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दिल्ली

…तो अराजक अरविंद केजरीवाल नौकरशाही को नाथने में इसलिए नाकारा साबित हुए!

नौकरशाही शेर की सवारी शुरू ही से मानी जाती रही है। लेकिन अरविंद केजरीवाल इसे नहीं साध पाए। अब शेर ने उन्हें उठा कर पटक दिया है और अब उन्हें खा जाने पर आमादा है। अनपढ़ राबड़ी देवी तक इस शेर की सवारी को इज्जत दे कर साध ले गई थीं। लालू जेल में थे, बच्चे छोटे लेकिन राबड़ी अपने सचिव पाठक जी का बस पांव भर नहीं छूती थीं सार्वजनिक रूप से। बाक़ी सब। सारा आदर सत्कार करती रहती थीं। पाठक जी की सलाह के बिना वह पत्ता नहीं हिलने देती थीं, अपने शासन में। तो पाठक जी ने भी कभी उन पर आंच नहीं आने दी।

उत्तर प्रदेश के एक मुख्य मंत्री रामनरेश यादव तो एक समय अपने सचिव को देखते ही खड़े हो जाते थे। बाद में उस सचिव ने ही उन्हें उन की मर्यादा समझाई और कहा कि सर, आप खड़ा न हुआ करें। लेकिन रामनरेश यादव को यह अपनी आदत सुधारने में बहुत समय लगा था। हुआ यह था कि रामनरेश यादव के वह सचिव कभी उन के ज़िले में डीेएम रहे थे। और रामनरेश यादव मामूली वकील। तो उन्हें यह सम्मान देने की आदत बनी रही।

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नारायणदत्त तिवारी को तो विकास पुरुष कहा जाता रहा है लेकिन इमरजेंसी जैसे समय में लखनऊ के तत्कालीन ज़िलाधिकारी चतुर्वेदी जी ने उन के कहे के बावजूद एक राजनीतिक को मीसा में बंद करने के लिए सार्वजनिक रूप से इंकार करते हुए कहा कि सर, ज़िला मुझे संभालने और चलाने दीजिए। और तिवारी जी चुप रह गए थे। तिवारी जी को मैं ने अफसरों से विनयवत बात करते ही देखा है। एकाध बार तो मैं ने देखा कि फ़ाइल पर अफसर ने प्रतिकूल टिप्पणी लिख दी है लेकिन फ़ाइल लिए बैठे तिवारी जी लगभग हाथ जोड़े कह रहे हैं, देखिए कोई रास्ता निकलता है क्या। और थोड़ी देर में ही उसी अफसर ने रास्ता निकाल भी दिया है।

वीरबहादुर सिंह को भी अपने एक सचिव एस पी आर्या को सिर पर बैठाए देखा है। अर्जुन सिंह जब मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तब अशोक वाजपेयी उन के सचिव रहे थे। बिना अशोक वाजपेयी की सलाह के वह भी कुछ नहीं करते थे। नृपेंद्र मिश्र जो इन दिनों नरेंद्र मोदी के प्रधान सचिव हैं एक समय उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह के सचिव रहे हैं। नृपेंद्र मिश्र अगर एक बार संकेतों में भी कल्याण सिंह से किसी बात पर मना कर देते थे तो कल्याण सिंह फिर उस बात को दुहराते नहीं थे। नृपेंद्र मिश्र ऐसे अफसर हैं जो मुलायम और कल्याण दोनों के खास रहे हैं, सचिव रहे हैं।

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अब देखिए कि अशोक प्रियदर्शी की याद आ गई। अशोक प्रियदर्शी एक समय वीरबहादुर सिंह के समय वीरबहादुर के ख़ास थे। वीरबहादुर सिंह जब सिंचाई मंत्री थे तब वह सिचाई विभाग में संयुक्त सचिव थे। फिर जब मुख्यमंत्री बने वीरबहादुर तो अशोक प्रियदर्शी को सूचना निदेशक बना दिया। बाद में जब नारायणदत्त तिवारी फिर मुख्यमंत्री बने तो बहुत से अफसरों को बदला लेकिन अशोक प्रियदर्शी को बदला नहीं, सूचना निदेशक बने रहने दिया। तब जब कि वीरबहादुर और तिवारी के बीच छत्तीस का रिश्ता था उन दिनों।

खैर, इसी के बाद मुलायम जब मुख्यमंत्री बने तो इन्हीं अशोक प्रियदर्शी को लखनऊ का डी एम बना दिया। इन्हीं अशोक प्रियदर्शी ने बतौर डी एम भाजपाइयों को पिस्तौल ले कर एक बार दौड़ा लिया। तब जब अयोध्या में कार सेवकों पर मुलायम ने गोली चलवाई थी, उस की प्रतिक्रिया में लखनऊ में दंगा भड़क गया था। बाद में रोमेश भंडारी जब राज्यपाल बने तो राष्ट्रपति शासन में अशोक प्रियदर्शी को अपना प्रधान सचिव बनाया था। बाद में राष्ट्रपति शासन को जारी रखने के लिए नोटिंग बनाने में अशोक प्रियदर्शी ने जितनी मेहनत की उतनी तो रोमेश भंडारी ने भी नहीं की। अशोक प्रियदर्शी उन दिनों मिलते तो कहते, इतनी मेहनत तो मैं ने आई ए एस की तैयारी में भी नहीं की थी।

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लेकिन जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने तो इन्हीं अशोक प्रियदर्शी को पी एम ओ में बतौर संयुक्त सचिव नियुक्ति दी। अशोक प्रियदर्शी थे ही ऐसे अफ़सर। सोचिए कि जब वह लखनऊ में डी एम थे तब उन की छोटी बहन की शादी थी पटना में। लेकिन अमेठी में कुछ मतकेन्द्रों पर पुनर्मतदान की स्थिति आ गई। राजीव गांधी चुनाव मैदान में थे। चुनाव आयोग ने निर्वाचन अधिकारी को बदल कर उस दिन का निर्वाचन अधिकारी अशोक प्रियदर्शी को नियुक्त किया। उसी दिन अशोक प्रियदर्शी की छोटी बहन की पटना में शादी थी। लेकिन अशोक प्रियदर्शी ने उफ्फ भी नहीं किया। अमेठी में उपचुनाव संपन्न करवा कर पटना गए। बस सुविधा के लिए स्टेट प्लेन उन्हें मिल गया था।

ऐसे तमाम किस्से हैं अफसरों को विश्वास में ले कर चलने के। नेहरु से लगायत इंदिरा गांधी के तमाम अफसरों से लगायत प्रधानमन्त्री वी पी सिंह के खास अफसर रहे विनोद पाण्डेय और भूरे लाल तक के। पी एल पुनिया आज भले कांग्रेस में हैं लेकिन जब उत्तर प्रदेश में तमाम पदों पर रहे ख़ास कर मुलायम और मायावती के क्रमशः सचिव रहते हुए भी तमाम दलितोत्थान वाले एजेंडे के बावजूद उन के कार्यकाल को हम उन की सदाशयता के लिए ही याद रखते हैं। अलग बात है कि राजनीतिक हो कर वह कुतर्क के आदी हो गए हैं।

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लेकिन अपनी अराजक राजनीति में अरविंद केजरीवाल इसी शेर की सवारी को साधने में असफल हो गए हैं। लिख कर रख लीजिए कि सुप्रीम कोर्ट ही नहीं अल्ला मिया का भी वह आदेश लिखवा कर ले लें, दिल्ली की नौकरशाही अब उन्हें सही सलामत कभी भी शासन करने नहीं देगी। अपने मुख्य सचिव अंशु के साथ बदसुलूकी और पिटाई उन्हें बहुत भारी पड़ चुकी है। दिल्ली के आई ए एस अफसरों के आगे अब वह मुर्गा भी बन जाएं तो भी वह उन्हें माफ़ नहीं करने वाले। देश के आई एस अफसरों का चाहे जितना पतन हो गया हो पर अभी भी वह पूरे देश में अपने स्वाभिमान, सुरक्षा और स्वायत्तता के लिए एकमत हैं।

अरविंद केजरीवाल की राजनीति पर उन की अराजक राजनीति ने सिर्फ़ ग्रहण लगाया था, नौकरशाही के साथ उन के अपमानजनक व्यवहार ने उन की राजनीति पर अब पूर्ण विराम लगा दिया है। मायावती और अखिलेश के राजनीतिक पतन में भी यही नौकरशाही ख़ामोशी से काम कर गई थी और इन लोगों को आज तक इस की सुधि नहीं आई है। मायावती की बदतमीजी नौकरशाही अभी भूली नहीं है। अखिलेश यादव अपनी बदतमीजी की याद जब-तब खुद ही दिलाते रहते हैं। कांग्रेस अगर आज भी सांस ले रही है तो इसी नौकरशाही में अपने विश्वास और आस के चलते। भाजपा में तमाम अंदरूनी उठापटक के बावजूद नरेंद्र मोदी आज भी तन कर खड़े दीखते हैं तो इसी शेर की सवारी को साध लेने की सफलता में। अरविंद केजरीवाल को उन की सवारी शेर ने पटक दिया है। अब उन को फिर से सवार बनाने को तैयार नहीं है। बशीर बद्र का एक शेर याद आता है :

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चाबुक देखते ही झुक कर सलाम करते हैं
शेर हम भी हैं सर्कस में काम करते हैं।

लेकिन दिल्ली के यह शेर अरविंद केजरीवाल की बदसलूकी के कारण उन के सर्कस से बाहर आ चुके हैं। उन का चाबुक देखना और उन्हें झुक कर सलाम करना वह भूल चुके हैं। मुख्य सचिव अंशु के साथ हाथापाई और मारपीट पर अरविंद केजरीवाल एंड कंपनी के खिलाफ चार्जशीट, कोर्ट की राह देख रही है। इस नाटक का यह नया दृश्य देखने के लिए तैयार हो जाए अरविंद केजरीवाल एंड कंपनी। यह पटकथा मोदी या एल जी ने नहीं खुद अराजक अरविंद केजरीवाल ने लिखी है। अकबर की याद आती है। वीरबल, टोडरमल और तानसेन आदि की याद आती है। यह अकबर के नवरत्न थे मतलब उन के शेर। अकबर अपने नवरत्नों को कितना सम्मान देते थे, यह किसी से छुपा नहीं है। काश कि सेक्यूलर राजनीति का दंभ और पाखंड पालने वाले अराजक अरविंद केजरीवाल ने अकबर का ही इतिहास पढ़ा होता।

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लेखक दयानंद पांडेय लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं.

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