भूकंप के बाद तबाह हुए नेपाल में भारत ने जो सक्रियता दिखाई है, वह तारीफ के काबिल है. लेकिन अगर अपने देश में देखें तो किसान खुदकुशी का मामला किसी तबाही से कम नहीं है. हर रोज जाने कितने किसान मर रहे हैं. लेकिन केंद्र और राज्य सरकारें पूरी बेशर्मी से इन मौतों को नकार रही हैं. ये सरकारें साफ-साफ किसान विरोधी दिख रही हैं. जिस देश की आबादी की बहुत बड़ी संख्या खेती पर निर्भर हो, उस देश में जब खेती तबाह हो जाए और किसान कर्ज के बोझ तले दबकर आत्महत्या कर रहा हो तो इससे बड़ा संकट क्या होगा.
यह राष्ट्रीय संकट है. यह आपातकाल की स्थिति है. किसानों तक तुरंत राहत पहुंचाई जानी चाहिए. कर्ज माफ किया जाना चाहिए. लेकिन सरकारी तंत्र यानि नेता अफसर मीडिया सब इस कदर चुप्पी साधे हैं जैसे कुछ हो ही न रहा हो. सारा का सारा एजेंडा अब शहर केंद्रित हो गया है. देश की बहुत बड़ी आबादी मरने के लिए छोड़ दी गई है. यूपी हो या राजस्थान, महाराष्ट्र हो या मध्य प्रदेश. हर जगह किसान तबाह है. आत्महत्याएं लगातार जारी हैं. जयपुर से खबर है कि राजस्थान में फसल खराबे के कारण सदमें में आए किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला थम नहीं रहा है. रविवार को अजमेर की ब्यावर तहसील के फतेहगढ में एक और किसान महेन्द्र सिंह ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली. राजस्थान में बीते सात दिन में यह किसी किसान की आत्महत्या का चौथा मामला है.
इसी सप्ताह दिल्ली में आम आदमी पार्टी की रैली में गजेन्द्र सिंह के अलावा और भरतपुर व अलवर में एक-एक किसान की आत्महत्या की बात सामने आ चुकी है. महेन्द्र सिंह के पास छह बीघा जमीन थी और उसकी काफी फसल खराब हो गई थी. उसे उम्मीद थी कि सरकार कम से कम 40-50 प्रतिशत तक मुआवजा देगी, लेकिन गिरदावरी रिपोर्ट में उसका खराबा सिर्फ 30 प्रतिशत बताया गया. ऐसे में उसे मुआवजा मिलने की उम्मीद ही खत्म हो गई, क्योंकि 33 प्रतिशत से कम खराबे वालों को मुआवजा देने का प्रावधान नहीं है.
उसने पटवारी से मिलकर इसका विरोध भी किया था, लेकिन कोई फायदा नहीं निकला. गांववालों के अनुसार महेन्द्र सिंह पर कर्जा भी था और खराबे के कारण वह पूरी तरह बर्बादी के हालात में पहु्च गया था. रविवार को गांव में कोई धार्मिक उत्सव था. पूरा परिवार इस उत्सव में गया था, लेकिन धर्मेन्द्र घर पर ही रह गया था. इसी दौरान उसने फंदा लगाकर आत्महत्या कर ली. पुलिस मामले की जांच कर रही है.
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