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दिल्ली

केजरीवाल जैसों की नियति है नष्ट हो जाना!

Yashwant Singh : केजरीवाल जैसों की नियति है नष्ट हो जाना. एक अच्छे खासे आंदोलन की माकानाकासाका करने के बाद यह आदमी अब खुद और अपनी पार्टी की वाट लगाने लगा है. भाजपा को क्यों कोस रहे हैं साहिब. सियासत में पार्टियां ऐसे ही दूसरे दलों पर निशाना साधा करती हैं. सवाल ये है कि आज आपके बचाव में कोई खड़ा क्यों नजर नहीं आ रहा. हम जैसे प्रचंड समर्थक तो सरकार बनने के कुछ माह बाद ही बदले रंग ढंग देखकर अलग हो लिए थे.

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Yashwant Singh : केजरीवाल जैसों की नियति है नष्ट हो जाना. एक अच्छे खासे आंदोलन की माकानाकासाका करने के बाद यह आदमी अब खुद और अपनी पार्टी की वाट लगाने लगा है. भाजपा को क्यों कोस रहे हैं साहिब. सियासत में पार्टियां ऐसे ही दूसरे दलों पर निशाना साधा करती हैं. सवाल ये है कि आज आपके बचाव में कोई खड़ा क्यों नजर नहीं आ रहा. हम जैसे प्रचंड समर्थक तो सरकार बनने के कुछ माह बाद ही बदले रंग ढंग देखकर अलग हो लिए थे.

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कुछ दिन बाद आम आदमी पार्टी में संजय सिंह, मनीष सिसोदिया और केजरीवाल ही रह जाएंगे. आशुतोष तो डूबता जहाज देख कितना भी गहरा पानी क्यों न हो, कूद जाएगा और हल्ला मचा कर किनारे पहुंच जाएगा. किसी चैनल का सलाहकार बन जाएगा. लेकिन उन लाखों करोड़ों कार्यकर्ताओं का क्या, जिन्होंने तन मन धन से साथ दिया और एक सपने को जिया. अब भी वक्त है आम आदमी पार्टी के इमानदार समर्थकों, इस कुंठित प्राणी केजरी से नाता तोड़ लो और अपना जीवन जियो. केजरी जैसा मनोरोगी न मिलेगा. ये भी अंत में, पांच साल का कार्यकाल पूरा करने के बाद फिर से अपने एनजीओ को चलाएगा और हमेशा की तरह सिसोदिया इसके अधीन होकर एनजीओ में विदेशी फंडिंग के लिए जोरशोर से लग जाएगा. इति श्री केजरीवाल कथाक्रम: 🙂

Ajay Prakash : मैं देख रहा हूं मेरे बहुत सारे साथी पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता और कुछ वामपंथी केजरीवाल को बचा रहे हैं। उन सबसे मेरा एक छोटा सवाल ये है कि आप किस केजरीवाल को बचा रहे हैं? एक ईमानदार और नई राजनीति के वाहक केजरीवाल को या सत्ता मिलने के बाद के केजरीवाल को जो तानाशाह, तीकड़मी और आप के नेतृत्व पर कुंडलीमार के मार के बैठा है। अगर आप पहले वाले को बचा रहे हैं तो मैं भी आपके साथ हूं पर ध्यान रहे कि वह आंदोलनकारियों, समर्थक बुद्धिजीवियों, संघर्ष में शामिल साझीदारों को खदेड़ने और हाशिए पर डालने ​की प्रक्रिया में मर चुका है।

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Chandra Prakash Pandey : केजरीवाल तो धूर्तता की पराकाष्ठा हैं सिसोदिया जी। उल-जुलूल आरोप क्या होता है, इसके एक्सपर्ट केजरीवाल जी से पूछ लेते। आज सबूत मांगने वाले ‘हरिशचंद्रावतार’ के अघोषित प्रवक्ता कथित पत्रकारो…कोई एक उदाहरण तो बता दो अपने भगवान का, जब उसने कीचड़ उछालने से पहले सबूत दिखाया हो। दरअसल कपिल मिश्रा भी उसी यूनिवर्सिटी से ईमानदारी और बे-ईमानी के सर्टिफिकेट जारी कर रहे हैं जिससे आपके भगवान जारी करते रहे हैं। फिर भी आज केजरीवाल से न जाने क्यों सहानुभूति हो रही है। मिश्रा जी, मंत्री पद जाते ही या उसकी सुगबुगाहट मिलते ही आपको केजरीवाल भ्रष्ट लगने लगे। अगर आपको पता था कि केजरीवाल ने रिश्वत ली तो उस समय आवाज़ क्यों नहीं निकली? जहां जाना हो, जिस पार्टी में जाना हो…जाइये न…लेकिन चरित्रहनन के ड्रामा की क्या ज़रूरत थी। कांग्रेस का तो नहीं पता, लेकिन BJP तो आपको हाथो हाथ ले ही लेती। वहां जाकर हर कोई पवित्तर जो हो जाता है। क्यों तिवारी जी, आप तो इन्हें मोटा भाई से भी मिलवा देते न। केजरीवाल के बारे में मेरी धारणा है, धारणा क्या विश्वास है कि यह शख्स कुछ भी कर सकता है लेकिन रिश्वत तो नहीं ही लेगा। मिश्रा जी, अब काम हो गया, उधर जाइये…देखिये न मोटा भाई सब कुछ पवित्तर करने वाला जादुई तरल पदार्थ लेकर आपको अपनी पार्टी का गमछा पहनाने के लिए मरे जा रहे हैं।

Abhishek Srivastava : [आम आदमी पार्टी के संकट पर एक सुविचारित टिप्‍पणी] हमारा समूचा ऐतिहासिक अनुभव एक कहानी की शक्‍ल में होता है। कहानी चलती जाती है, पात्र बदलते जाते हैं। नए पात्रों और घटनाओं को हम कहानी में फिट कर के उसके अर्थ निकालते जाते हैं। हमारी यही सामान्‍य आदत है। छह साल हो गए अरविंद केजरीवाल की अगुवाई में भ्रष्‍टाचार विरोधी आंदोलन को खड़ा हुए, लेकिन अब भी उस घटना और उसके बाद उपजे नए आख्‍यान को यह व्‍यवस्‍था अपने भीतर फिट नहीं कर पाई है। एक मामूली-सी और सबसे नई राजनीतिक पार्टी का एक अधबने राज्‍य में प्रतीकात्‍मक शासन है, उसके बावजूद व्‍यवस्‍था उसका सामूहिक आखेट पहले के मुकाबले कहीं ज्‍यादा तेज़ी से कर रही है। पार्टी भीतर से भी टूट रही है। कुछ न होते हुए एक बवासीर जैसा बन गया है जो रह-रह कर रिसता है। ये हो क्‍या रहा है?

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यह यथास्थिति और उस ‘नई’ घटना के बीच का टकराव है जो छह साल पुरानी हो चुकी है। वह घटना दरअसल ऐतिहासिक बन गई है। इसीलिए रिजॉल्‍व नहीं हो रही। घटनाएं ऐतिहासिक ऐसे ही बनती हैं। हमारा पक्ष जो भी हो, हमें न्‍यूनतम इतना मानना होगा कि बीते चार दशक में आम आदमी पार्टी का उभार एक असामान्‍य घटना है। तभी हम इतिहास की कहानी में अपने को भी फिट कर पाएंगे। कपिल मिश्रा उस अनरिजॉल्‍व्‍ड यानी असमाधित टकराव में एक मोहरा हैं। ऐसे और मोहरे अभी आएंगे। ऐसे मोहरों का क्‍या किया जाए?

टीएस इलियट ने Notes Towards a Definition of Culture में लिखा था कि ”कभी-कभार ऐसे मौके आते हैं जब आपको विधर्म या अधर्म में से एक को चुनना होता है, जब धर्म को जिंदा रखने के लिए उसकी लाश का पवित्र अंग-भंग करना होता है।” मेरी समझदारी फिलहाल यह बन रही है कि आम आदमी पार्टी का यह अंग-भंग ”पवित्र” मान लिया जाना चाहिए और ऐतिहासिक रूप से खुद को सही रखने के लिए अरविंद केजरीवाल (व्‍यक्ति नहीं, परिघटना) के साथ अंत तक चुपचाप खड़ा रहना चाहिए। मनोविज्ञान में नैतिकता की एक बुनियादी प्रस्‍थापना दी गई है कि ”अपनी वासना से समझौता मत करो”। केजरीवाल करप्‍ट हैं या नहीं, इस पर बहस छोड़ दें। उनकी वासना को देखिए। यह वासना ही यथास्थितिवादी आख्‍यान का काउंटर रचती है। अपने यहां शास्‍त्रों में एक शब्‍द है आपद्धर्म। फिलहाल उसे समझिए।

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भड़ास एडिटर यशवंत सिंह, पत्रकार अजय प्रकाश, चंद्र प्रकाश पांडेय और सोशल एक्टिविस्ट अभिषेक श्रीवास्तव की एफबी वॉल से.

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