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बिहार

मुझे अख़बार मालिकों की कायरता पर अचंभा होता है….

बिहार के अख़बारों को तो नीतीश ने अपना चाकर बनाकर रखा है

भगवान बन गए हैं नीतीश कुमार. उनका दावा है कि किसी को कुछ भी बना दे सकते हैं. किसी को भी कहीं से कहीं पहुँचा सकते हैं. शराब बंदी के दो साला जलसे के मौक़े पर नीतीश कुमार का भाषण दंभ और अंहकार से भरा हुआ था. बिहार के अख़बारों को तो नीतीश ने अपना चाकर बनाकर रखा है. सभी ने इनके भाषण पर एक से अधिक ख़बर बनाई है. प्राय: सभी हिंदी अखबारों ने एक पुरा पृष्ठ इनके भाषण के लिए दिया है.सरकारी विज्ञापन अखबारों को मुठ्ठी में रखने का ज़रिया बना हुआ है. पटना से छपने वाला शायद ही कोई अखबार होगा जिसकी पीठ पर कभी न कभी विज्ञापन बंदी का चाबुक नहीं चला होगा.
अख़बारों में क्या छपेगा और क्या नहीं यह रिपोर्टर या संपादक नहीं तय करता है. यह मैनेजमेंट में बैठे हुए लोग तय करते हैं. जब से अख़बारों में स्थायी नियुक्ति की जगह पर कन्ट्रैक्ट बहाली की व्यवस्था शुरू हुई है, संपादकों को तो मालिकों ने जी हुज़ूर बनाकर छोड़ दिया है. इंदिरा जी को अख़बारों पर नकेल कसने के लिए इमर्जेंसी लगानी पड़ी थी. नीतीश ने बगैर इमर्जेंसी लगाए वह कर दिया है.

मझे याद है 1982 में जगन्नाथ मिश्र जी मुख्यमंत्री थे. अखबारों से वे तंग थे. सरकारी कारनामों की कोई न कोई ख़बर रोज़ अखबारों में छपा करती थी. इसलिए इन पर क़ाबू रखने के लिए 82 के जुलाई महीने में प्रेस बील के नाम से एक काला क़ानून बिहार विधान सभा से उन्होने पास कराया था. बगैर बहस के, आनन-फ़ानन में वह बील पास हुआ था. लेकिन उस काले क़ानून का एतिहासिक विरोध हुआ.

पत्रकारों से ही यह विरोध शुरू होकर हर क्षेत्र में फैल गया था. उस क़ानून के विरोध में हमलोंगो ने भी प्रदर्शन किया था. प्रेस को ग़ुलाम बनाने वाले उस क़ानून के विरोध में होने वाले उस प्रदर्शन में नीतीश कुमार भी शामिल थे. नीतीश तब विधायक भी नहीं थे. हड़ताली मोड़ पर पुलिस द्वारा हम पर भारी लाठी चार्ज हुआ. कई लोग गिरफ़्तार हुए थे. उनमें नीतीश भी थे. लगभग डेढ़ महीना हमलोग फुलवारी जेल में थे. मुझे याद है हमारा दशहरा जेल में ही बीता था.

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आज नीतीश मुख्यमंत्री हैं. प्रेस की आजादी के संघर्ष में अपनी जेल यात्रा को वे भूल चुके हैं. उस ज़माने में मुख्यमंत्री के रूप में जगन्नाथ जी को आज़ाद प्रेस डराता था. इस ज़माने में आज़ाद प्रेस मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को डरा रहा है. इमर्जेंसी और प्रेस बील के विरूद्ध संघर्ष करने वाला, जेल जाने वाला नीतीश कुमार आज पुरी बेशर्मी से वही काम कर रहा है जो एक ज़माने में जगन्नाथ जी ने किया था. वह भी अवैध ढंग से. सरकारी ताक़त के अवैध इस्तेमाल के द्वारा.

मुझे अख़बार मालिकों की कायरता पर अचंभा होता है. यहीं एक अख़बार ने, जब पानी नाक से उपर होने लगा तो अपनी ताक़त का एहसास नीतीश कुमार को कराया था. तीसरे दिन तो नीतीश की हवा निकल गई थी. घुटना टेक दिया था. ठीक है कि आज अख़बार निकालना व्यवसाय है. लेकिन इस व्यवसाय की एक प्रतिष्ठा है. कम से कम इस व्यवसायिक प्रतिष्ठा की मान रखने की अपेक्षा करना ग़लत तो नहीं है ?

शिवानन्द तिवारी

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2 Comments

2 Comments

  1. Ramesh Kuumar

    April 17, 2018 at 12:18 am

    Rajasthan main vasundhra raje ne to 4 saal se yahi besharm ravaiyaa apna rakha hai…jo unki sarkaar ke kaale karnaame print kare uski vigyapan ruk jaate hain..ji hajuri karne walon ko full page ad mil rahe hain…..

  2. राजेश अग्रवाल

    April 19, 2018 at 9:16 am

    मेरा ख्याल है ऐसा दूसरे राज्यों में भी है। छत्तीसगढ़ में न सिर्फ अख़बार बल्कि सैकड़ों की संख्या में न्यूज वेबसाइट मुख्यमंत्री और सरकार की छवि चमकाने का ही काम कर रहे हैं, बदले में उन्हें खासे विज्ञापन मिल रहे हैं।

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