हमारा महानगर का बंद होना! आखिरकार मुंबई और पुणे से प्रकाशित होने वाला हिंदी दैनिक हमारा महानगर बंद हो गया। इस समाचार पत्र में काम करने वाले पत्रकार और अन्य कर्मचारी बेरोज़गार हो गए। जब से निखिल वागले ने यह अखबार एक चौकीदार को बेचा था तब से ही इस बात का पता चल गया था कि इस अखबार की उम्र कितनी होगी?
महाराष्ट्र के पूर्व गृहराज्यमंत्री के रिश्तेदार और उत्तर भारतीय संघ के सर्वेसर्वा आर एन सिंह ने यह अखबार चलाने को लिया था। यानी कि खरीद लिया था। एक सुरक्षारक्षकों की एजेंसी चलाने वाले आर एन सिंह को पत्रकारिता का प तक नहीं पता था मगर सिंह के पास तथाकथित दौलत थी।
इस दौलत से लोग बंगला-गाड़ी खरीदते हैं लेकिन सिंह ने अखबार खरीद लिया। पत्रकारों को अपने मातहत रखा और खुद बीजेपी में सेटिंग लगाकर विधान परिषद के सदस्य भी बन गए। उत्तर भारतीयों में खुद को बाबू जी कहलवाकर खुश होने वाले आर एन सिंह ने आज एक साथ कई उत्तर भारतियों को बेरोज़गार कर दिया।
मुझे याद है जब धर्मयुग बंद हुआ था तो इसी हमारा महानगर दैनिक में लिखा गया था , रमा जैन का सपना बेचा रमा जैन , के अपनों ने – वैदिक तेरी क्या पहचान , हिंदी का मत कर अपमान। और आज फिर एक बार हिंदी का अपमान करते हुए आर एन सिंह ने हमारा महानगर बंद कर दिया। मेरा स्पष्ट मत है कि जब इस सुरक्षा रक्षक के पिछवाड़े में ताक़त नहीं थी तो क्यों इस अखबार को ज़िंदा रखा गया ? तभी मर जाने दिया होता जब निखिल वागले ने हाथ खींचना शुरू कर दिया था। मुंबई की हिंदी पत्रकारिता के उभरते दौर में निर्भय पथिक और उसके बाद दो बजे दोपहर फिर हमारा महानगर का नंबर लगता है।
मगर अफ़सोस अब यह अखबार बंद हो गया। दो बजे दोपहर भी एक पत्रकार की वजह से दुबारा बंद हो गया। जबकि निर्भय पथिक आज भी नज़रों के सामने है। मुंबई की हिंदी पत्रकारिता में संझा जनसत्ता – जनसत्ता , लोकस्वामी , कुबेर टाइम्स , आज का अग्निपथ , अखिल महाराष्ट्र , मुंबई संध्या , दोपहर का सामना , उत्तर भूमि , मेट्रो मुंबई और इन जैसे अनगिनत अखबार निकले मगर इनमें से आज सिर्फ दोपहर का सामना और निर्भय पथिक आज ज़िंदा हैं क्योंकि इनके सम्पादकों ने पत्रकारिता को जिया है।
हमारा महानगर को दिशाहीन बनाकर मरने को मज़बूर करने वाले आर एन सिंह का मैं जाहिर निषेध करता हूँ और चाहता हूँ कि हमारा महानगर के सभी पत्रकारों (अंशकालिक समेत ) और कर्मचारियों का बकाया भुगतान अपनी जायदाद बेच कर शीघ्र करें। अन्यथा मुंबई की हिंदी पत्रकारिता में एक ऐसा आंदोलन झेलने को तैयार रहे जो कभी नहीं हुआ था।
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