…अंततः फर्जी केस से बरी हुये पत्रकार योगेंद्र सिंह और अब्दुल हमीद बागवान !
सत्य प्रताड़ित हुआ पर पराजित नहीं! 10 मार्च 2007 वह मनहूस दिन था , जब मेरे दो पत्रकार साथियों अब्दुल हमीद बागवान और योगेंद्र सिंह पंवार को भीलवाड़ा पुलिस द्वारा कईं गंभीर धाराओं में दर्ज कराए गए एक मुकदमे में गिरफ्तार कर लिया। मुझे सुबह सुबह तत्कालीन जिला कलेक्टर से यह जानकारी मिली, यह हैरत करने वाली जानकारी थी, क्योंकि उस शाम तक मैं अपने दोनों साथियों के साथ ही था, मेरे निकलने के 1 घण्टे बाद ही यह घटनाक्रम घटित हो गया।
एफआईआर में आरोप लगाया गया कि सुनील जैन और अभिषेक जैन नामक दो व्यवसायियों को बैंक जाते वक्त योजनाबद्ध तरीके से एक घर में बुलाकर महिलाओं के साथ मिलकर उनके अश्लील फोटो खींचकर उनसे एक लाख रुपये मांगे गये। उनका मोबाइल छीन लिया गया और उनकी सोने की चैन तथा नकदी लूट ली गई। एफआईआर में भादस की धारा 395, 384, 292 तथा सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 67 और महिलाओं का अशिष्ट रूपण प्रतिषेध अधिनियम की धारा 4/7 लगाई गई।
अपनी लेटलतीफी के लिये कुख्यात पुलिस ने इस मामले में बहुत तेजी दिखाई और मुकदमा दर्ज होते ही आरोपियों को तुरंत गिरफ्तार कर लिया। भीलवाड़ा जिले का मीडिया इतना उतावला था कि अपने ही साथियों के लिए सीरीज में कहानियां चटकारे ले ले कर प्रकाशित करता रहा।
दरअसल सब कुछ पूर्वनियोजित था। पुलिस ने यह पटकथा पहले से ही रच रखी थी, जिसको लोकदिखावे के लिए महज मंचित करना था और उसे किया गया। एक दलित और एक मुस्लिम समुदाय से आने वाले दो निडर पत्रकारों को रंजिशन फंसाकर 9 माह 3 दिन जेल में रखा गया। 11 साल केस चला और अंततः 18 जुलाई 2018 को अदालत ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया।
इस बीच एक पत्रकार योगेंद्र सिंह पंवार की मृत्यु हो गई। वो जीतेजी अपनी बेगुनाही साबित नहीं कर पाये। भारतीय राज्य और उसकी पूर्वाग्रह से पीड़ित शासन प्रशासन व्यवस्था वंचित समुदाय के लोगों के साथ किस तरह का सुलूक करती है, किस तरह से उनको बदनाम करती है, फंसाती है और कई साल तक अदालती कार्यवाही में डाल कर उनकी ज़िंदगी बर्बाद कर देती है, उसका जीवंत उदाहरण यह केस है।
कौन थे ये पत्रकार?
भीलवाड़ा शहर की पत्रकारिता में सक्रिय अब्दुल हमीद बागवान ‘लाल अखबार’ के प्रधान संपादक हैं और योगेंद्र सिंह पंवार दैनिक नवज्योति के फोटो जर्नलिस्ट थे। खतरों से खेलकर खबरें प्रकाशित करने वाले बेख़ौफ़ पत्रकार! तत्कालीन पुलिस और अपराधियों के गठजोड़ को निरन्तर उजागर कर रहे थे। सूचना के अधिकार से सूचनाएं लेकर उनका विश्लेषण करके अपने समाचार पत्रों में उसको उजागर करने वाले जाबांज़ कलम के सिपाही।
पुलिस महकमा, माफिया तो इनसे खफा थे ही, खबरनवीस बिरादरी भी इनसे नाखुश थी। एक तो निडर लोग, चाटुकारिता से दूर, लोहा लेने वाले, दूसरा दलित मुस्लिम समुदाय से आने वाले। मनुस्ट्रीम मीडिया के आंखों की भी किरकिरी बन गये। नतीजा यह हुआ कि उनको सबक सिखाया गया। ऐसे मुकदमे में फंसा कर जिसकी इन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी।
एक झूठ रचा गया, जो इस तरह था -“भीलवाड़ा निवासी व्यवसायी सुनील जैन और अभिषेक जैन 10 मार्च 2007 को करीब 8 बजे मोटरसाइकिल से ट्रांसपोर्ट नगर से बैंक जा रहे थे। आजादनगर में एक औरत ने खिड़की से आवाज़ दी कि मेरे किवाड़ की कुंडी खोल दो। इंसानियत के नाते उन्होंने मोटरसाइकिल रोक कर कुंडी खोल दी तो उस औरत ने उनको अंदर बुला लिया। वे दोनों औरत से बात कर रहे थे कि बाहर से किसी औरत ने दरवाजा बंद कर दिया। इतने में मकान से चार औरतें और दो पुरुष निकले। इन्होंने उनके अश्लील फोटो खींच लिए। बैग से 14950 रुपये और 23 ग्राम सोने की चेन तथा मोबाइल लूट लिया और एक लाख रुपयों की मांग की।”
पुलिस ने इस मामले में थाना प्रतापनगर में एक एफआईआर 127/2007 दर्ज कर आरोपियों को गिरफ्तार कर अनुसंधान किया, शिनाख्त, फर्द जब्ती और जुर्म प्रमाणित मानकर चालान न्यायालय में पेश किया।
11 साल चले इस केस का निपटारा करते हुए अदालत में सामने आया कि इस प्रकरण के फरियादी अभिषेक जैन और सुनील जैन के बयानों में ही विरोधाभास है। वे जिस महिला की आवाज़ पर कुंडी खोलना बता रहे हैं, कॉल डिटेल यह जाहिर करती है कि उक्त महिला को फरियादी पहले से न केवल जानते थे ,बल्कि बात भी करते थे।
उस दिन भी उनकी बात हुई थी। शिनाख्तगी से पहले सभी आरोपियों को फरियादी को पुलिस ने थाने में दिखाया। उनके नाम पते बताये, फिर शिनाख्त की कार्यवाही की गई। दोनों पत्रकारों से पुलिस नाराज थी, इसलिए उनको इस प्रकरण में जबरन घसीटा गया। इतना ही नहीं बल्कि मोबाइल में अश्लील क्लिपिंग के मामले में पुलिस कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं कर पाई। न ही अब्दुल हमीद बागवान की तरफ से उक्त क्लिपिंग को अन्यत्र भेजने या उसका प्रकाशन, मुद्रण करने की बात सामने आई। यहां तक कि फरियादियों से कोई राशि मांगे जाने का तथ्य भी साबित नहीं हुआ है।
इतना ही नहीं बल्कि इस केस की फ़ास्ट ट्रेक कोर्ट में शीघ्र सुनवाई के लिए पुलिस ने स्पेशल केस ऑफिसर की भी नियुक्ति की। उसी की निगरानी में गवाहों के बयान कराये गये, लेकिन झूठ तो आखिर झूठ ही होता है, उसके पांव बड़े कमजोर होते हैं। इसलिए वह ज्यादा दिन चल नहीं पाता है। अंतत: गवाह मुकर गये। वे जिरह में टिक नहीं पाये और उन्होंने इस फंसाने वाली कहानी की सच्चाई उगल दी।
अंततः न्यायालय अपर सेसन न्यायाधीश संख्या 3 भीलवाड़ा ( राज) ने अपने फैसले में कहा कि -“ऐसी स्थिति में जब अब्दुल हमीद द्वारा उन अश्लील क्लिपिंग को कहीं अन्य जगह नहीं भेजा गया या उनका किसी रूप में प्रकाशन, विक्रय, परिचालन नहीं किया गया है तो धारा 292 आईपीसी, धारा 4/7 महिलाओं का अशिष्ट रूपण तथा सूचना प्रोद्योगिकी अधिनियम की धारा 67 के अंतर्गत दोषी ठहराया जाना उचित प्रतीत नहीं होता है। प्रकरण की विवेचनानुसार अभियोजन पक्ष अभियुक्तगण के विरुद्ध आरोपित अपराध युक्तियुक्त संदेह से परे साबित करने में असफल रहा है। अतः अभियुक्तगण को संदेह का लाभ देकर दोषमुक्त घोषित किया जाना न्यायोचित प्रतीत होता है।”
9 महीने जेल। मीडिया के अपने ही साथियों द्वारा क्रमबद्ध तरीके से की गई बदनामी। 11 साल की न्यायिक सुनवाई की लंबी प्रक्रिया से गुजर कर अब्दुल हमीद बागवान और योगेंद्र सिंह पंवार दोषमुक्त हो गये हैं। इस बीच बहुत कुछ गुजर चुका है। योगेंद्र पंवार अपनी बेगुनाही की खबर सुनने को दुनिया में मौजूद नहीं हैं। अब्दुल हमीद बागवान पत्रकारिता की दुनिया को अलविदा कहकर कन्सट्रक्शन की दुनिया में चले गये हैं।
दो साथी जो कलम की ताकत से, सूचना के अधिकार की शक्ति का प्रयोग करते हुए पत्रकारिता के ज़रिए दुनिया को बदलने निकले थे, उनके साथ कानून और व्यवस्था ने कैसा खेल खेला, किस तरह उनकी जिंदगियों को बर्बाद किया, किस तरह ब्लैकमेलिंग, अश्लीलता, लूट के कलंक का टीका उनके ऊपर अधिरोपित किया, यह सोचकर रूह कांपती है। फिर भी अब्दुल हमीद बागवान ने हिम्मत नहीं हारी। योगेंद्र पंवार के दुनिया से चले जाने के बाद भी न्याय की उम्मीद में लड़ते रहे। जब भी मिलते कहते रहे कि -“अपनी बेगुनाही का फैसला एक दिन दुनिया के सामने रखकर बता दूंगा कि हम निर्दोषों को जबरन फंसाया गया, ताकि हम पत्रकारिता छोड़ दें, हम आरटीआई का उपयोग न करें, अन्याय अत्याचार के खिलाफ नहीं बोलें, पर हम एक दिन जीत कर दम लेंगे।”
अंततः उन्होंने कर दिखाया। अपनी बेगुनाही साबित कर दी। उनको फंसाने वाले ज्यादातर पुलिसकर्मी रिटायर्ड हो चुके हैं। कुछेक को उनके किये की सज़ा मिल चुकी है। कुछ को मिलनी बाकी है। सबसे दुखद पहलू यह है कि गिरफ्तारी और जेल के वक़्त जिन जिन समाचार पत्रों ने बेहद उत्साहित होकर उनके विरुद्ध धारावाहिक कहानियां छापी, वे अब इस दोषमुक्ति के फैसले पर एक भी लाईन छापने को तैयार नहीं हैं। भारत के दलित अल्पसंख्यक विरोधी मीडिया का दोगलापन इस प्रकरण में साफ साफ नजर आता है, जिसकी भर्त्सना की जानी चाहिए।
कुल मिला कर इस निर्णय को पढ़कर मुझे व्यक्तिगत रूप से बेहद सुकून मिला है। मैं उम्मीद करता हूँ कि अब्दुल हमीद बागवान जैसा जुझारू, निडर, कलम का धनी पत्रकार पुनः पत्रकारिता की दुनिया को प्यार करेगा।
लेखक भंवर मेघवंशी दलित, आदिवासी, घुमन्तू और अल्पसंख्यक समुदाय के मुद्दों पर राजस्थान में सक्रिय हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.
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