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टेलीग्राफ ने पिछले एक महीने में जो हेडिंग दी, वह बहुत आसान काम नहीं है

Ambrish Kumar : सिर्फ दो अखबार… अपनी जो पोस्ट पब्लिक में थी उसमें बहुत से अंजान लोग भी आए. कई आहत थे तो कई आहत करने का प्रयास कर गए. उनकी एक नाराजगी अपन के पत्रकार होने के साथ पूर्व में इंडियन एक्सप्रेस समूह का पत्रकार होने से ज्यादा थी. वे मीडिया की भूमिका से नाराज थे. पर यह नाराजगी दो अखबारों से ज्यादा थी. अपनी प्रोफाइल में इंडियन एक्सप्रेस है ही जो एक अख़बार था तो दूसरा टेलीग्राफ. दोनों की दिल्ली में सांकेतिक मौजूदगी है, बड़े प्रसार वाले अखबारों के मुकाबले. एक्सप्रेस से अपना लंबा संबंध रहा है और उसका इतिहास भूगोल सब जानते भी हैं. चेन्नई अब कहा जाता है पर आजादी से पहले के मद्रास में किस तरह अंग्रेजों से यह अख़बार नुकसान सहकर लड़ा, यह कम लोग जानते है.

Ambrish Kumar : सिर्फ दो अखबार… अपनी जो पोस्ट पब्लिक में थी उसमें बहुत से अंजान लोग भी आए. कई आहत थे तो कई आहत करने का प्रयास कर गए. उनकी एक नाराजगी अपन के पत्रकार होने के साथ पूर्व में इंडियन एक्सप्रेस समूह का पत्रकार होने से ज्यादा थी. वे मीडिया की भूमिका से नाराज थे. पर यह नाराजगी दो अखबारों से ज्यादा थी. अपनी प्रोफाइल में इंडियन एक्सप्रेस है ही जो एक अख़बार था तो दूसरा टेलीग्राफ. दोनों की दिल्ली में सांकेतिक मौजूदगी है, बड़े प्रसार वाले अखबारों के मुकाबले. एक्सप्रेस से अपना लंबा संबंध रहा है और उसका इतिहास भूगोल सब जानते भी हैं. चेन्नई अब कहा जाता है पर आजादी से पहले के मद्रास में किस तरह अंग्रेजों से यह अख़बार नुकसान सहकर लड़ा, यह कम लोग जानते है.

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आपातकाल में जब तथाकथित देशभक्त मीडिया इंदिरा गांधी तो दूर वीसी शुक्ल के चरणों में लोट रहा था तब यह तनकर खड़ा था. उसके बाद भी बोफोर्स से लेकर ठाक्कर कमीशन हो या अन्य विवाद. इसे टकराते भिड़ते देखा. बाद में इसके हरावल दस्ते का एक सिपाही भी बना. जनसत्ता ने चौरासी के दंगों में जिस तरह सिखों की आवाज उठाई वह बेमिसाल है. उसके बाद भी यह तेवर बरक़रार रहा. इसलिए इंडियन एक्सप्रेस आज भी अख़बारों की भीड़ में अलग है. टेलीग्राफ ने पिछले एक महीने में जो हेडिंग दी कवरेज की वह बहुत आसान नहीं है. टेलीग्राफ का शानदार इतिहास रहा है. टेलीग्राफ के साथी पीयूष बताते हैं कि किस तरह एक एक स्टोरी पर रात दो बजे तक पूरी टीम काम करती है. आप असहमत हो सकते हैं. पर समूचे अख़बार को निशाने पर लें, यह ठीक नहीं. सही तरीका यह है कि इन्हें न पढ़ें. समस्या खत्म. तनाव ख़त्म. अखबारों की भीड़ है. कोई भी विश्व का या देश का बड़ा अख़बार उठाएं और पढ़ें. आप भी खुश हम भी खुश.

अख़बार अख़बार में फर्क है. हिंदी में जो नहीं मिलेगा वह अंग्रेजी में मिल जायेगा. हिंदी की चुटीली हेडिंग के साथ. टाइम्स आफ इंडिया ने सुभाष चंद्र बोस के परिजन सांसद सुगाता बोस का भाषण दिया है. राष्ट्रभक्ति पर कम से कम नव राष्ट्रवादियों को उसे पढना चाहिए पर चैनल की तरह हिंदी वालों ने इससे बचने का प्रयास और ढंग से दिया ही नहीं, कहीं पाठक ज्यादा जागरूक न हो जाए. पाठक ही अख़बार नहीं बनाता है, अख़बार भी पाठक को बनाता है. अब यह भूमिका अंग्रेजी अख़बार ज्यादा बेहतर ढंग से निभा रहे है. बहरहाल आज का टेलीग्राफ फिर देखें.

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Sanjaya Kumar Singh : दि टेलीग्राफ का शीर्षक आज भी सबसे छोटा सबसे चुटीला है। जब प्रधानमंत्री को दो साल में देश की मीडिया को संबोधित करने का समय न मिले, दीवाली मिलन के नाम पर पत्रकारों को बुलाकर सेल्फी खींचने का सत्र चलाया जाए तो अखबारों के शीर्षक पर चर्चा करना, वह भी, तब जब स्टार मंत्री के ‘शानदार’ भाषण की तारीफ ना हो, भक्तों को क्यों पसंद आएगा। भक्ति में लगे लोगों को इसपर चर्चा से भी परहेज है।

वरिष्ठ पत्रकार अंबरीश कुमार और संजय कुमार सिंह के फेसबुक वॉल से.

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0 Comments

  1. निखिल व्यास

    February 27, 2016 at 12:23 pm

    भड़ास4मीडिया की कुछ “विशेष” पोस्ट्स फेसबुक पर स्पोन्सर्ड हो रही है।काश इन पोस्ट्स पर इस कृपा की वजह जान पाता

  2. निखिल व्यास

    February 27, 2016 at 12:23 pm

    भड़ास4मीडिया की कुछ “विशेष” पोस्ट्स फेसबुक पर स्पोन्सर्ड हो रही है।काश इन पोस्ट्स पर इस कृपा की वजह जान पाता

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