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पत्रकार से पॉवर ब्रोकर बने डॉ प्रणय रॉय का पाखंड और एनडीटीवी का पतन – भाग (3)

पार्ट 2 से आगे… राधिका रॉय और चैनल के मालिकों का तरीका जितना ओछा था, दिबांग का जवाब उतना ही संतुलित था. उन्होंने शब्दों का चयन बहुत सोच-समझ कर किया था. मालिकों के मान के साथ अपने सम्मान की रक्षा भी की थी. जब संस्थान के मालिक ओछेपन पर उतर आएं तो फिर संपादक/पत्रकारों के पास विकल्प थोड़े रह जाते हैं. दिबांग के ई-मेल के बाद मेल का खेल बंद हो गया, मगर एक अजीब सा माहौल बन गया. ऊपर सबकुछ शांत था और नीचे जैसे कोई ज्वालामुखी धधक रहा हो. उसकी आंच सतह पर महसूस की जा सकती थी. बड़ा घुटन भरा माहौल था. सबके चेहरों से मुखौटे उतर चुके थे.

इतना स्पष्ट था कि सबने मिल कर दिबांग को घेर लिया है. विनोद दुआ और पंकज पचौरी इसके सूत्रधार थे और उन्होंने दिबांग को हटाने की मुहिम छेड़ दी. बीते चार साल से दमित आकांक्षाएं उबाल मारने लगीं. विनोद दुआ बहुत महीन खिलाड़ी हैं. कद में जितने छोटे हैं, अहंकार उतना ही बड़ा है. वो किसी जवाबदेही के बगैर पर्दे के पीछे से कमान अपने हाथ में रखना चाहते थे. दिबांग के रहते यह संभव नहीं था. इसलिए काफी समय से दिबांग को हटाने की कोशिश में जुटे थे. पंकज पचौरी को उम्मीद थी कि वह संपादक बना दिए जाएंगे. जाह्नवी प्रकरण के बाद यह लगने लगा था कि कुछ दिन में बड़ा बदलाव जरूर होगा. इस अहसास के साथ बहुतेरे मौसम वैज्ञानिकों ने धीमे-धीमे दिबांग का साथ छोड़ना शुरू कर दिया था.

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वो घड़ी भी जल्दी ही आ गई. इस प्रकरण के तीन महीने बाद अगस्त 2007 के पहले हफ्ते में दिबांग को हटाने का फैसला ले लिया गया. सभी कर्मचारियों को बुला कर इस फैसले का ऐलान हुआ. एनडीटीवी इंडिया में सत्ता बदल गई थी. एक बड़े खेमे में जश्न का माहौल था. कुछ लोगों को छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर उस जश्न में शरीक थे. स्टूडियो से बाहर आने के बाद दिबांग सीधे अपने केबिन में पहुंचे. जिस कमरे में हमेशा लोगों को जमावड़ा लगा रहता था, वहां दो-तीन लोगों को छोड़ कर उनके पास कोई नहीं था. थोड़ी देर बाद मैं उनके केबिन में दाखिल हुआ. मैंने कहा कि “बॉस आप इस्तीफा दो और मैं भी देता हूं. इतना अपमानित होने से अच्छा है कि यहां से चल लिया जाए. कोई न कोई दूसरा काम भी मिल ही जाएगा’. लेकिन दिबांग ने साफ कह दिया कि “कोई इस्तीफा नहीं देगा. ना मैं और ना ही कोई और. तुम लोगों को पहले से ज्यादा मेहनत करनी है. किसी को भी यह कहने का अवसर नहीं मिलना चाहिए कि दिबांग संपादक नहीं है तो तुमने काम बंद कर दिया है.”

दिबांग ने इस्तीफा नहीं दिया. शायद इसलिए कि उन्होंने जीवन के उतार-चढ़ाव मुझसे ज्यादा देखे होंगे. शायद इसलिए भी कि बिना किसी व्यवस्था के नौकरी छोड़ देना समझदारी नहीं होती. एनडीटीवी में बने रहने की असली वजह क्या थी, समझदारी, कमजोरी या फिर कुछ और वह खुद दिबांग ही बता सकते हैं. लेकिन सच यही है कि ना उन्होंने इस्तीफा दिया और ना ही किसी और ने. मैंने भी इस्तीफा नहीं दिया. लेकिन दिबांग के हटने के बाद दबाव बढ़ गया था. उसी दौरान एनडीटीवी इंडिया के आउटपुट हेड नरेंद्र पाल सिंह (एनपी) ने पुण्य प्रसून बाजपेयी के साथ सहारा समय ज्वाइन कर लिया.

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जब सुब्रत रॉय के साथ बातचीत के लिए पुण्य, एनपी और संजय बरागटा रात की ट्रेन से लखनऊ जा रहे थे तो मैं ही एनपी को स्टेशन छोड़ने गया था. एनपी चाहते थे कि उनकी डील होने के बाद मैं भी उनके साथ सहारा चलूं. मेरा भी मन अब एनडीटीवी में काम करने का नहीं था. उन तीनों ने कुछ समय बाद सहारा की कमान संभाल ही. उसके बाद एनपी के साथ मैं पुण्य से नोएडा के पीवीआर मॉल में मिला. मिलने के बाद मैंने वहां जाने का इरादा बदल दिया. आत्मवंचना में लिप्त किसी व्यक्ति के साथ कुछ पल बिताना भी यातनादायक होता है. ऐसा व्यक्ति कभी अच्छी टीम नहीं बना सकता. मेरा अंदेशा ठीक निकला कुछ ही दिन में अपने अहंकार के कारण पुण्य प्रसून बाजपेयी को सहारा से निकाल दिया गया. उनके अहंकार की कीमत एनपी समेत कुछ और साथियों ने चुकाई. (इस प्रकरण पर फिर कभी चर्चा होगी)

तनाव के उन्हीं दिनों में मुझे पता चला कि दिबांग को संपादक पद से हटाए जाने के बाद विनोद दुआ मुझे नौकरी से निकालने का दबाव बना रहे थे, लेकिन संजय अहिरवाल ने हस्तक्षेप किया और मेरी नौकरी बच गई. संजय बेहतरीन इंसान हैं. साथ ही लोकतांत्रिक बॉस भी. आप उनसे नाराज हैं तो अपनी नाराजगी उनके सामने जाहिर कर सकते हैं और बावजूद इसके उनके मन में आपके प्रति कोई मैल नहीं होगा. संपादक के पद से दिबांग के हटने के बाद एनडीटीवी में मेरे बने रहने की वजह संजय ही थे. एनपी जब सहारा गए तो संजय ने मुझसे पूछा था कि तुम्हारे भी सहारा जाने की चर्चा चल रही है, ऐसा है तो बता दो. मैंने कहा कि “जाने की बात थी, लेकिन मैंने एनपी को मना कर दिया है. अगर कहीं और जाने का फैसला लूंगा तो सबसे पहले आपको खबर करूंगा.”

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मनीष कुमार भी दिल से अच्छे आदमी हैं. लेकिन तब कई पॉवर सेंटर बन गए थे. कोई रात में शराब के नशे में फोन करके ड्यूटी पर तैनात पत्रकारों को नौकरी खा जाने की धमकी देता, तो कोई सुबह फ्लोर पर आकर धमका जाता. मैं उस दबाव और उन हालात का ब्यौरा फिर कभी दूंगा. मेरा मानना है कि किसी भी नौकरी में उतार-चढ़ाव लगा रहता है. जीवन उतार-चढ़ाव का दूसरा नाम है. इसलिए कठिन परिस्थितियों को भी सहने की आदत होनी चाहिए. मगर काम का दबाव एक बात है और व्यक्तियों की कुंठा का शिकार होना अलग बात है. और जब अचानक एक साथ कई कुंठित लोग सिर पर मंडराने लगें तो फिर उनकी सामूहिक कुंठा कितना दबाव बनाती है इसका अंदाजा लगाना आसान नहीं है. विनोद दुआ और पंकज पचौरी की अगुवाई में उन लोगों ने संजय और मनीष को भी कभी ठीक से टीम लीड नहीं करने दी. लगता है मैं कुछ ज्यादा ही भटक गया. इसलिए वापस लौटते हैं मूल मुद्दे पर. एनडीटीवी की संपादकीय नीति पर और उस सवाल पर कि क्या एक जैसे दो मामलों में किसी चैनल की दो संपादकीय नीति हो सकती है?

एनडीटीवी में “खबरों के खेल” और नीतियों के दोहरेपन को समझने के लिए आपको 20 अप्रैल, 2007 की उस घटना से तीन साल और पीछे चलना होगा. तब जुलाई 2004 में प्रीति जैन नाम की मॉडल-अभिनेत्री ने मुधर भंडारकर पर बलात्कार का आरोप लगाया था. मधुर भंडारकर बॉलीवुड के बड़े निर्देशक थे और उन्हें नेशनल अवार्ड मिल चुका था. वो चर्चित थे और कामयाब फिल्में दे चुके थे, इसलिए प्रीति जैन के आरोप के बाद एनडीटीवी ने अपने चैनलों के जरिए भंडारकर के खिलाफ मुहिम छेड़ दी. मुकाबला, हम लोग, खबरों की खबर, वी द पीपल से लेकर सभी तरह के शो हुए. आधे-आधे और एक-एक घंटे के स्पेशल/शो बने. कास्टिंग काउच से लेकर बॉलीवुड में स्त्रियों की स्थिति पर जोरदार मुहिम चलाई गई.

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खबर के तमाम पहलुओं पर चर्चा हुई. इतना ही नहीं जब भी इस केस में कोई नया मोड़ आता तब एनडीटीवी पर खबरें चलाई जातीं और विशेष बनाए जाते. फिर ऐसा क्या हुआ कि प्रीति जैन और मधुर भंडारकर मामले में एनडीटीवी की जो नैतिकता सो रही थी, वह जाह्नवी और अभिषेक बच्चन के मामले में अचानक जाग उठी? नैतिकता का यह प्रश्न 2004 और 2005 में क्यों नहीं उठा? आरोप तो मधुर भंडारकर पर भी उसी तरह के थे. अगर नैतिकता का यह सवाल उसी समय उठ गया होता तो हम सभी उलझन में नहीं होते. यह नीतिगत फैसला भी उसी समय हो गया होता कि मर्द और स्त्री के संबंधों से जुड़ी खबरों पर हम खुद को सूचना देने तक सीमित रखेंगे. किसी भी व्यक्ति पर जब यौन शोषण का आरोप लगेगा तो हम ज्यादा तवज्जो नहीं देंगे.

मैं यह मानता हूं कि व्यक्ति, संस्थान, समाज, देश और दुनिया की नैतिकता भी समय के साथ बदलती रहती है. एजीबीटीक्यू और व्यभिचार मामलों में सुप्रीम कोर्ट के फैसले देश की नैतिक सोच में आए बदलाव की ओर इशारा करते हैं. इस आधार पर यह मान लेते हैं कि मिस्टर एंड मिसेज रॉय को तब लगा था कि प्रीति जैन और मधुर भंडारकर के मामले को बड़ा करके चलना नैतिक दायित्व है और बाद में उन्हें यह अहसास हुआ कि ऐसे मामलों को ज्यादा तूल नहीं देना चाहिए. ऐसा अहसास होने में कुछ गलत नहीं है. लेकिन यहां यह प्रश्न जरूर उठेगा कि यह बदला हुआ नजरिया संपादक तक प्रेषित क्यों नहीं किया गया?

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यह भी मान लेते हैं कि कोई ऐसी परिस्थिति नहीं आयी थी इसलिए मालिकान ने सोच में आए इस बदलाव को दिबांग के सामने जाहिर नहीं किया, लेकिन उस दिन जब जाह्नवी की खबर सभी के ई-मेल बॉक्स में आई थी, तभी बता देते कि यह खबर नहीं चलानी है. आखिर 7-8 घंटे इंतजार करने के बाद नैतिकता का प्रश्न क्यों उठाया गया और उसे आधार बना कर दिबांग को संपादक पद से क्यों हटाया गया? यह समझने के लिए आपको डॉ प्रणय रॉय का बिजनेस मॉडल समझना होगा. यह समझना होगा कि बाजार में होने के बावजूद बाजार के नियमों को नकारते हुए कोई शख्स इतने लंबे समय तक घाटे में चार-चार चैनल कैसे चला सकता है? यह भी समझना होगा कि दिबांग की जगह पर संजय अहिरवाल और मनीष कुमार को कार्यकारी संपादक तो बना दिया गया लेकिन महज एक साल बाद दोनों को हटा कर यह जिम्मेदारी बांग्ला मूल के अंग्रेजी पत्रकार ऑनिंद्यो चक्रवर्ती को क्यों सौंप दी गई?

(क्रमश:)

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लेखक समरेंद्र सिंह एनडीटीवी न्यूज चैनल में लंबे समय तक काम करने के बाद अब अपना उद्यम करते हुए फेसबुक पर बेबाक लेखन करते हैं.

इसके पहले के दो पार्ट पढ़ें….

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पत्रकार से पॉवर ब्रोकर बने डॉ प्रणय रॉय का पाखंड और एनडीटीवी का पतन – भाग (1)

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पत्रकार से पॉवर ब्रोकर बने डॉ प्रणय रॉय का पाखंड और एनडीटीवी का पतन – भाग (2)

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