उत्तराखंड में राजनीतिक हालात लगातार करवट बदल रहें हैं। पिछले दिनों की सियासी हलचल या कहें कि नाटक सबने देखा। पहले अपनी ही सरकार से विधायकों की बगावत, फिर राष्ट्रपति शासन फिर मामला कोर्ट में जाना, खरीद फरोख्त की सीडी का सामने आना और अन्त में कोर्ट के जरिये शक्ति परीक्षण में सत्ता का बरकरार रहना। इन सब बातों से उत्तराखंड की छवि खराब होने के साथ ही गर्त में जाती राजनीति की भी पोल खुली है। नेताओं की वफादारी कब बदल जाये वो खुद नहीं जानते। नेताओँ के ये नही भूलना चाहिये कि जनता सब देख रही है। वर्ष 2000 में उत्तराखंड के अस्तित्व में आने के बाद से आज 16 सालों के बाद भी उत्तराखंड में व्यापक तौर पर क्या बदला ये कहना मुश्किल है।
उत्तर प्रदेश के साथ रहने के दौरान जिन मुद्दों और सपनों के साथ उत्तराखंड की परिकल्पना की गई थी आज उन टूटे सपनों के साथ युवा वर्ग मायूस हैं, देव भूमी की मातृ शक्ति उदास है और उत्तराखंड आन्दोलनकारी पल पल बिखरते सपनों और गर्त में जाती सियासत को देखकर ठगा सा महसूस कर रहे हैं। उत्तराखंड इतने सालों बाद आज भी क्या उत्तरप्रदेश की छाया कापी बनकर नही रह गया है। देव भूमी उत्तराखंड में जिस शान्ति और साम्प्रदायिक सोहार्द की मिसाल पूरे देश में दी जाती थी आज उसी राज्य में अपनी अपनी राजनैतिक रोटियां सेकने के लिये आबो हवा में ज़हर घोलने की कोशिश हो रही है।
पिछले दिनों हरिद्वार और रुड़की में हुई घटनाए इसका जीता जागता उदाहरण हैं। उत्तराखंड से लगातार युवाओँ का पलायन जारी है। जहां देश के अन्य राज्यों की आबादी तेज़ी से बढ़ रही है वहीं उत्तराखंड में हालात इससे उलट हैं । स्थानीय लोग बेहतर शिक्षा और रोज़गार के लिये राज्य से बाहर का रुख कर रहें हैं। क्या किसी दल के पास उत्तराखंड के समेकित विकास का रोड मैप है? उत्तराखंड की जलवायू और प्राकृतिक सुन्दरता की वजह से माफियाओं की नज़र इस राज्य पर जरुर है। बड़े पैमाने पर जमीनों की खरीद फरोख्त का खेल चल रहा है। और, आज सबसे ज्यादा मुनाफे का धंधा यही नजर आ रहा है। दुर्भाग्य की बात है कि इस धंधें में सरकार, प्रशासन और माफियाओं का ऐसा गठजोड़ शामिल हैं जिसे राज्य के हितों की कोई चिन्ता नही है। सरकारें खुद प्रापर्टी डीलर का काम कर रही हैं। अल्मोड़ा जिले के नानीसार में जमीन अधिग्रहण को लेकर स्थानीय लोगों के विरोध के बावजूद सरकार की हठधर्मिता से ये साफ है।
साल दर साल चुनावों, चाहे वो पंचायत का हो, नगर निकायों का हो य़ा फिर विधानसभा का हो वास्तव में लोकतंत्र के लिये जरूरी है लेकिन इन चुनावों से क्या हमने छोटे से राज्य में जनता को बांटने का काम नहीं किया? गांव गांव में यहां तक कि एक ही परिवार में राजनैतिक विरोध किस हद तक बढ़ गया है। क्या इसे सिर्फ जनता के पैसों की बर्बादी नहीं कही जायेगी। फायदा सिर्फ सत्ता के दलालों का हो रहा है। जनता को क्या फायदा हो रहा है।
स्वास्थ का हाल ऐसा हैं कि पहाड़ की दूरदराज की जनता समय पर इलाज न मिलने के कारण रास्तों पर दम तोड़ने पर मजबूर हैं या फिर मरीज़ों को हल्द्वानी, बरेली, दिल्ली या लखनऊ रिफर किया जा रहा है। शिक्षा की स्थिति भी बहुत अच्छी नही कहीं जा सकती। शिक्षा के क्षेत्र में जो संस्थान खुले भी हैं क्या उनमें शिक्षा से ज्यादा ज़ोर मनी मेकिंग पर नहीं है। उत्तराखंड के सरोकारों से शायद ही इनका कोई वास्ता हो। पिछले 15 सालों में उत्तराखंड में एक ऐसा स्थानीय माफिया तंत्र विकसित हुआ है जिसने सत्ता के साथ मिलकर अकूत पैसा बनाने का काम किया है। क्या किसी राज्य में विकास का अक्स और भविष्य की दशा और दिशा देखने के लिये गुज़रा हुए 16 सालों का वक्त कुछ कम तो नहीं।
Nadeem Ansari
Sr. Anchor/Correspondent
DD News, New Delhi
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Diwan Singh Bisht
June 23, 2016 at 10:27 am
Nadeem Jee, AApne Uttrakhand ke bare mein sahi likha hai…. aaj sab wahi ho raha hai.. jo aapne likha hai.
Regards
Diwan Singh Bisht
Editor