आज लगभग 40 साल बाद मैं फिर से अयोध्या की राम जन्मभूमि पर गया जहां रामलला विराजमान हैं, उस जगह तक पहुंचने में लगभग आधा घंटा पैदल चलना पड़ा। जब पहली बार यहां आया था तो शायद पांच मिनिट भी नहीं चलना पड़ा था। पैदल चलना मेरे लिए आनंद की बात है लेकिन रामलला तक पहुंचने पर जो दृश्य मैंने देखा, वह हृदय-विदारक था। लोहे के पाइपों से घिरा रास्ता ऐसा लग रहा था, जैसे हम हिटलर के किसी यातना-शिविर में से गुजर रहे हैं। ऐसे कई शिविर मैंने यूरोपीय देशों में देखे हैं लेकिन यह दृश्य तो उससे भी भयंकर था।
सुरक्षाकर्मियों ने कलम, घड़ी, बटुआ वगैरह भी नाके पर रखवा लिया। ऐसी सुरक्षा तो मैंने कभी रुस के क्रेमलिन, अमेरिका के व्हाइट हाउस और भारत के राष्ट्रपति भवन में भी नहीं देखी। अनेक सम्राटों और बादशाहों से मिलते हुए भी मुझे अपनी घड़ी और पेन निकालकर जमा नहीं कराने पड़े। बड़ी बेइज्जती महसूस हो रही थी लेकिन क्या करते ? वैसे मैं मूर्तिपूजक भी नहीं हूं लेकिन मेरे साथ देश के जाने-माने 30 लोग थे, जिनमें नालंदा वि.वि. के कुलपति और विख्यात वैज्ञानिक डाॅ. विजय भाटकर, एमआईटी पुणे के डाॅ. वि.ना. कराड़, स्वनामधन्य पूर्व मंत्री आरिफ खान, डाॅ. शहाबुदीन पठान आदि भी थे।
लोहे के पाइपों से घिरे इस रास्ते के चारों तरफ गंदगी फैली हुई थी और भूखे बंदर प्रसाद की बाट जोह रहे थे। उसके बाद हम लोग उस स्थाान पर गए जहां राम मंदिर के लिए शिलाएं तराशी जा रही थीं और राम मंदिर के लिए देश भर से ईंटे इकट्ठी की गई थी। बड़ी-बड़ी शिलाओं पर कारीगरी तो मनोहारी थी लेकिन लाल शिलाएं अजीब-सी लग रही थीं। उस मंदिर में तो दुनिया की सर्वश्रेष्ठ शिलाएं लगानी चाहिए। फिर हम सब गए सरयू के किनारे। बहती हुई मनोरम सरिता को देखकर याद आया कि राम ने यही प्राण त्यागे थे।
यह यात्रा अविस्मरणीय रही, क्योंकि यहां की 70 एकड़ भूमि में हम विश्व-तीर्थ बना हुआ देखना चाहते हैं, चाहे राम जन्म-स्थल पर तो मंदिर ही बने लेकिन शेष 60-65 एकड़ में दुनिया के कम से कम दस मजहबों के पवित्र-स्थल बनें। अयोध्या विश्व की आध्यात्मिक राजधानी बन जाए। यहां करोड़ों लोग हर साल धार्मिक पर्यटन के लिए आएं। उसके साथ-साथ यहां एक ऐसा विश्वविद्यालय भी कायम हो, जिसकी पढ़ाई में अध्यात्म और विज्ञान का संगम हो। अयोध्या अपने नाम को सार्थक करे। युद्ध की वृत्ति का निषेध करे। सारा विवाद खत्म हो। मामला अदालत के बाहर सुलझे। जब जीतें, कोई न हारे।
लेखक डा. वेद प्रताप वैदिक देश के वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं.
डॉ अशोक कुमार शर्मा
January 8, 2018 at 3:27 pm
डॉ. वैदिक जब भी पुराने अवतार में आते हैं तो कमाल का लिखते हैं। ये लेख साबित करता है कि उनकी वैचारिक प्रांजलता जब कभी उनकी निजी महत्वाकांक्षा से बाहर उड़ान भरती है, वे एक ही छलांग में मीडिया की क्षुद्रता के पहाड़ से सौ योजन ऊंचे उड़ जाते हैं।
इस लेख में निम्नलिखित पंक्तियों में, उनकी असाधारण इंसानियत झलकती है-
अयोध्या विश्व की आध्यात्मिक राजधानी बन जाए। यहां करोड़ों लोग हर साल धार्मिक पर्यटन के लिए आएं। उसके साथ-साथ यहां एक ऐसा विश्वविद्यालय भी कायम हो, जिसकी पढ़ाई में अध्यात्म और विज्ञान का संगम हो। अयोध्या अपने नाम को सार्थक करे। युद्ध की वृत्ति का निषेध करे। सारा विवाद खत्म हो। मामला अदालत के बाहर सुलझे। जब जीतें, कोई न हारे।…
…जग घूमया थारे जैसा ना कोई! जग घूमया थारे जैसा ना कोई!