संजीव पालीवाल-
मेरा दिल्ली आना 3 अक्टूबर 1994 को हुआ था। 27 साल पहले। लेकिन इस पोस्ट को लिखने की ये वजह नहीं है। इसकी वजह यही है तमाम लोगो का मुझे ‘सर’ का तमगा दे देना। जो मैं लिखने जा रहा हूं उसका जुड़ाव मेरे दिल्ली आने और ‘सर’ शब्द के साथ ही है।
दिल्ली आने से पहले मैं आज, दैनिक जागरण और अमर उजाला में काम कर चुका था। वहां हम हर किसी को ‘भैया’ कहते थे। सीनियर को ‘भैया’ कहने की परम्परा थी। या जी लगाना मस्ट था। नाम लेने का तो सवाल ही नहीं था। हम उसी परंपरा का निर्वाह करते हुए बरेली से वाया मुरादाबाद दिल्ली आ चुके थे।
मुझे नौकरी मिली थी BiTV नाम की कंपनी में जिन्होंने आगे चलकर Tvi नाम का चैनल लॉंच किया। मेरा पहला दिन यहां काफी मज़ेदार था।
मैं अपने दफ्तर पहुंचा सुबह 11 बजे। मुझसे पहले काफी लोग वहां आ चुके थे। बाकी आ रहे थे। ये एक तीन मंज़िला कोठी थी। जिसमें देश के पहले प्राईवेट टीवी चैनल का दफ्तर था। चैनल क लॉंच की तैयारियां चल रहीं थीं। मेरी मुलाकात हुई Madhusudan Srinivas से। इन्होंने ही मेरा इंटरव्यू लिया था। सिर्फ यही वहां मुझे पहचानते थे। मुझे मधु ने फिर हवाले कर दिया Puneet Gautam के। एक बेहद स्मार्ट लड़का ये कहते हुए कि ये संजीव है इसे ज़रा सब कुछ दिखा दो।
अगले आधे घंटे पुनीत मुझे लेकर तीन मंज़िल घूमा। धारा प्रवाह अंग्रेज़ी में Machine, Grafix, Studios, Anchoring, Production, Camera, Editing ना जाने क्या क्या। मैं चुपचाप सुनता रहा। वो क्या बोल रहा था मेरे पल्ले कुछ पड़ा ही नहीं। इससे पहले भी मुझे जो भी मिला सब अंग्रेज़ी बोलने वाले ही मिले थे। मेरी रूह कांप गयी थी। लगा कि यहां कुछ नहीं होने वाला। वापस अखबार के दफ्तर में ही जाना पड़ेगा। टीवी चैनल में काम करने का ख्वाब अधूरा ही रह जायेगा।
खैर पुनीत का काम खत्म हो गया। पुनीत ने कहा कि अभी नीचे क्रिटिकिंग सेशन है जो Ajit Sahi लेंगे। तो नीचे जाना। मैं वेट करने लगा। पता नहीं क्या सेशन है।
ग्राउंड फ्लोर पर सामने एक लान था जहां कुछ लोग सिगरेट पी रहे थे। मैं भी तब सिगरेट पीता था। वहीं जाकर खड़ा हो गया। सब लोग अंग्रेज़ी में बातें कर रहे थे। लड़कियां भी सिगरेट पी रही थी। ये पहली बार था जब मैने लड़कियों को सिगरेट पीते देखा था। याद रखें साल 1994 था। इससे पहले मैने ऐसा कुछ नहीं देखा था। मूर्ख था मैं।
एक और बात मैने वहां उस वक्त और अगले कुछ घंटे में नोटिस की। वहां कोई भैया, सर या मैम नहीं था। वहां सबके नाम थे। 24-25 साल के लोग अपने से दोगुनी उम्र के लोगों को नाम लेकर बुला रहे थे। ये दूसरा कल्चर शॉक था मेरे लिये।
खैर, हम नीचे गये जहां क्रटिकिंग सेशन चल रहा था। इससे पहले मैने ये नाम भी नही सुना था। मुझे नहीं पता था कि क्रिटिकिंग क्या होता है। वो सेशन चला। अजित साही बैठे थे। उनके बायीं तरफ एक टीवी और वीसीआर था. कुर्सी पर अधलेटे वो टांगे सामने एक टेबिल पर रखे बोल रहे थे। वो स्टोरी चलाते थे और उसकी अच्छाई औऱ बुराई के बारे में बताते। कई घंटों तक ये सब चलता रहा। सब मंत्रमुग्ध होकर उनको सुन रहे थे। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। टीवी की तमाम शब्दावली से मैं तब अंजान था। ज़्यादातर बातें अग्रेज़ी में थी। तो ये और भी बर्बादी थी। मैं उस वक्त बहुत अकेला महसूस कर रहा था।
ये सेशन खत्म हुआ तो मैं अजित साही के पास गया। उन्हे अपना नाम बताया। बोले अच्छा तुम हो। यार, ये बालों में तेल लगाकर क्यूं आये हो।
मैं उनकी बात सुनकर आसमान से गिरा। मैं तब सरसों का तेल लगाया करता था। वो दिन सिर में तेल का आखिरी दिन था।
उस दिन संजय द्विवेदी और Neeraj Kumar से मुलाकात हुई। उनसे मिलकर लगा कि कुछ उम्मीद है। वो दोनो हिन्दी बुलेटिन के बॉस थे। मेरे भी बॉस ही थे।
फिर दो काम एक साथ हुए। एक दिन मैने किसी बात पर अजित साही को सर कह दिया।
उन्होंने फिर मुझे टोक दिया।
ये सर क्या होता है। कौन है तुम्हारा सर। यहां देखा है किसी को सर बोलते हुए हर किसी का नाम है। वही लिया करो।
उस दिन से मैने भी हर किसी का नाम लेना शुरू कर दिया। अजित, मधु, शांतनु, नीरज, सुधा, कविता……. सर और भैय्या मेरी शब्दावली से निकल गया।
ऐसे ही एक दिन मीटिंग चल रही थी। अजित साही फिर अचानक आ गये। मैं उठ कर खड़ा हो गया। मैं ही अकेला था जो उस कॉन्फ्रेंस रूम में खड़ा हुआ। बाकी सब बैठे रहे। अजित ने फिर मुझे समझाया। पत्रकारिता में आपको खड़े होने की ज़रूरत नहीं है। बॉस हूं तो क्या हुआ। बैठे रहा करो। वो दिन और आज का दिन है दफ्तर में किसी के आने पर मैं खड़ा नहीं होता। और कोई बुरा भी नहीं मानता।
ये पोस्ट मैने इसलिये लिखी है क्यूंकि आजकल हर कोई मेरे नाम के साथ सर लिख रहा है। प्लीज़ बंद कर दीजिये। यकीन मानिये आप मुझे मेरे नाम से बुलायेंगे तो ज़्यादा अच्छा लगेगा।
मेरा नाम संजीव पालीवाल है. इसके आगे पीछे कुछ ना लगायें। यही मुझे सिखाया गया। अब मैं आपको सिखा रहा हूं।
मेर बातों की तस्दीक मेरे तब के साथी कर सकते हैं। हमारी Tvi की दुनिया अलग ही थी। वो वक्त से पहले आया हुआ एक चैनल था। जिसकी असमय मौत हो गयी। जो ख्वाब उस वक्त देखे थे आज भी सब उसी को दोहरा रहे हैं।
कुछ प्रमुख टिप्पणियां-
Bhagwant Anmol ·
ये कॉर्पोरेट कल्चर है। मैंने भी accenture में काम किया है। वहाँ भी यही कल्चर है। हर किसी को नाम से पुकारने का। लेकिन जब से हिंदी में आया तो यहाँ सर कहने की प्रथा है। जैसा देश वैसा भेस की तर्ज़ पर खुद को बदल लिया। बेहतरीन पोस्ट लिखने के लिए आपको बधाई सर
Ashish Ranjan
ये सिर्फ टीवी की बात नहीं। ये एक सामान्य कॉरपोरेट कल्चर है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों में ये सामान्य बात है। भारतीय कंपनियां भी अब इस कल्चर को अपनाने लगी हैं।
Meenakshi Singh ·
यह पोस्ट आपने बिल्कुल मेरे मन लायक लिख दी है, मुझे नाम के साथ जी लगाने की आदत है.. काफी लोगों के नाम के साथ जी नहीं भी लगाती मैं, इसलिए नहीं कि सम्मान देना आदत नहीं बल्कि इसलिए बहुत ज्यादा औपचारिकता मेरे स्वभाव में शुमार नहीं.. बस किसी को समझने की कोशिश कर पाना भी बहुत है। काफी बार जी लगा देती, यह सोचकर भी कि कहीं सामने वाला अन्यथा ना ले ले.. अब सर, जिस शब्द के लिए यह पोस्ट अस्तित्व में आया, सर की मुझे आदत नहीं, आज तक एक या दो लोगों के नाम में सर लगाई होगी मैंने, वह भी कुछ सोचकर, जब देखती कि सब लोग.. हर उम्र के लोग किसी को सर ही लिख रहे हैं तो मैं भी चार-पांच साल पहले किसी के लिए सर का प्रयोग की,.. हालांकि वह मुझसे करीब 28 ईयर बड़े, आज भी उनसे फोन पर बातें होती है.. इस शब्द का इस्तेमाल शायद दिल्ली के साइड में ज्यादा होता है, और तो और हम उम्र या फिर दोस्तों को भी लोग सर बोल देते हैं,
Mohnish Kumar
मुझे याद है वो दौर… TVi में ऐसे ही कई कल्चरल शॉक से हम भी गुज़रे थे… हमें झटका देने वालों में आपका भी नाम आता है भाई साहब…
वत्सला पाण्डेय ·
दुविधा में डाल दिया आपने…..फेसबुक पर आने से पहले मैं अपने से बड़े हर पुरुष मित्र को भाईसाब ,दादा,या भैया ही बोलती थी ।फेसबुक ने इसपर थोड़ा लगाम कस दी अब मैं सबको भाई, दादा या भैया नहीं कहती क्योंकि लोग टोक न दे कहीं,पर आदर स्वरूप सर जरूर कहती हूँ…..
आप इस आदर को सम्बोधित करने के लिए मत मना कीजिये आपकी उम्र, आपके अनुभव ,आपकी शैली निस्संदेह सम्माननीय है
संजीव सर
Prashant Kashyap
मैं अपनी यात्रा टाइम्स ऑफ इंडिया से शुरू किया, वहां भी नाम लेकर बुलाने का कल्चर था, और अगर नाम लेने में दिक्कत है तो “चीफ” कह कर संबोधित करते थे। एक और नई बात थी, मैं जिस डिपार्टमेंट में था/ हूं वहां एडवर्टाइजिंग एजेंसी के काफी लोग होते हैं। वो एक दूसरे को “डॉक्टर” कह कर बुलाते हैं। मजाक में नहीं , एकदम सीरियसली। खैर जब 15 साल पहले जागरण आया तब लगा की यहां तो सर। कह कर ही संबोधित करना चाहिए। लेकिन हमारे डिपार्टमेंट हेड बसंत राठौर सर कहने पर तत्काल 100 रुपया जुर्माना ले लेते थे। लेकिन उनका व्यक्तित्व और ज्ञान ऐसा अद्भुत है की मैं उनसे ही उनको सर कहने का स्पेशल परमिशन ले लिया। अब जब की मैं खुद ही ठीक ठाक लेवल पर हूं तो आज पूरे जागरण में प्रशांत भाई से ही जाना जाता हूं। सीनियर और जूनियर सबका प्रशांत भाई
Dwivedi Ravikant
same as I feel in NDTV.. Still they are using their name only.. No sir, mam, Bhaiya etc..etc..
Poonam Ahmed
बहुत ही सुंदर, रोचक अनुभव, पर जी बिना लगाए तो हमे फ़िलहाल मुश्किल होगा… से मुझे भी यही अच्छा लगता है कि कोई मुझे सीधा नाम से बुलाये। जी,mam, बड़ा भारी भारी लगता है। पर आपने सुंदर अनुभव शेयर किया,(सर)
Anuj Akhilesh Shukla
आज की सड़ी गली हिंदी मीडिया की सोच आपके इस लेख से मैच नहीं करती…
Bela Swarup
संजीव ऐसा लग रहा था आप ने इस पोस्ट में मेरी आपबीती लिखी है… बस अंग्रेजी वाली बात छोड़ कर बाकी सब सेम टू सेम …. Anikendra Sen aka बादशाह को बादशाह कहने में एक महीना निकल गया…. Ajit Sahi , Ashok Singh यहां तक Madhusudan Srinivas से कुछ काम होता तो तब तक आस पास खड़ी रहती जब तक वो ऊपर नही देखते थे… जैसे ही नजर ऊपर उठी अपनी बात खट से कह कर हम वापस अपनी सीट पर… एक और कारण भी था पापा एयरफोर्स में थे तो सब बड़ों को सर, ma’am या नाम से पहले mr/ms लगाने की आदत थी… खैर जान कर अच्छा लगा की ऐसे अटपटे दौर से आप भी गुज़रे..
लेकिन वो दिन भी क्या दिन थे..
Poonam Pathak
उम्र अनुभव या ओहदे में अपने से बड़ों को नाम से पुकारना हालांकि आसान नही होता लेकिन आपकी सहज लेखनी ने इस बात पर मंथन करने को मजबूर कर दिया। बहुत खूबसूरत और सार्थक लिखा है आपने संजीव जी (सर)
Mukesh Kumar Singh
TVI में तो नहीं लेकिन Star News में अजीत साही के साथ काम करने का मौक़ा मिला। कई खट्टी-मीठी यादें भी हैं।
ख़ैर, अब तो सब इतिहास है। इसके पन्ने पलटना अच्छा लगा!
शुक्रिया संजीव
Yashwant Singh
ज़रूरी नहीं जो आपको सिखाया गया हो वही पूर्ण सच हो। सर भैया भी लगा कर बोला जाए तो क्या प्रॉब्लम। सारे विकल्प होने चाहिए। यही विविधता है। दुनिया को एकरस बनाने से बचिए। मैं अब भी हर वरिष्ठ को सर लगाकर ही बात करता हूँ। ये तरीक़ा है मेरा। मुझे ये तरीक़ा अच्छा लगता है। नंगा नाम लेना अच्छा नहीं लगता। juniors से भी सम्मान से बात करना चाहिए। उन्हें आप और जी लगाकर बोलना चाहिए। उनको सम्मान देना चाहिए। तुम तड़ाम नहीं करना चाहिए। ये मेरा मत है।
पोस्ट आपकी अच्छी है। पर निष्कर्ष से सहमत नहीं।
ठीक है न सर!
Nitin Thakur ·
मुंबई के न्यूज़रूम में यही संस्कृति थी लेकिन नोएडा के न्यूज़रूम्स में तो मैंने लोगों को पांव पड़ते भी देखा है. क्या बुरे दिन थे वो जब ये सब देखा था मगर आपको देखकर तो “सर” बरबस ही निकल जाता है.
Manoj Rajan Tripathi
अजित शाही जी ने मुझसे भी यही कहा था और कई बार सर कहने पर डाँटा भी था। एक दिन मैंने उनसे कहा कि आप मुझे मनोज राजन कहिये मैं तो सर ही कहूँगा क्योंकि क्या आप कि इतनी भी हैसियत नहीं कि कोई आप को सर कहे और क्या मेरी इतनी भी औक़ात नहीं कि मैं आप को सर कह सकूँ। मैंने हमेशा उनके सर ही कहा और डाँटा गया। सर एक सम्मान है, भैय्या एक आत्मीयता, आप आप को सर कहा था, कहता हूँ और कहता रहूँगा, मीडिया कल्चर अपनी जगह, मेरे संस्कार अपनी जगह। ये सर किसी बॉस को नहीं कहा और अब तो आप मेरे बॉस भी नहीं है पर सर थे और रहेंगे। लव यू सर
Anuj Yadav
कुछ मामलों में आदर और सम्मान के साथ, हाथ जोडकर विनम्रतापूर्वक बड़ो की राय को भी दरकिनार कर देना चाहिए , जो मैंने कर दी है सर । माफ़ी के साथ
Shefali Surbhi
सर , मैम सम्मान में बोला जाता है सर। ये हमारी संस्कृति, परंपरा है। बड़े के उपस्थित होने पर खड़ा होना भी सम्मान ही है। इससे कोई गुलामी नहीं, पत्रकारिता की गुणवत्ता में कोई त्रुटि नहीं। अंग्रेजी भाषा ज्ञान अपनी जगह, हिंदी की बिंदी अपनी जगह। अखबार हो टीवी चैनल हो.. तरीका अलग होता है। पत्रकारिता की साख़ वही रहती है
Atul Sinha
बहुत खूब लिखा ‘सर’। लेकिन उम्र का कुछ आदर तो होना ही चाहिए। भला ‘अति आधुनिकता’ को लेकर ये दीवानापन कहाँ तक सही है? बस बॉस ने कह दिया और हमने ‘यस बॉस’ कह दिया! ये तो ऊपर जाने और जमे रहने की सबसे आसान सीढ़ी है।
विजय काकाणी
अंग्रेजी मे सर एक परम्परा बन गयी है बोलने की लेकिन अपने से बडे ओर अपने ही क्षेत्र के व्यक्ति को सम्मान आवशयक है मे भी अजमेर के एक अखबार मे गांव से आकर अपना रिज्यूम देकर आया सोचा कुछ मौका मिल जाए चयन हो जाए तो नौकरी भी कर लेंगे ओर पढाई भी गलती कर दी वंहा जाकर देखा सबके रिज्यूम कम्प्यूटर के बने हुए थे बस मुझे छोडकर मे तो चुपचाप वंहा लगी एक पेटी मे डाल कर आ गया यही गलती मेरी अच्छी रही संपादक महोदय को पसंद आई यह गलती ओर उन्होने मुझे बुलाया बस शुरआत हो गयी मेरे जीवन की शहर मे
Parul Budhkar
ये तो बिल्कुल डिट्टो मेरी कहानी है! अख़बार में भाईसाब या सरनेम के साथ जी कहने का चलन था, बहुत अजीब लगता था अपनी से दुगुनी उम्र के लोगों को शुक्लाजी नेगिजी कहकर बुलाना। यहाँ नाम से बुलाने पर भी शुरू शुरू में अजीब लगा, आपकी तरह अजित की डाँट भी खाई इस पर…बाक़ी कल्चरल शॉक भी लगे। लेकिन सर आपको तो हमेशा टोकने के बाद भी सर ही कहा… अब 15-16 साल बाद आदत नहीं बदलेगी।
Ajay Kumar
क्या आपको लगता है ,कि मीडिया जगत में अब इतने समझार लोग बचे है। क्या बचे है ये आप भलीभांति जानते है, सोशल मीडिया पर बताने की जरूरत नही खैर बात फिर वही से शुरू होती है की सर ना बोलने पर नौकरी जाते देर नही लगती है। फिर याद आती मां बाप की दवाई और बच्चो की परवरिश फिर स्कूल की फीस उसके बाद कुछ मीडिया में बचती है तो सर, सर, सर , सर, सर सर और सर,फिर सर क्या करे सर,तैयार सर और यस सर उसके बाद नौकरी मिलती है तो धन्यवाद सर, नहीं मिलती तो भी धन्यवाद सर और खत्म हो जाती सारी नॉलेज सर के और सर को सर कहने में… सर
ज़बाब जरूर दिज्येगा सर ……. Ibn7 की याद अभी भी जहन में याद है सर…..
Naushad Ali
संजीव जी मैं 16 जुलाई 1982 को दिल्ली आया था, जिस दिन दिल्ली आया था, उस दिन से बस एक ही सोच थी कि पढ़ लिखकर डिग्री लेकर घर लौट जायेंगे, लेकिन वो सोच बस सपना ही बनकर रह गई… काश कोई लौटा दे वो मेरा प्यारा घर, जान लुटाने वाली मेरी मम्मी की वो मुस्कुराहट और मेरी बदमाशियों पर बाबू जी का वो प्यार भरे गुस्से से देखना!!!
Vikas P Uttank
संजीव जी, दिल को छू लेने वाली पोस्ट है। मुझे ईटीवी के दिल्ली ऑफिस का पहला दिन याद आ गया, जब वहां बैठने के लिए सीमित कुर्सियां ही थीं। एनके सिंह जी ने साफ इनकार कर दिया कि हमारे यहां जगह ही नहीं है, और अतिरिक्त कुर्सी भी नहीं है। तीन दिन बाद ही मुझे बैठने को कुर्सी मिल पाई…. खैर वे भी अनमोल यादगार क्षण हैं….
RAMESH PARIDA
October 10, 2021 at 6:22 pm
मैं भी BiTV में काम कर चुका हूं. वहां कोई किसी को सर कह कर सम्बोधन नहीं करता, न जी कह कर. ज्यादा से ज्यादा नाम या नाम के आगे भाई लगा लेेते थे. सरसरी तौर पर देख जाए तो सर को लेकर इतनी सरसराहट की कोई जरूरत नहीं, जीवन में बहुत सारे सरकंडों को पार करना होता है, सरेआम किसे क्या कहना और सरेशाम किसे क्या न कहना, यह तय करना जरूरी नहीं. हां, अगर सर कहकर करियर का घोड़ा सरपट दौड़े तो क्या बात है. वैसे लोग सर के अलावा जी, साहब, कामरेड, बाबू, सरजी (यह शब्द मैने दिल्ली आकर सुना) . महाशय, आदि आदि का इस्तेमाल करते हैं. अच्छी बात है. सबको आज़ादी होना चाहिए.