नियम अद्भुत होते हैं. नियमों को तोड़ना सरल नहीं होता. उनके विरुद्ध किसी काम के लिए अतिरिक्त ऊर्जा की जरूरत होती है. उदाहरण के लिए गुरुत्वाकर्षण बल को ही लीजिए. पृथ्वी की सीमा में आसमान से कोई चीज धरती पर ही गिरेगी. आइजक न्यूटन ने इसका एक फॉर्मूला भी बताया है. उस फॉर्मूले पर चर्चा करना हमारा मकसद नहीं है.
हमारा मकसद सिर्फ यह जानना है कि गुरुत्वाकर्षण बल की वजह से पृथ्वी की सीमा में कोई भी चीज आकाश से धरती पर गिरती है. इसलिए अगर किसी को उड़ना है तो उसके लिए कम से कम उतनी ऊर्जा की जरूरत होगी जो पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण बल के असर को खत्म कर दे. लिफ्ट और थ्रस्ट के इसी सिद्धांत के तहत परिंदे उड़ते हैं. हमारे बनाए हुए हवाई जहाज और रॉकेट सभी इसी आधार पर काम करते हैं. इसी तरह समूचे ब्रम्हांड की रचना और उसका संचालन नियमों के आधार पर होता है.
बाजार भी एक जिंदा तंत्र है. उसके अपने नियम हैं. कुछ नियम हमने तैयार किए हैं और कुछ नियम बाजार खुद तय करता है. कारोबार से जुड़े लोग अच्छी तरह जानते हैं कि बाजार में रह कर बाजार के नियमों की अनदेखी नहीं की जा सकती. जो ऐसा करेगा उसकी बर्बादी तय है. चाहे वह कारोबारी हो या फिर कंपनी. एनरॉन, नोकिया, रिलायंस पॉवर, टाटा डोकोमो, सहारा, जेपी, यूनिटेक, आम्रपाली … बस कुछ नाम हैं. इनके जैसे अनगिनत उदाहरण मिलेंगे जिन्होंने बाजार के नियम तोड़े और बर्बाद हो गए. ऐसे में अगर किसी को बाजार में नियमों के विरुद्ध टिके रहना है तो उसके पास कोई ऐसी शक्ति होनी चाहिए जो उसे लगातार जरूरी अतिरिक्त ऊर्जा मुहैया कराती रहे.
यह अनिवार्य शर्त है और आप इसे जैसे ही समझेंगे एनडीटीवी के छद्म और डॉ रॉय के पाखंड से पर्दा उठ जाएगा. इनकी “राजनीति” पूरी तरह स्पष्ट होगी. ऐसी “राजनीति” जिसमें विचारों की अहमियत तभी तक है जब तक उनसे कुछ “खास व्यक्तियों” का हित सधता है. उन व्यक्तियों का जिनके साथ ये खड़े हैं या जिन्होंने इन्हें खड़ा किया है. मतलब ये “सत्ता के खेल” में “सत्ता के लिए” शामिल हैं. ये सत्ता के भागीदार और हिस्सेदार हैं. इस लिहाज से ये शासकों के एक ताकतवर धड़े का प्रतिनिधित्व करते हैं. जनता का नहीं. ये जनता का उपयोग करते हैं. जनता के सहारे शासक वर्ग के ही दूसरे धड़े के खिलाफ मुहिम चलाते हैं.
यह बेहद महीन खेल है. इसे समझाने के लिए मैं वोल्कर प्रकरण, राडिया कांड से लेकर ढेरों उदारण दे सकता हूं. लेकिन मैं आपको सबसे सीधा और सरल उदाहरण देता हूं. गुजरात और बिहार का उदाहरण. इस पर बहुत से लोगों ने बहुत बार चर्चा की है. कुछ ने लिखा है कि जब एनडीटीवी के रिपोर्टर विकसित गुजरात में जाते हैं तो उन्हें पिछड़ापन दिखाई देता है और 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान उन्हें वहां साइकिल पर लड़कियां नजर आती थीं. मतलब विकसित गुजरात में अंधेरा दिखता है और बदहाल बिहार में विकास की बयार नजर आती है.
ऐसा लिखने वाले ज्यादातर लोग इसके लिए उन रिपोर्टरों को जिम्मेदार ठहराते हैं. लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता. बतौर रिपोर्टर अगर किसी को विकसित गुजरात में पिछड़ापन और बदहाल बिहार में उम्मीद की किरण दिखाई देती है तो यह उसके पत्रकार होने की निशानी है. दोनों ही अवसरों पर वह आम हो चुकी अवधारणा को चुनौती दे रहा होता है. उस विरोधाभास को सामने रख रहा होता है जिसे नजरअंदाज करने पर सुधार की सारी गुंजाइश खत्म हो जाएगी. वह आगे बढ़ चुके गुजरात से कह रहा होता है कि अपने विकास पर इतना मत इतराओ क्योंकि तुम्हारा ही एक वर्ग भूख से बिलख रहा है, डर के साए में जी रहा है और उसके हिस्से दर्द और बेबसी है. दूसरी ओर वह पिछड़ चुके बिहार को बता रहा होता है कि घोर निराशा के माहौल में भी आशा की किरण जिंदा है. बदलाव की उम्मीद जिंदा है. स्थापित मान्यताओं को चुनौती देना पत्रकार का धर्म होता है और उसे यही करना भी चाहिए.
लेकिन यहां एक पेंच है. तमाम अन्य संस्थानों की ही तरह एनडीटीवी में भी तय दायरे से बाहर जाकर स्थापित मान्यताओं को चुनौती देना का अधिकार किसी पत्रकार को नहीं है. वहां मालिक की सहमति के बगैर सत्ता तंत्र के खिलाफ या शासकों के किसी धड़े के खिलाफ कोई मुहिम नहीं चला सकता. अगर पत्रकार कोई मुहिम चला रहा है या फिर किसी शातिर नेता की तरह भाषण दे रहा है तो वह मालिकों के इशारे पर कर रहा होता है. उनका हित पोषित कर रहा होता है. वह पत्रकार जिस दिन मालिकों के हितों के विरुद्ध जाने की कोशिश करेगा उसे बाहर कर दिया जाएगा. बरखा दत्त के साथ यही हुआ, वो बाहर कर दी गईं. इसलिए एनडीटीवी में अतीत में जो कुछ हुआ और इस वक्त जो कुछ हो रहा है… वह मालिकों के इशारे पर हो रहा है. उसकी पूरी जिम्मेदारी और जवाबदेही सिर्फ उसके मालिकों की है. डॉ प्रणय रॉय और राधिका रॉय की है.
ये उनके निजी हित हैं जिनकी वजह से वह किसी पत्रकार को जब गुजरात भेजते हैं तो इस संदेश के साथ भेजते हैं कि वहां अंधेरा दिखाना है. और 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान जब उन्होंने अपने पत्रकारों को बिहार भेजा तो इस संदेश के साथ भेजा कि वहां नीतीश को विकास पुरुष के तौर पर पेश करना है. इसका मकसद सीधा था. वह 2019 से पहले नरेंद्र मोदी का चैलेंजर खड़ा कर रहे थे. ऐसा करके वो एक तीर से दो निशाने साध रहे थे. नीतीश कुमार को बड़ा बनाने के क्रम में वो नरेंद्र मोदी को छोटा कर रहे थे. ये और बात है कि आगे चल कर नीतीश कुमार ने ही पाला बदल लिया. इससे उनकी उम्मीदों को झटका लगा है. यकीन मानिए अगर 2019 तक नीतीश और मोदी एक रहे और एनडीटीवी के उन पत्रकारों को फिर से बिहार जाना पड़ा तो उन्हें साइकिल पर लड़कियां नजर नहीं आएंगी. पिछड़ापन ही दिखेगा. गरीबी ही दिखेगी. सत्ता में बदलाव की जरूरत महसूस होगी.
एनडीटीवी का चश्मा ही अजीब है. यहां सबकुछ शासकों के उस धड़े के हितों के हिसाब से तय होता है, जिसका प्रतिनिधित्व डॉ रॉय और मिसेज रॉय करते हैं. इसी आधार पर अलग-अलग छद्म रचे जाते हैं. शासकों के इस खास धड़े की रक्षा के लिए छद्म रचे जाते हैं और यह धड़ा उन्हें वो अतिरिक्त ऊर्जा मुहैया कराता है जिससे वह बाजार में बाजार के नियमों की अनदेखी करके भी टिके हुए हैं. दरअसल डॉ रॉय और मिसेज रॉय ने एनडीटीवी को शासकों के उसी धड़े के “प्रचार का औजार” के तौर पर विकसित किया है, जिसमें वो खुद भी शामिल हैं.
…जारी…
लेखक समरेंद्र सिंह एनडीटीवी न्यूज चैनल में लंबे समय तक काम करने के बाद अब अपना उद्यम करते हुए फेसबुक पर बेबाक लेखन करते हैं.
इसके पहले वाले पार्ट पढ़ें….
पत्रकार से पॉवर ब्रोकर बने डॉ प्रणय रॉय का पाखंड और एनडीटीवी का पतन – भाग (3)
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पत्रकार से पॉवर ब्रोकर बने डॉ प्रणय रॉय का पाखंड और एनडीटीवी का पतन – भाग (2)
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Man Singh Tosaria
October 29, 2018 at 7:04 pm
It’s biased opinion.
Alok jha
October 30, 2018 at 2:49 am
thanks for revealing truth