Suraj Pandey : ABP ग्रुप ने फरवरी 2017 में 700 लोगों को बाहर फेंक दिया। कुछ साल पहले नेटवर्क 18 ने एकसाथ सैकड़ों लोगों को निकाल बाहर किया। 2013 में महुआ न्यूज में महीनों तक 20K/M से ज्यादा वालों की सैलरी अटक अटक कर (1 महीने की हमेशा प्रबंधन के पास जमा रहती थी) आती रही। फिर महीनों सैलरी नहीं आई, लोग धरने पर बैठे। न्यूज रूम में पुलिस आई, जबरदस्ती लोगों को बाहर निकालकर दफ्तर पर ताला लगा दिया गया।
एक झटके में सैकड़ों लोग बेरोजगार हो गए, ऐन दिवाली से पहले सैकड़ों पत्रकारों का दिवाला निकल गया। इसमें ट्रेनी से लेकर संपादक, एंकर, रिपोर्टर सब शामिल थे लेकिन इनके लिए देश नहीं रोया। तमाम लोगों ने इस झटके के बाद मीडिया छोड़ दी, कुछ को पेट भरने के लिए दिल्ली छोड़नी पड़ी।
कुछ को पहले से कम सैलरी से भी कम सैलरी में कहीं और अपना शोषण करवाने पर मजबूर होना पड़ा लेकिन इनके लिए कोई नहीं बोला। क्योंकि ये ना तो धान के खेत से गेहूं निकाल पाते थे ना ही ऑन एयर ख़ैनी बनाते हुए कुटिल मुस्कान के साथ चुटकी ले पाते थे।
ये देश हमेशा से व्यक्ति पूजक था, है और रहेगा। टुच्चे लोग जीवन में खुद कुछ कर नहीं पाते अतएव हीरो तलाशते हैं जिसके सपोर्ट की आड़ में अपनी नाकामी छिपा सकें। लोगों को धोखा देकर यकीन दिला सकें कि वो बड़े वाले क्रांतिकारी की लंगोट इन्हीं के दम से टिकी है।
छोटा पत्रकार इन्हें दलाल लगता है क्योंकि वो वही धान-गेहूं खैनी-कुटिल मुस्कान वाले पैंतरे नहीं जानता। वो 10 घंटे केबोर्ड पीटता है। छोटी सी गलती होने पर ऑनलाइन ट्रोल होता है, गाली खाता है। बॉस के सामने पड़ते ही दशहरे के बकरे जैसा मिमियाने लगता है। छुट्टी मांगने पर बेइज्जत होता है और फिर महीने के अंत में थोड़ी चिल्लर लेकर 2-4 दिन खुश हो लेता है। उसे ये सब क्रांति नहीं करनी क्योंकि उसकी पत्नी मोटी तनख्वाह पर सरकारी नौकरी नहीं कर रही। उसे पता है कि नौकरी गई तो फांके लगेंगे इसलिए वो सर झुकाकर काम करता है और कभी ‘हीरो’ नहीं बन पाता।
गद्य में तारतम्य या किसी घटना से समानता वगैरह जैसी तुच्छ बातें ना खोजें, इंटरनेट चल नहीं रहा, गेम खेल नहीं पा रहे इसलिए भड़ास निकाल दिए हैं।
युवा पत्रकार सूरज पांडेय की एफबी वॉल से.
https://youtu.be/BXu6enscLjo
दीपक पाण्डेय
August 17, 2018 at 12:28 pm
कुछ ही लोग हैं जो दिल को छू पाते हैं.. भाई सूरज आपने वो काम कर दिया..
फ़िरोज़ खान बाग़ी
August 18, 2018 at 9:14 am
अफसोस इस बात का है की हम सबकी लड़ाई लड़ते हैं, कईयों को तो जीत भी दिला देते हैं । पर अपनी लड़ाई कभी नहीं लड़ पाते , जो इक्का दुक्का लोग हिम्मत जुटाते हैं वो भी परिवार की जिम्मेदारियों के आगे टूट जाते हैं । अब जाएं तो जाएं कहां ? झक मारकर , वापस काम में लग जाते हैं ।