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उत्तराखंड

सामाजिक स्वीकृति पाने के लिए कई वर्षों तक विनोद बड़थ्वाल और सूर्यकांत धस्माना पैसे देकर सार्वजनिक कार्यक्रमों के मुख्य अतिथि बनते थे!

Rajiv Nayan Bahuguna : शायद 1994 के आसपास कभी, मैं जयपुर से अपने अख़बार की नौकरी से कुछ दिन की छुट्टी पर घर आया था। देहरादून घण्टा घर के चौराहे पर मैंने देखा कि हथियार बन्द पुलिस वाले भले घर के से दिखने वाले दो युवकों को घेर कर ले गए। मैंने साथ खड़े अग्रज मित्र नवीन नौटियाल का आह्वान किया कि हमे हस्तक्षेप करना चाहिए। उत्तरखण्ड आंदोलन के दिन थे। मुझे लगा कि पुलिस इन दोनों को प्रताड़ित करने थाने ले जा रही है।

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Rajiv Nayan Bahuguna : शायद 1994 के आसपास कभी, मैं जयपुर से अपने अख़बार की नौकरी से कुछ दिन की छुट्टी पर घर आया था। देहरादून घण्टा घर के चौराहे पर मैंने देखा कि हथियार बन्द पुलिस वाले भले घर के से दिखने वाले दो युवकों को घेर कर ले गए। मैंने साथ खड़े अग्रज मित्र नवीन नौटियाल का आह्वान किया कि हमे हस्तक्षेप करना चाहिए। उत्तरखण्ड आंदोलन के दिन थे। मुझे लगा कि पुलिस इन दोनों को प्रताड़ित करने थाने ले जा रही है।

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नवीन नौटियाल ने बताया कि ये दोनों विनोद बड़थ्वाल और सूर्यकांत धस्माना हैं, और पुलिस इन्हें प्रताड़ित करने नहीं ले जा रही, बल्कि इनकी सुरक्षा में तैनात है। मैंने उसी दिन पहली बार बड़थ्वाल को देखा, और उत्तरखण्ड में किसी नागरिक का ऐसा सुरक्षा तामझाम भी। बाद में देहरादून आया तो उनसे कई मुलाक़ातें हुयी। वह शादी व्याह आदि समारोहों में अपने गनर्स के साथ चहकते रहते थे। गढ़वाली समुदाय के लोग भी बरात की शोभा बढ़ाने को बन्दूक धारियों के कारण उन्हें बुलाते थे, और वह जाते थे।

कई वर्षों तक धस्माना और बड़थ्वाल पैसे देकर सार्वजनिक कार्यक्रमों के मुख्य अतिथि अथवा अध्यक्ष बनते थे क्योंकि उन्हें सामाजिक स्वीकृति चाहिए थी। उनसे धन लेकर उन्हें मुख्य अतिथि बनाने वाले ही बाद में उनकी निंदा करते थे। बाद में कोई फायदा न होते देख बड़थ्वाल ने ऐसे कार्यक्रमों में जाना छोड़ दिया। मूर्धन्य पत्रकार कुंवर प्रसून उनकी उपस्थिति उत्तराखण्ड की विधान सभा में आवश्यक मानते थे। लेकिन यह हो न सका। निसन्देह विनोद बड़थ्वाल एक निष्ठावान, दृढ और विनम्र राज नेता थे।

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Pawan Lalchand : स्वर्गीय विनोद बडथ्वाल जी एक मिलनसार नेता थे जिनका जाना दुखी कर गया…ऐसे समय जब सूबे की सियासत में पालाबदल पर ज़ेरे-बहस छिड़ी है तब विनोद बड़थ्वाल जैसे नेता भले पहाड़ पर अपना दल न चढ़ा पाये हों लेकिन मरते दम सपाई बने रहकर दलीय निष्ठा की मिसाल पेश जरूर कर गये…ज्यादा बड़ा न सही पहाड़ की सियासत को ये सबक़ तो उनसे सीखना ही चाहिये…विनम्र श्रद्धांजलि

Mukesh Yadav : साल ठीक से याद नहीं, शायद 1993 की बात रही होगी. तब मुलायम सिंह को मुल्ला मुलायम का खिताब मिल चुका था. गागलहेड़ी (सहारनपुर) में सपा सुप्रीमो की रैली थी. मुलायम सिंह की मौजूदगी में एक नौजवान मंच से दहाड़ रहा था. तब मैंने पहली बार विनोद बड़थ्वाल को देखा था. आखिरी बार मैंने उनको करीब दो वर्ष पूर्व देहरादून में दिल्ली फ्रूट चाट (राजपुर रोड जाखन) पर देखा. उनकी गाड़ी सड़क के दूसरी तरफ खड़ी थी और वे अपने सुरक्षा प्रहरी के सहारे वहां खड़े थे. देखकर मेरे भीतर सहानुभूति जैसा कुछ उमड़ा! शायद राजनीति में निष्ठा नहीं, ताकत की पूछ ज्यादा है. मैं उसी विनोद बड़थ्वाल को याद रखना चाहूँगा जिसको मैंने पहली बार देखा था!

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उत्तराखंड के तीन पत्रकारों के फेसबुक वॉल से.

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0 Comments

  1. ram anuj

    April 18, 2016 at 10:25 am

    छात्र राजनीति से यूपी की सियासत में अपनी गहरी पैठ रखने वाले सपा नेता विनोद बड़थ्वाल का जीवन संघर्षओ और चुनौतियां से भरा रहा .समाजवादी पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक थे विनोद बड़थ्वाल . जब मुलायम सिंह यादव एक नई पार्टी को बनाने की जद्दोजहद कर रहे थे . तो मुलायम सिंह अपने कई समर्थक के साथ मसूरी में रुके थे .एक बार मुझे विनोद बडथ्वाल ने बताया था कि उन्होंने पार्टी के गठन को लेकर कैसे रणनीति बनाई थी . बड़थ्वाल की राजनीतिक सोच , अवधारणा , और तत्काल निर्णय लेने की क्षमता को देखकर मुलायम सिंह यादव ने उन्हें पार्टी की राषट्रीय सचिव का पद से नवाज दिया .और मुलायम सिंह यादव के करीबियों में तब से विनोद बड़थ्वाल शुमार हो गये .मुझे 18वीं सदी के इंलिग्श कवि थॉमस ग्रे की एक कविता याद आ रही है जिस शीर्षक है एन एलजी रिटन इल कंट्री चर्चयार्ड . कवि कहता है कि ना जाने कितने ऐसे लोग है मेरे गांव के . जिन्हें इस कब्रगाह में दफनाया गया है .जिन्होंने अपने जीवन को बहुत ही सादगी के साथ जीया है मगर अब उन्हें कोई याद नहीं करता .मैं भी कविता का पढ़कर अपने पूर्वजो को याद करके भावुक हो जाता है मगर मै इतना कहना चाहता हूं कि विनोद बड़थ्वाल ने अपने जीवन में एक ऐसी मिसाल पेश है कि जो हमेशा प्रेरणा देती रहेगी . अपनी महत्वाकांक्षों को दरकिनार करके सिद्धांतों की राजनीति होनी चाहिए .

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