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खबरों के काले धंधे पर वरिष्ठ पत्रकार सुभाष गुप्ता ने की पीएचडी : पेड न्यूज पर चिंता महज एक दिखावा है…

प्रो. सुभाष गुप्ता

उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार सुभाष गुप्ता को मैनेज्ड/पेड न्यूज के प्रभावों पर शोध के लिए पी-एच. डी. की उपाधि प्रदान की गई है। श्री गुप्ता ने अपने शोध में पाया है कि देश में सबसे बड़े स्तर यानि राष्ट्रपति के चिंता जाहिर करने और संसद, सत्ता पक्ष से लेकर विपक्ष के नेताओं, प्रेस काउंसिल, निर्वाचन आयोग तक के इसके विरोध में बार-बार आवाज उठाने के बावजूद देश में पेड न्यूज के काले खेल को खुली छूट मिली हुई है। स्थितियां ये दर्शा रही हैं कि पेड न्यूज पर चिंता जाहिर करना, एक दिखावा बन कर रह गया है।

प्रो. सुभाष गुप्ता

उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार सुभाष गुप्ता को मैनेज्ड/पेड न्यूज के प्रभावों पर शोध के लिए पी-एच. डी. की उपाधि प्रदान की गई है। श्री गुप्ता ने अपने शोध में पाया है कि देश में सबसे बड़े स्तर यानि राष्ट्रपति के चिंता जाहिर करने और संसद, सत्ता पक्ष से लेकर विपक्ष के नेताओं, प्रेस काउंसिल, निर्वाचन आयोग तक के इसके विरोध में बार-बार आवाज उठाने के बावजूद देश में पेड न्यूज के काले खेल को खुली छूट मिली हुई है। स्थितियां ये दर्शा रही हैं कि पेड न्यूज पर चिंता जाहिर करना, एक दिखावा बन कर रह गया है।

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मैनेज्ड/पेड न्यूज के इस काले खेल के लिए सबसे ज्यादा बदनाम पत्रकार होते हैं, लेकिन इस गोरखधंधे में पत्रकारों से ज्यादा मीडिया घरानों के मालिकों, मैनेजमेंट, नेताओं और कॉरपोरेट घरानों के हाथ सने हुए हैं। आटे, दाल, हल्दी यानि हर उत्पाद में मिलावट करने वालों को सजा देने के लिए सदियों से कानून बने हुए हैं, लेकिन सच में झूठ की मिलावट करने, खबरों में विज्ञापन की मिलावट करने वालों के खिलाफ कार्रवाई की कोई व्यवस्था देश भर में नहीं है। इस मिलावट को रोकने के लिए कोई कानून तक नहीं बना है। प्रेस काउंसिल और निर्वाचन आयोग की इस संबंध में कानून बनाने की सिफारिशें पांच साल से केंद्र सरकार की फाइलों में धूल खा रही हैं।

इस शोध में अमेरिका, भारत और कई देशों के जनसंचार के माध्यमों के साथ ही भड़ास फोर मीडिया से अनेक संदर्भ लिये गए हैं। भड़ास फोर मीडिया पर पेड न्यूज के विरूद्ध अभियान के अंदाज में प्रकाशित आलेखों और समाचारों का शोध में पेड न्यूज की हकीकत समझने और सामने लाने के लिए अनेक स्थानों पर उपयोग किया गया है। पेड न्यूज के प्रभावों का उल्लेख करते हुए पाया गया है कि पेड न्यूज के कारण चुनाव महंगे हो रहे हैं, अर्थ व्यवस्था में काले धन का उपयोग और प्रभाव बढ़ता जा रहा है और चुनावों में ज्यादा धन खर्च करने की क्षमता वाले लोगों को फायदा मिलता है, भले ही वे आपराधिक प्रवृत्ति के हों। ईमानदार और योग्य लोग चुनाव प्रक्रिया में पीछे छूट रहे हैं । योग्य और ईमानदार लोगों को चुनाव से दूर करके पेड न्यूज देश में लोकतंत्र को नुकसान पहुंचा रही हैं। पेड न्यूज के कारण अच्छे उत्पाद और सेवाएं नुकसान उठा रहे हैं।

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अखबार और न्यूज चैनल पेड न्यूज के जरिये आंशिक सच या झूठ परोस कर अपने पाठकों व दर्शकों को गुमराह करके गलत फैसले लेने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। उत्पादों, सेवाओं, नेताओं, दलों, स्वयंभू धर्म गुरूओं से लेकर फिल्मी हस्तियों तक के बारे में इस तरह लोगों के निर्णयों को प्रभावित किया जा रहा है। हालांकि पेड न्यूज के खिलाफ खुद पत्रकारों ने ही आवाज बुलंद की है और आज भी कुछ मीडिया हाउस इस काले कारोबार से दूरी बनाए हुए हैं, लेकिन किसी स्तर पर ऐसा कुछ होता नजर नहीं आ रहा है, जिससे मीडिया की साख को तार-तार करने वाले इस धंधे पर रोक लगने की उम्मीद की जा सके।

यह एक विडम्बना ही है कि एक ओर तो मीडिया घराने किसी व्यापार की तरह अपने कारोबार को चलाना चाहते हैं। दूसरी ओर, वे चाहते हैं उनके कारोबार को हर तरह के नियंत्रण से मुक्त रखा जाए। किसी भी तरह की मिलावट करने से उन्हें रोकने की कोई व्यवस्था न की जाए। निरंकुश होकर कारोबार चलाने की छूट की चाहत के पीछे मीडिया की हनक छुपी है। ताज्जुब है कि यह हनक, साल दर साल इस निरंकुशता को बचाने में कामयाब भी हो रही है।

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इस अध्ययन में रेखांकित किया गया है कि पेड न्यूज अब महज अखबार या न्यूज चैनल की खबर के रूप में नजर नहीं आती। बल्कि कोई लाभ लेकर खबर न छापने, किसी के खिलाफ या पक्ष में  ज्यादा समाचार देना, सर्वेक्षण और रैंकिंग भी इसी के बदले हुए रूप हैं। मनमाना भुगतान करके किसी पत्र या पत्रिका की रैंकिंग में ऊपर स्थान पाना या कोई लाभ लेकर किसी सर्वेक्षण में किसी नेता या दल को आगे दिखाना या किसी को पीछे दिखाना भी एक कृत्य है।

पेड न्यूज पर प्रभावी अंकुश लगाने के लिए भी यह शोध में कुछ उपाय बताये गए हैं। सुभाष गुप्ता को ग्राफिक एरा हिल यूनिवर्सिटी ने पी-एच.डी. की उपाधि प्रदान की है। इसी यूनिवर्सिटी के पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के अध्यक्ष एवं प्रोफेसर सुभाष गुप्ता ने यह शोध मैनेजमेंट स्टडीज के विभागाध्यक्ष डॉ. मनीष कुमार के निर्देशन में किया है।  26 वर्ष तक प्रमुख समाचार पत्रों और न्यूज चैनलों में वरिष्ठ पदों पर सेवा करने के बाद श्री गुप्ता छह वर्षों से पत्रकारिता शिक्षण से जुड़े हैं।

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0 Comments

  1. Manmeet Kaur

    October 8, 2016 at 4:02 am

    Congratulations sir. The newspapers may not publish this in depth research work on managed news, since they themselves practice managed/paid news in the industry. But sure this article very rightly writes about the regressive research work done by Subhash sir in the field of journalism and more precisely paid news.

  2. Himani Binjola

    October 8, 2016 at 4:19 am

    congratulations sir….your work is an eye-opener for the society.I feel that such kind of an article can only be read on a platform like bhadaas4media as media houses need courage to publish such wonderful articles as they themselves are involved in such evil practices…..Sir your work has actually given an insight of the corporate houses and how paid news is becoming tool for all of them.Sir you are an inspiration for many and will always try following your footsteps…heartiest congratulations sir…..

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