबिलियत पर…काबिलियत की बात करुं, तो इनमें से कई तमाम उल्लू के पट्ठों की घिघ्घी आपके सामने आज भी बंध जायेगी….