पिछले 5 दिन से अपने मंत्रियों के साथ LG निवास पर धरने पर बैठे दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के आला अधिकारियों द्वारा काम न करने के आरोप बिल्कुल सही है। ये कहना है कि अखबार मालिकों की प्रताड़ना के शिकार कर्मियों का। ये कर्मी पिछले कुछ सालों से अपना हक पाने के लिए डीएलसी से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक अखबार मालिकों से लड़ रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी मजीठिया वेजबोर्ड की सिफारिशों के तहत वेतनमान और एरियर के रुप में प्रति कर्मी लाखों रुपये ना देने पड़े, इसके लिए देश के ज्यादातर नामचीन अखबारों ने अपने हजारों कर्मियों की नौकरी खा ली या फिर इतना प्रताड़ित किया कि उन्हें नौकरी छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा।
सुप्रीम कोर्ट ने WP(C)246/2011 के मामले में 7 फरवरी 2014 को मजीठिया वेजबोर्ड की सिफारिशों को सही मानते हुए अखबार मालिकों को अप्रैल 2014 से नए वेतनमान के अनुसार वेतन और एरियर के रुप में बने 11 नवंबर 2011 से लेकर मार्च 2018 तक की बकाया एरियर की राशि को एक साल के भीतर देने का आदेश दिया था। इस आदेश के बाद ही अखबार मालिकों ने अपने कर्मियों का दमनचक्र शुरु कर दिया। जिसके बाद पीड़ित कर्मियों ने अखबार मालिकों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में कई अवमानना याचिकाएं दायर की।
इसमें CONT. PET.(C) No. 411/2014 पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने हर राज्य से मजीठिया लागू करने के बारे में रिपोर्ट मांगी। जिस पर दिल्ली के श्रम विभाग के अधिकारियों द्वारा जागरण समेत सभी अखबारों में मजीठिया लागू होने की फर्जी रिपोर्ट बनाकर सुप्रीम कोर्ट को भेज दी गई। जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट में कर्मचारियों की तरफ से सुप्रीम कोर्ट की अवमानना का केस दायर करने वाले एडवोकेट और ifwj के सेक्रेटरी जनरल परमानन्द पांडे जी की अगुवाई में सभी अखबारों के पत्रकारों का एक प्रतिनिधिमंडल श्रम मंत्री गोपाल राय से मिला और इस गलत रिपोर्ट को बदलने की मांग की।
इसके बाद दिल्ली सरकार ने सही तथ्यों के आलोक में रिपोर्ट तैयार कर संशोधित रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की। संशोधित रिपोर्ट में जागरण, भास्कर जैसे देश के नामी अखबारों में मजीठिया वेजबोर्ड की सिफारिशें लागू नहीं किए जाने के जिक्र के साथ-साथ कर्मचारियों के उत्पीड़न का जिक्र भी था। ये सुप्रीम कोर्ट में किसी भी राज्य की तरफ से दायर सब से सही रिपोर्ट थी। बाकि राज्यों ने ज्यादातर सही तथ्यों को नजरअंदाज करते हुए अखबार मालिकों के पक्ष में रिपोर्ट दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान पीड़ितकर्मियों को डीएलसी में केस लगाने को कहा था, जिसके बाद हजारों अखबार कर्मियों ने देशभर में रिकवरी और प्रताड़ना को लेकर अपने केस दर्ज करवाए थे।
देशभर में इन केसों पर सुनवाई के दौरान अखबार कर्मियों को श्रम कार्यालयों में कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ा। ऐसी ही दिक्कतें दिल्ली के श्रम कार्यालयों में केस लगाने वाले अखबार कर्मियों के सामने भी आ रही थी। जिसके बाद पिछले साल दिल्ली में कार्यरत कर्मियों की तरफ से एक प्रतिनिधिमंडल मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से मिला था। उस मुलाकात के दौरान श्रम विभाग के आलाधिकारी भी वहीं उपस्थित थे। केजरीवाल ने पत्रकारों की शिकायतों को ध्यान से सुना और उनके शिकायती पत्रों को लेकर उनका निकारण करने के लिए अधिकारियों को कहा।
केजरीवाल के सामने ही पत्रकारों ने जब अधिकारियों को शिकायती पत्र देने की कोशिश की तो उन्होंने उनको लेने की जगह एक दूसरे पर टालने की कोशिश की। इस पर जब केजरीवाल को ध्यान दिलाया गया तो उन्होंने गुस्से में अधिकरियों से कहा कि हम यहां जनता की सेवा के लिए बैठे हैं या…। जिसके बाद श्रम कार्यालयों में केसों को जल्द निपटाने की प्रक्रिया शुरु हुई।
अब आपको सोचना है कि दिल्ली सरकार का अधिकारियोँ के प्रति ये रोष जायज है या नहीं…
आप चाहें तो आरटीआई लगाकर जान सकते हैं कि दिल्ली स्थित अखबारों पर श्रम कार्यालयों में कितने केस चल रहे हैं और वे कब दायर किए गए और कितने समय के अंदर उनका निपटान किया गया और अभी तक कितने पेंडिंग है। विशेष तौर पर अखबारों के 95 फीसदी से अधिक कार्यालय नई दिल्ली में पड़ते हैं इसलिए नई दिल्ली स्थित केजी मार्ग के श्रम कार्यालय की स्थिति क्या है, यह पता कर सकते हैं।
इसके अलावा दिल्ली ही ऐसा पहला राज्य है जहां पर वेजबोर्ड की सिफारिशों को लागू ना करने वाले अखबार मालिकों पर अधिकतम दंड लगाने के साथ-साथ उन्हें जेल भेजने का भी प्रवाधान किया गया है। अखबार मालिकों के खिलाफ आज तक इस तरह का कड़ा कानून लाने की हिम्मत किसी अन्य राज्य ने नहीं दिखाई।
इस कानून को 2 साल पहले दिल्ली विधानसभा में पारित किया गया था और इसे अमलीजामा पहनाने के लिए LG के पास भेज दिया गया था। जिसके बाद इसमें कई अड़ंगे अटकाए गए। इन अड़ंगो की वजह से कानून पर इस साल मोहर लगी। इसके बाद ही दिल्ली सरकार इसकी अधिसूचना जारी कर सकी।