-अमरेंद्र रॉय-
जनसत्ता के पूर्व स्थानीय संपादक श्रीश चंद्र मिश्र की गुरुवार को मृत्यु हो गई। उन्हें दिल का दौरा पड़ा था और उन्हें पश्चिम विहार के श्री बालाजी एक्शन मेडिकल इंस्टीट्यूट में भर्ती कराया गया था। श्रीश जी वहीं मैत्री अपार्टमेंट में रहते थे। छह एकड़ जमीन पर बना 600 विस्तरों वाला यह अस्पताल ठीक है। डॉक्टर भी अच्छे हैं। इसलिए उम्मीद थी कि श्रीश जी सही सलामत लौट आएंगे। पर होनी को कौन टाल सकता है।
मैंने इस अस्पताल के शुरू के दिनों में इसके प्रचार-प्रसार का काम किया था। 2005 में जी न्यूज से हटने के बाद मेरे पास कोई काम नहीं था। पूरा साल खाली रहा। मेरे एक मित्र इस अस्पताल के मालिकों में से एक के मित्र थे। उन्होंने अस्पताल के प्रसार के लिए एक योजना बनाई और मुझे उसकी जिम्मेदारी सौंप दी। एक टीवी चैनल पर आधे घंटे का समय लिया गया और अस्पताल के डॉक्टरों के साथ मिलकर एक कार्यक्रम चलाया गया जो छह महीने चला। अस्पताल के लोग भी मानते हैं कि उस कार्यक्रम से अस्पताल को बहुत लाभ हुआ। ये अस्पताल एक्शन शूज वालों का है।
उस दौरान सप्ताह में दो दिन मुझे वहां जाना होता था। ये भी जानता था कि श्रीश जी वहीं रहते हैं। पर ये भी जानता था कि वे नौकरी पर अपने कार्यालय गए होंगे। इसलिए सोचकर भी कभी मुलाकात नहीं हो पाई। सिर्फ एक बार उनके घर गया था, जब उनकी पत्नी की मृत्यु हुई थी। तभी पता चला कि उनकी पत्नी अक्सर बीमार रहती थीं। श्रीश जी के कठिन हालात के बारे में उस दिन अहसास हुआ। बाद में पत्नी के न रहने पर वे हालात और कठिन हो गए। बच्चों और घर को संभालने की पूरी जिम्मेदारी श्रीश जी पर ही आ गई थी। पर उन्हें देखकर कभी भी यह नहीं लगा कि उन्हें कोई कष्ट है। हमेशा मुस्कराते रहते और हंसी-मजाक करते रहते थे।
श्रीश जी गजब के कर्मठ योद्धा थे। शुरू में लंबे समय तक मैं शंभूनाथ जी के साथ डाक डेस्क पर था। बाद में जनरल डेस्क पर आ गया। तब तक श्रीश जी समाचार संपादक बन चुके थे। उनका काम ड्यूटी चार्ट बनाना और खबरों का चयन करना होता था कि कौन सी खबर किस पेज पर जाएगी। पर श्रीश जी इससे आगे बढ़कर खुद खबरें बना भी दिया करते थे। उनके रहते एडिशन का चीफ सब बहुत निश्चिंत रहता था। वो मानकर चलता था कि श्रीश जी हैं तो सब ठीक है। श्रीश जी जब देखते कि लोग कम हैं या कोई नहीं आया तो खबरें वहीं से संपादित करके चीफ सब को दे दिया करते थे। कई बार तो ऐसा भी होता था कि पेज बन रहा है और खबरें कम पड़ रही हैं। चीफ सब श्रीश जी से कहता था कि दो बड़ी खबरें चाहिएं और थोड़ी देर बाद उसे खबरें मिल जाती थीं।
श्रीश जी में लिखने की अद्भुत क्षमता थी। वे देखते ही देखते हजार-बारह सौ शब्दों का लेख बिना किसी दिक्कत के सहज भाव से लिख दिया करते थे। श्रीश जी खाने-पीने के भी बहुत शौकीन थी। आपने कहा नहीं कि श्रीश जी चाय पीने चलते हैं और श्रीश जी उठ खड़े होते थे। वो लिखे जा रहे वाक्य के पूरा होने का भी इंतजार नहीं करते थे। अधूरा वाक्य छोड़कर ही चल पड़ते थे। गए चाय-समोसे खाए, पाने दबाया और आकर बिना एक क्षण गंवाए भी जहां से लिखना छोड़ा था वहीं से आगे शुरू कर देते थे। लगता था कि उन्हें सोचने की भी जरूरत नहीं पड़ती थी। खेल और फिल्मों पर उनकी विशेष जानकारी थी।
अभी एक दिन वैसे ही अमिताभ बच्चन का कौन बनेगा करोड़पति देख रहा था। उसमें एक ऑप्शन वीडियो कॉलिंग का भी है। आप अपने परिचितों-मित्रों का नंबर वहां देते हैं और किसी सवाल का जवाब न आने पर उनसे मदद लेते हैं। मैंने सोचा कि अगर मेरे सामने यह स्थिति आए तो मैं किसका नाम देना पसंद करूंगा। तो सबसे पहला नाम श्रीश जी का ही आया क्योंकि उस कार्यक्रम में फिल्म और खेल से जुड़े सवाल जरूर पूछे जाते हैं। श्रीश जी की इन दोनों ही विषयों में जानकारी भी अच्छी थी और साथ ही उनकी यादाश्त भी बेजोड़ थी।
श्रीश जी बहुत लगन और मेहनत से काम करते थे। उसी का नतीजा था कि वे जनसत्ता में उप संपादक बनकर आए थे और स्थानीय संपादक बनकर वहीं से रिटायर हुए। हमलोगों के वरिष्ठ थे इसलिए हमलोग उन्हें हमेशा श्रीश जी ही कहा करते थे पर कुछ लोग उन्हें सिर्फ श्रीश कहते थे। हमें अटपटा लगता था पर मन को समझा लेते थे कि ये लोग समवयस्क हैं, चलेगा। श्रीश जी में एक और गुण गजब का था। वे सबकी मदद को हमेशा तैयार रहते थे। कई लोगों को उन्होंने डेस्क पर प्रशिक्षण दिया और वे बाद में सफल पत्रकार बने। एक लड़का तो ऐसा था जिसे काम करते एक साल से ज्यादा हो गया था पर वह कुछ नहीं सीख पाया था। हमलोग श्रीश जी से कहने लगे कि ये नहीं सीख सकता। इसको समझाइये कुछ और काम कर ले। पर श्रीश जी सिर्फ मुस्करा देते थे। बाद में पता चला कि उस लड़के की नौकरी देहरादून के किसी अच्छे अखबार में लग गई। तब हमलोग श्रीश जी से मजाक भी करते थे कि आपके चरण कहां हैं। आपने तो पत्थर पर दूब उगा दिया।
पत्रकारिता में श्रीश जी को कम लोग जानते हैं। जिन्होंने उनके साथ काम किया वही जानते हैं कि वो कितने योग्य पत्रकार और इंसान थे। डेस्क के लोगों का यह दुर्भाग्य होता है कि उन्हें ज्यादा लोग नहीं जान पाते चाहे उनका काम कितना भी अच्छा क्यों न हो। डेस्क का काम वैसे भी बहुत थैंकलेस काम होता है। आप दस गलतियां पकड़ते और ठीक करते हैं उसकी कोई क्रेडिट नहीं मिलती। लेकिन एक गलती आपकी नजर से छूट गई तो उस पर लानत-मलानत जरूर मिल जाती है। 35 साल की पत्रकारिता में इस तरह के कई वाकये देखे हैं। इसीलिए श्रीश जी जैसे व्यक्ति को स्थानीय संपादक बनने के बावजूद बहुत कम लोग जानते हैं।
जब हमने 1986 में जनसत्ता ज्वाइन किया था तो उम्र कम थी। शादी नहीं हुई थी। हमारे वरिष्ठ उमेश जोशी ने कहा था कि अभी आप लोगों की शादियां होंगी, बच्चे होंगे, बच्चे बड़े होंगे इस तरह की खबरें सुनने को मिलेंगी। लेकिन कुछ समय बाद हममें से कुछ लोगों की असमय मृत्यु की खबरें भी सुनने को मिल सकती हैं। अब सोच रहा हूं उन्होंने कितनी सही बात कही थी। मैंने तो खैर 1994 में जनसत्ता छोड़ दिया था लेकिन पता चला कि श्रीभगवान सुजानपुरिया जी की अकाल मौत हो गई। राकेश कोहरवाल, आलोक तोमर, सुनील शाह और अरविंद उप्रेती की मौत की खबर भी मिली। प्रभाष जोशी जी की मृत्यु की खबर तो सबको पता है। अब श्रीश जी चले गए। उनके जाने का बड़ा दुख हो रहा है।
अब जब इस मुकाम पर हैं तो लगता है कि जनसत्ता में हमने काम जरूर किया पर वहां नौकरी नहीं की। अभी भी लगता है कि हम वहां परिवार की तरह रहे। सब एक दूसरे के काम आते थे। आपस में सौहार्द बहुत था। वह सौहार्द आज भी बना हुआ है। उस दौर के लोग भले एक-दूसरे से न मिल पा रहे हों पर जरूरत पड़ने पर सब मदद को खड़े हो जाते हैं। श्रीश जी से बहुत समय से मेरी मुलाकात नहीं थी। शायद कुमार आनंद की बेटी की शादी के अवसर पर उनसे मुलाकात हुई थी। पर कभी नहीं लगा कि संबंधों में दूरी आई है। उनके जाने का सचमुच बहुत दुख हो रहा है।
Jharkhand Working Journalists Union
October 30, 2020 at 9:33 pm
विनम्र श्रद्धांजलि ..I