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झारखंड

गैर-आदिवासी और गैर-झारखंडी के हाथ में झारखंड की कमान

झारखंड में भाजपा की राजनीति कैसे सफल हुई और मोदी की राजनीति कितनी कारगर साबित हुई, इस पर हम चर्चा करेंगे लेकिन सबसे पहले प्रदेश में बनने वाले पहले गैर-आदिवासी और गैर-झारखंडी मुख्यमंत्री के बारे में कुछ जानकारी। भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने पहले रघुबर दास के नाम पर सहमति जताई और इसके बाद अपने सिखाए पढाए दूतों के जरिए रांची में रघुबर के नाम की घोषणा करवा दी। रघुबर दास इस राज्य के पहले गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री होने जा रहे हैं। रघुबरदास के बारे में अखबारों में कई तरह की खबरें छप रही हैं। उनके व्यक्तित्व, उनके परिवार, उनकी शिक्षा दीक्षा, उनके खान पान और न जाने क्या क्या।

<p>झारखंड में भाजपा की राजनीति कैसे सफल हुई और मोदी की राजनीति कितनी कारगर साबित हुई, इस पर हम चर्चा करेंगे लेकिन सबसे पहले प्रदेश में बनने वाले पहले गैर-आदिवासी और गैर-झारखंडी मुख्यमंत्री के बारे में कुछ जानकारी। भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने पहले रघुबर दास के नाम पर सहमति जताई और इसके बाद अपने सिखाए पढाए दूतों के जरिए रांची में रघुबर के नाम की घोषणा करवा दी। रघुबर दास इस राज्य के पहले गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री होने जा रहे हैं। रघुबरदास के बारे में अखबारों में कई तरह की खबरें छप रही हैं। उनके व्यक्तित्व, उनके परिवार, उनकी शिक्षा दीक्षा, उनके खान पान और न जाने क्या क्या।</p>

झारखंड में भाजपा की राजनीति कैसे सफल हुई और मोदी की राजनीति कितनी कारगर साबित हुई, इस पर हम चर्चा करेंगे लेकिन सबसे पहले प्रदेश में बनने वाले पहले गैर-आदिवासी और गैर-झारखंडी मुख्यमंत्री के बारे में कुछ जानकारी। भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने पहले रघुबर दास के नाम पर सहमति जताई और इसके बाद अपने सिखाए पढाए दूतों के जरिए रांची में रघुबर के नाम की घोषणा करवा दी। रघुबर दास इस राज्य के पहले गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री होने जा रहे हैं। रघुबरदास के बारे में अखबारों में कई तरह की खबरें छप रही हैं। उनके व्यक्तित्व, उनके परिवार, उनकी शिक्षा दीक्षा, उनके खान पान और न जाने क्या क्या।

राजनीति के उफान पर जो भी आदमी आगे बढता है मीडिया उसके साथ हो लेती है। इसकी कई वजहें हो सकती है। सो रघुबरदास भी अब मीडिया के केंद्र में हो गए हैं। लेकिन सवाल है कि आखिर रघुबर दास ही राज्य के गैर-आदिवासी चेहरा क्यों बने? क्या इसलिए कि वे गैर-आदिवासी के साथ ही गैर-झारखंडी भी हैं? वे छत्तीसगढ से आते हैं। उनके दादा यहां आकर बस गए थे लेकिन उनकी जड़ें आज भी छत्तीसगढ में है। यानि रघुबर दास झारखंड के पहले गैर-आदिवासी और गैर-झारखंडी मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं। इसके पीछे की एक राजनीति यह है कि छत्तीसगढ में प्रधानमंत्री मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह वहां के सीएम रमन सिंह को हटाने के मूड में हैं। वहां किसी आदिवासी या फिर किसी पिछड़ी जाति के हाथ में नेतृत्व देने की राजनीति हो सकती है।

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संभव है कि झारखंड में गैर-आदिवासी नेतृत्व के सावल पर भाजपा यह कह सकती है कि देश और व्यवस्था को चलाने के लिए अलग-अलग तरह के लोगों की जरूरत होती है। भाजपा आदिवासी विरोधी नहीं है। झारखंड की लूटवाली राजनीति को शांत करने के लिए उसने गैर-आदिवासी के हाथ में नेतृत्व दिया है और छत्तीसगढ में आदिवासी नेतृत्व देने जा रही है। दरअसल झारखंड में इस बार गैर आदिवासियों ने सबसे ज्यादा भाजपा को न सिर्फ वोट दिया बल्कि सबसे ज्यादा गैर आदिवासी, सदान और दीकू ही चुनाव जीतकर सामने आए। झारखंड और आदिवासी की राजनीति करने वाले प्रदेश के तमाम राजनीतिक दलों को गैर-आदिवासी देखना नहीं चाहते। इस बार के चुनाव में अब साफ साफ प्रदेश की पूरी राजनीति दो ध्रुवों में बंट गई है। आने वाले दिनों में खुद भाजपा के भीतर रहने वाले आदिवासी नेता इस खेल को कितना पचा सकेंगे, अभी कहना ठीक नहीं है।

सबसे मौजू सवाल तो ये है कि आखिर में रघुबरदास ही मोदी की पसंद क्यों बने? नीचे की राजनीति चाहे जो भी हो उपर से तो साफ हो गया है कि गैर आदिवासी नेतृत्व के नाम पर मोदी और शाह ने अपने समाज के लोगों पर ही यकीन किया। जातीय समीकरण पर किसी को भी थोड़ी आपत्ति हो सकती है लेकिन सवाल है कि अगर रघुबरदास बनिया नहीं होते तो क्या उन्हें यह मौका मिलता? जब गैर आदिवासी को ही मुख्यमंत्री बनाना था तो इसमें कई चेहरे भी हो सकते थे। किसी पुराने चेहरे पर यकीन नहीं था तो कोई नया खट्टर ही सामने लाया जा सकता था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। फिर दूसरा सवाल है कि रघुबरदास 10 सालों तक सरकार में शामिल भी रहे हैं। कई घपले घोटाले भी उनके नाम दर्ज हैं। फिर उनसे सुधार की उम्मीद कैसे की जा सकती है? खैर यह सब भाजपा की आंतरिक राजनीति हो सकती है। आज जो अर्जुन मुंडा चुप्पी साधे सब देख रहे हैं अब वे अपने आदिवासी समाज को क्या कहेंगे? क्या अर्जुन मुंडा गैरआदिवासी को स्वीकार करेंगे? हार जीत राजनीति का हिस्सा है। लेकिन सिद्धांत को छोड़ा तो नहीं जा सकता? आगे की राजनीति पर गौर करने का समय आ गया है।

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झारखंड की जनता ने अपना फैसला सुना दिया। जात, धर्म, आदिवासी, गैरआदिवासी और सादान की राजनीति में फंसे झारखंड को पहली दफा पूर्ण बहुमत वाली सरकार मिल गई। राजनीतिम हलकों में अब इस बात की चर्चा है कि भाजपा की इस जीत और कांग्रेस, राजद के भारी नुकसान के साथ ही बाबू लाल मरांडी की पार्टी झाविमो की हार के क्या कारण रहे हैं? क्या वाकई में इस चुनाव में मोदी का जादू चला? और ऐसा है तो फिर भाजपा के कई दिग्गज हारे क्यों? आजसू को 8 सीटें भाजपा ने दी थी। लेकिन आजसू के मुखिया सुदेश महतो खुद बुरी तरह से हार गए। सुदेश के साथ मोदी जी कई सभाओं में मंच शेयर किए थे। फिर अर्जुन मुंडा क्यों हार गए? और सबसे बड़ा सवाल की भाजपा और और उसके सहयोगी दल आजसू के अधिकतर लोगों को हराने वाली पार्टी झामुमो कैसे हो गई।
इन तमाम सवालों को देखते हुए तो यही कहा जा सकता है  यहां मोदी का असर था भी और नहीं भी। लेकिन इस चुनाव के परिणाम देखने से साफ हो जाता है कि इस चुनाव में हार जीत के पीछे आदिवासी और गैरआदिवासी की राजनीति सबसे आगे रही और यही फैक्टर भाजपा को सरकार बनाने के पास ले गया। इसी सवाल में  बड़े बड़े खिलाड़ी धराषायी हुए, पांच से ज्यादा पूर्व मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री बेआबरू होकर चुनाव हारे और राजद व जदयू जैसी पार्टी अपना खाता भी नहीं खेल सकी। भाजपा और उनके नेताओं ने झारखंडी समाज से पूर्ण  बहुमत की सरकार बनाने की अपील की थी, जनता ने मोदी और षाह की अपील को माना और विकास के मसले पर सरकार बनाने के लिए जीत दिलाई। अब प्रदेश की राजनीति में सरकार बनाने के लिए कोई अगर मगर की राजनीति नहीं रह गई है। भाजपा के लोग मुख्यमंत्री किसे बनाऐंगे इसको लेकर पार्टी के भीतर चिंतन जारी है।

एक बात और है कि झारखंड में भाजपा को पिछली बार की तुलना में भारी सफलता जरूर मिली है, और भाजपा व आजसू को मिलाकर 42 सीटें आ गई है जो सरकार बनाने के लिए काफी है। लेकिन ऐसा लगता है कि आगे की राजनीति को देखते हुए उसे गठबंधन का सहारा लेना होगा। यानी राज्य को गठबंधन-राजनीति से पूरी तरह मुक्ति नहीं मिलेगी। इसका मतलब यह भी है कि पार्टी ने सही समय पर वक्त की नब्ज को पढ़ा और आजसू से गठबंधन किया। झारखंड में भाजपा को उतनी सीटें नहीं मिलीं जितनी लोकसभा चुनाव के आधार पर मिलनी चाहिए थीं। लोकसभा चुनाव में पड़े वोटों का विश्लेषण करने से भाजपा की 56 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त थी। पर इतनी सीटों की उम्मीद किसी ने नहीं की थी। लोकसभा और विधानसभा चुनावों के मसले, मुद्दे और प्रत्याशी अलग तरह के होते हैं। अलबत्ता पार्टी स्पष्ट बहुमत की उम्मीद कर रही थी, जो नहीं मिला। भाजपा को 37 सीटें मिली और आजसू को 5 सीटें।

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देश में सन 2000 में जो तीन नए राज्य बने उनमें झारखंड सबसे अस्थिर राज्य साबित हुआ। प्रदेश में पिछले 14 साल में नौ सरकारें बनीं और तीन बार राष्ट्रपति शासन लगा. मतदाता को यह अस्थिरता पसंद नहीं आई। इस बार राज्य ने स्थिरता का वरण किया है, जिसमें मोदी की हवा का हाथ रहा। हेमंत सोरेन के खिलाफ एंटी इनकम्बैंसी का खतरा था, पर ऐसा नहीं हुआ। उनकी सीटें पिछली बार के मुकाबले कुछ बढ़ी हैं। यानी पार्टी का जनाधार सुरक्षित है। नुकसान कांग्रेस और दूसरी पार्टियों को हुआ। खासतौर से बिहार में जनता दल-यू, कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल के गठबंधन ने जो उम्मीद जगाई थी, वह झारखंड में सफल नहीं हो पाया।

दूसरी ओर यह भी महत्वपूर्ण है कि राज्य में अब अपेक्षाकृत स्थिर सरकार बनेगी। संभव है कि भाजपा नेतृत्व को लेकर कोई नया प्रयोग करे। संभव है कि इस बार किसी गैर-आदिवासी को राज्य का नेतृत्व करने का मौका मिले। झारखंड विधानसभा चुनाव 2014 में कई पूर्व मुख्यमंत्रियों को पराजय का मुंह देखना पड़ा है। गौरतलब यह कि ये पूर्व मुख्यमंत्री अलग-अलग राजनीतिक दलों से सरोकार रखते हैं और इनकी राजनीतिक शैली भी अलग है। भाजपा के कद्दावर नेता व राज्य के तीन बार मुख्यमंत्री रहे अर्जुन मुंडा अपने परंपरागत खरसावां निर्वाचन क्षेत्र से बड़े अंतर से लगभग 22 हजार वोटों से हार गये हैं। वहीं, राज्य के पहले मुख्यमंत्री व झारखंड विकास मोर्चा के प्रमुख बाबूलाल मरांडी  दोनों सीटों से हार गए। वहीं, पूर्व मुख्यमंत्री व जय भारत पार्टी के अगुवा मधु कोड़ा मंझगांव सीट से चुनाव हार गए। हेमंत सोरेन भी इस बार दुमका सीट बचा नहीं सके। वे इसी सीट से जीतकर मुख्यमंत्री बने थे।

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तो क्या, इस बार का चुनाव परिणाम राजनेताओं के लिए ठोस संदेश लेकर आया है या फिर यह सब नरेंद्र मोदी लहर का असर है। झारखंड के चुनाव परिणाम को सिर्फ मोदी लहर तो कतई नहीं माना जा सकता है। अगर ऐसा होता तो भाजपा के दिग्गज नेता माने जाने वाले अर्जुन मुंडा को चुनाव में हार का मुंह नहीं देखना पड़ता। इस बार के चुनाव परिणाम में अपराजेय माने जाने वाले दूसरे नेताओं मसलन कांग्रेस के कद्दावर नेता राजेंद्र सिंह को बेरमो सीट से हारना पड़ा है। वहीं, कई नये लोग चुनाव जीतने में कामयाब हुए हैं। जैसे सुदेश महतो के गढ़ सिल्ली में झाविमो के अमित महतो 29 हजार वोटों से जीत गये। गूंज महोत्सव का आयोजन कर सिल्ली में हाइप्रोफाइल राजनीति करने वाले सुदेश महतो की गूंज पर फिलहाल ब्रेक लग गया है।

यह हाल तब है, जब उन्होंने नरेंद्र मोदी की छवि से प्रभावित होकर भाजपा से गठजोड़ किया और मात्र आठ सीटों पर चुनाव लड़ने की शर्त को कबूल कर लिया और सार्वजनिक रूप से यह घोषणा भी की कि वे मोदी के साथ हैं। पर मोदी मंत्र का जाप भी उनके काम नहीं आया। उन्हें चुनाव परिणाम के बाद अपनी राजनीति की समीक्षा करनी होगी। खुद के लिए निरपेक्ष भाव से यह आकलन करना होगा कि उनकी राजनीति कितनी जनसरोकारी है और वे लोगों के दिल में उतरने में कितना कामयाब रहे हैं?

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इस बार के चुनाव परिणाम में एक राष्ट्रीय पार्टी भाजपा व एक क्षेत्रीय दल झामुमो को छोड़ कर ज्यादातर राजनीतिक दलों की जमीन सिकुड़ी है। झामुमो ने पूरी ताकत से भाजपा का मुकाबला भी किया और अपने कुनबे को बचाने में सफल रहा। इस चुनाव ने हेमंत सारेन को झारखंड के एक मजबूत नेता के रूप में भी खड़ा किया है। यह चुनाव परिणाम सभी दलों व उसके नेताओं के लिए एक सबक है। वे भविष्य की झारखंड की राजनीति को अधिक सकारात्मक, जन सरोकारी और विकासवादी बनायें। दिलचस्प बात यह कि लगभग यही संदेश जम्मू कश्मीर चुनाव परिणाम का भी है।

लेखक अखिलेश अखिल वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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