धार्मिक भावनाओं की तुष्टि के सिलसिले में वृन्दावन का नाम कुछ ज्यादा ही श्रद्धा से लिया जाता है। बंगाल में तो बहुत पहले से मान्यता रही है कि स्वर्ग के दरवाजे पर दस्तक वृन्दावन में रहकर ही दी जा सकती है। वैधव्य की आपदाओं से घिरी बंगाली स्त्रियों को बाकी जीवन जीने के लिए वृन्दावन ताकत देता रहा है। यही कारण है कि वृन्दावन में बंगाली विधवाओं की उपस्थिति एक शताब्दी से लगातार बनी हुई है। विडम्बना यह है कि ये विधवाएँ सारा जीवन नारकीय यातनाओं को भोगते गुजार देती हैं। इन अनपढ़, सीधी-सच्ची और दुखी औरतों को इस बात का तनिक आभास नहीं होता कि उनकी वर्तमान हालत पुराने जन्मों के पापों का फल न होकर सुनियेाजित ढंग से धर्म के नाम पर खड़े किए गए आडंबर के कारण है। वृन्दावन में बंगाली विधवाओं की स्थिति एक बार जाल में फँसने के बाद कभी न निकलने वाली मछली की मानिंद है।
घटती-बढ़ती लेकिन तकरीबन तीन हजार की गिनती में हमेशा बनी रहने वाली विधवाओं के दुख-दर्द की कहानी वृन्दावन के एक आश्रम से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ी है। वृन्दावन के पत्थरपुरा इलाके में इस आश्रम की स्थापना 1914 में जानकीदास पटोदिया नाम के सेठ ने की थी। ‘भगवान भजनाश्रम’ के नाम से इस आश्रम की स्थापना बंगाली बाइयों के अनैतिक काम में पड़ने से रोकने और जीवन-यापन की व्यवस्था करने जैसे पवित्र उद्देश्य को लेकर की गई थी। विधवाओं के नाम पर आने वाली दान की रकम ने नाम मात्र की पूंजी से खड़े किए ‘भजनाश्रम’ को आज अरबों का बना दिया है। वृन्दावन के अलावा मथुरा, गोवर्धन, बरसाना, राधाकुंड, गोकुल आदि स्थानों पर भजनाश्रम की शाखाएँ जड़ जमा चुकी हैं और इस संस्था के पास चित्रकूट के पास नवद्वीप और बम्बई में आश्रम की अथाह सम्पत्ति है। दूसरी ओर भजन करने वाली बाइयों की हालत इतनी दयनीय है कि पत्थर भी पिघल जाए।
आठ घंटे मँजीरे पीट-पीट कर मुक्त कंठ से ‘हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे’ का उद्घोषण करने के बाद एक बाई को ढाई सौ ग्राम चावल और कुछ रूपए मिलते हैं .। एक जमाने में आश्रम की अपनी मुद्रा थी जो रूपये के एब्ज में इन वाइयों को दी जाती थी . एक वक्त था जब पूरे वृन्दावन में आश्रम की अपनी मुद्रा का दबदबा था। पान वाला भी इसे लेने से मना नहीं कर सकता था।
इंसान का वर्तमान जितना कष्टप्रद और असुरक्षित हो, भविष्य की असुरक्षा का भय उसे उतना ही सताता है। सत्रह साल की जवान बाई से लेकर अस्सी साल की लाठी के बल पर चलने वाली या सड़क पर घिसटने वाली विकलांग बाई तक सभी ढाई सौ ग्राम चावल पेट में झोंक कर जिन्दा रहती हैं और एक रुपया बचा लेती हैं। सेवा कुंज, मदनमोहन का घेरा और गोविन्द जी के घेरे में बनी कभी भी गिरने वाली अंधेरी, सीलन भरी और बदबूदार कोठरियों में सात-सात आठ-आठ की संख्या में ठुसी बाइयाँ अपनी अमूल्य निधि (भजन करने के बाद मिलने वाली राशि ) को रखने का सुरक्षित स्थान नहीं ढूंढ पाती। यह रकम आश्रम के बाबुओं के पास ब्याज के लालच में जमा कराती रहती हैं। अनेक बाइयां भजन या भीख से मिले पैसों को बैंक में जमा करती है . यह भी जाँच का विषय है बैंकों में बाइयों का कितना धन है ? बाइयों के आगे-पीछे कोई होता नहीं, सो बाई के मरने के बाद उसका धन भी छूट जाता है। अनेक बाइयाँ वृन्दावन पलायन करते समय साथ में लाई गई पूंजी भी ब्याज पर उठा देती हैं।
शाम के वक्त वृन्दावन में मंदिरों के आगे इन्हीं बाइयों को भिक्षावृति करते देखा जा सकता है। इस भिक्षवृत्ति के पीछे संचय की प्रवृति भी है। बाइयाँ सुबह 10 बजे जब भजनाश्रम से अपनी कोठरियों की ओर कूच करती हैं तो रास्तें में पडे़ जूठे पत्ते उन्हें आगे नहीं बढ़ने देते। अस्थिपंजर बने रुग्ण शरीर उन्हें चाटने लगते हैं। बाइयों को आश्रम के कर्मचारी भी प्रताडि़त करने में पीछे नहीं रहते। एक बार एक बुढि़या बाई को आश्रम की सीढि़यों से केवल इसलिए धकिया दिया गया कि वह भजन के लिए कुछ देर से आई थी। कभी कभी बाइयाँ मिन्नतों और गिड़गिड़ाने के बाद भी आश्रम में प्रवेश नहीं पा सकती। उस दिन उन्हें बिना चावल के ही गुजारा करना पड़ता है। आमानवीयता और अत्याचार की मिलीजुली संस्कृति ने आश्रम के प्रति बंधुआ मजदूरों का सा भय और आतंक इन निरपराध बाइयों के मन में भर दिया है।
आश्रम के कर्मचारियों के घरों का काम, सफाई, जूठे बर्तन साफ करना आदि भी इन्हीं बाइयों से लिया जाता है।
‘भजनाश्रम’ के पास अपना एक आयुर्वेद संस्थान भी है जिसमें करीब चालीस दबाएं बनती हैं। दवाओं को कूटने, शीशियों में भरने और पैकिंग करने आदि का काम इन्हीं बाइयों से लिया जाता है।
समूचे देश के दानदाता भजनाश्रम की बाइयों के लिए हजारों रुपए भेज रहे हैं। इसके अलावा सावन और फागुन के महीने में मारवाड़ी लोग वृन्दावन आते हैं तो हजारों की रकम आश्रम को दान कर जाते हैं। कंबल, रजाई आदि बाँटने के लिए दे जाते हैं।
वृन्दावन में स्थित फोगला आश्रम भी भजनाश्रम की एक शाखा है। साल में चार महीने इस आश्रम में रोजाना चलने वाली रासलीला में हजारों श्र(ालु इकट्टा होते हैं। आयोजक घड़े लेकर रामलीला के खत्म होने पर चढ़ावे के लिए जनता के बीच निकलते हैं। कहते हैं लाखों की रकम रोजाना इकट्ठा हो जाती है। फोगला आश्रम के अतिरिक्त भजनाश्रम की दो बड़ी-बड़ी इमारतें और हैं-खेतावत भवन और वैश्य भवन। इन भवनों में बने आलीशान कमरे दानदाता सेठों के आने पर ही खुलते हैं लेकिन प्रचारित यही किया जाता है कि यह भवन बाइयों के लिए बनाए गए हैं।
इस धार्मिक नगर में लोग बाइयों के हक में आवाज उठाने को तैयार नहीं। महानगरों में नारी-शोषण के खिलाफ प्रदर्शन होना एक आम बात है। लेकिन वृन्दावन की बाइयों के हक की सुध किसी को नहीं। वृन्दावन की बाइयों की व्यथा पर कथा लिखने वालों की कमी नहीं रही। समय-समय पर देशी-विदेशी कैमरे इन बाइयों के चित्र उतारते रहते हैं। सामाजिक संगठन इनकी दुर्दशा पर कभी-कभी चर्चा भी करते देखे गए हैं लेकिन स्वर्ग की आस में नरक जैसा जीवन जीने वाली बेसहारा औरतों को सहारा देने वाला कोई नहीं। न जाने कितने स्वयं सेवी संगठन इन बाईयों का सहारा बनने का नाटक कर स्वर्ग जैसा आनन्द भोग रहे हैं। भू.पू. राष्ट्रपति वीवी गिरी की पत्नी श्रीमती मोहनी गिरी और सुलभ शौचलय के संचालक जैसे तमाम समाजसेवी इन विधवाओं के कल्याण के लिए वृन्दावन में अपनी अपनी एन जी ओ की छतरी ताने खड़े हैं . सभी लोग पैसे की कमी का रोना रहे है लेकिन कोई भी तथाकथित समाजसेवी संस्था’ भजनाश्रम’ के पास पहले से मौजूद अरबों के खजाने से विधवाओं के कल्याण की बात नहीं करता . आखिर ये पैसा भी तो बाइयों के नाम पर इकठ्ठा किया गया है. इस संस्था के पास मौजूद खजाने के हिसाब किताब की बेहद जरूरत है . यदि गड़बड़ी मिले तो सरकार को इस संस्था को जब्त कर विधवा -कल्याण की दिशा में त्वरित कार्यवाही करनी चाहिए .
लेखक अशोक बंसल जनसत्ता से कई दशक तक जुड़े रहे मथुरा के वरिष्ठ पत्रकार, उनसे संपर्क : [email protected]