शिखंडी को योद्धा समझने की भूल मत कीजिए… दिल्ली के शाहीनबाग पहुंचे पत्रकार सुधीर चौधरी और दीपक चौरसिया से लोगों ने बात नहीं की। इससे पहले भी दीपक चौरसिया को शाहीनबाग से धरनार्थियों ने लौटा दिया था। कोई भी आंदोलन संचार माध्यमों को ठुकरा कर सफल नहीं हो सकता। संचार माध्यम ही आंदोलन से लोगों को जोड़ते हैं, आंदोलन के उद्देश्यों को जन-जन तक पहुंचाते हैं और सरकार को उस आंदोलन के सियासी प्रभाव से अवगत करवाते हैं।
तो फिर क्या बात है कि शाहीनबाग के आंदोलनकारी देश के बड़े संचार माध्यमों, संचार शख्सियतों को धकिया रहे हैं, लौटा रहे हैं और उनसे बात करने तक को तैयार नहीं हैं ? आम आदमी तो टीवी पर दिखना चाहता है, टीवी वाले पत्रकारों से बात कर खुद को गौरवान्वित करना चाहता। मीडिया के जरिए अपने मसलों को ताकत देना चाहता है आम आदमी। तो फिर शाहीनबाग से देश के ये दो बड़े पत्रकार बैरंग क्यों लौटा दिए गए ? इन सवालों के जवाब ढूंढने के लिए हमें पत्रकारिता के सामान्य तत्त्वों को याद करना चाहिए।
भारतीय वांग्मय में आदि पत्रकार नारद के भक्ति सूत्र में प्रतिपादित सूत्रों को पत्रकारिता के मूल सिद्धांत का दर्जा दिया गया है। इन सूत्रों में ‘मतों की भिन्नता और अनेकता’ को पत्रकारिता का मूल आधार माना गया है। क्या सुधीर चौधऱी और दीपक चौरसिया मतों की भिन्नता स्वीकार करने का साहस रखते हैं ? इनके कार्यक्रम देखिए, ऐसा लगता है स्टूडियो में कोई लड़ाकू अपनी सोच को आपके ऊपर जबर्दस्ती थोप रहा है। अपनी दलीलों को ही आखिरी सच मानने वाले ये दोनों पत्रकार पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों की हर वक्त हत्या करते नज़र आते हैं।
पत्रकारिता के इन्हीं सिद्धांतों में ये भी साफ है कि पत्रकारिता किसी सत्य को धूसर (ग्रे) रूप में उद्घाटित करती है। हर हाल में बुराई का त्याग ही पत्रकारिता के सिद्धातों का मूल तत्त्व है। सत्य के साथ खड़े होकर न्याय की पक्षधरता पत्रकारिता का बीज तत्त्व बताया गया है। निष्पक्षता में न्यायसंगत होने का तत्त्व अधिक महत्वपूर्ण है। क्या सुधीर चौधरी और दीपक चौरसिया पिछले कुछ सालों में आपको सत्य के साथ खड़े होकर न्याय की पक्षधरता करते दिखे हैं ? मुझे तो नहीं दिखे।
पत्रकारिता का एक पक्ष है वस्तुपरकता और तथ्यपरकता। यही पक्ष पत्रकारिता को धंधे की जगह एक पवित्र अनुष्ठान बनाता है। ये पक्ष कहता है कि तथ्य को ऐसे पेश करना है कि उससे समाज का नुकसान न हो और न्याय का पक्ष मजूबत हो। ये है तथ्यपरकता। वस्तुपरकता का मतलब है किसी घटना या वस्तु को अपनी धारणाओं से परे रख कर देखना।
क्या पिछले कुछ सालों में ये दोनों पत्रकार आपको वस्तुपरक और तथ्यपरक पत्रकारिता करते दिखे ? मुझे तो नहीं दिखे।
पत्रकारिता के सिद्धांतों में ही शामिल है वैचारिकता। ये वैचारिकता किसी खास विचारधारा में मिलकर नहीं बहनी चाहिए। वो पाठक-दर्शक की इच्छा से संचालित नहीं होती। आप ये नहीं कह सकते कि लोग यही देखना चाहते हैं इसलिए हम दिखा रहे हैं।
क्या ये दोनों पत्रकार किसी खास विचारधारा के साथ बहते नहीं दिख रहे हैं ? मुझे तो दिख रहे हैं।
पत्रकार कारखानों में नहीं बनता। वो जीवन संघर्षों में ही निर्मित होता रहता है। वो समाज से दृष्टि पाता है। उसका काम है समाज को परंपरा से प्रगति की ओर मोड़ना, आम आदमी की सोच को आधुनिक बनाना, समाज में फैली जड़ता को तोड़ना, सार्थक ढंग से निराशा को दूर करना, महत्वपूर्ण समस्याओं पर सार्थक सवाल उठाना। क्या आपको पिछले कुछ सालों में ये दोनों पत्रकार इनमें से कोई एक काम करते दिखे? मुझे तो नहीं दिखे। मैं दावे से कह रहा हूं कि इन दोनों ने जीवन संघर्षों से अपनी दृष्टि विकसित नहीं की है। इन दोनों ने सत्ता, सियासत और पूंजी की चकाचौंध में अपनी दृष्टि विकसित की है।
पत्रकारिता के इन्हीं सिद्धांतों ने हमें ये बताया है कि पत्रकार का दायित्व है कि वो किसी खास मुद्दे को इतना ना उछाले जिससे समाज में नकारात्मकता बढ़े। इन दोनों ने समाज में नकारात्मकता बढ़ाने वाले तमाम मसले खूब उछाले हैं और आज भी वही काम कर रहे हैं।
पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों में ये भी बताया गया है कि पत्रकार का काम सरकार के कामकाज पर निगाह रखना है और गलत की आलोचना करना है। क्या इन दोनों को आपने कभी भी इस सिद्धांत का पालन करते देखा है? मैंने तो नहीं देखा।
पत्रकारिता के जो मूल्य निर्धारित किए गए हैं वो कहते हैं कि सांप्रदायिकता और नफरत को बढ़ावा नहीं देना है और अनावश्यक तौर पर किसी की प्रतिष्ठा का नुकसान नहीं करना है। सुधीर चौधरी और दीपक चौरसिया की पूरी पत्रकारिता ही सांप्रदायिकता और नफरत को बढ़ावा देने वाली रही है। इन दोनों ने सिर्फ और सिर्फ किसी न किसी की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाने का काम किया है।
जो पत्रकार पत्रकारिता के बीज तत्त्वों के विरुद्ध खड़े हों और लगातार ग़लत तथ्यों के सहारे किसी एक पक्ष को उद्घाटित करते हों उन्हें पत्रकार माना ही क्यों जाए? तो फिर इनसे बात की ही क्यों जाए?
और आखिर में अपने तमाम पत्रकार मित्रों से: अगर हम कुछ मर्यादाओं का पालन नहीं करेंगे, कुछ सदाचार स्वीकार नहीं करेंगे तो समाज में हमारा कोई सम्मान नहीं बचेगा और एक दिन हमलोग भी ऐसे ही जनता की तरफ से धकियाए, भगाए और ठुकराए जाएंगे। याद रखिए भारतीय मीडिया सरकार या बाजार की संतान नहीं है। भारतीय मीडिया का निर्माण उन शक्तियों के साथ हुई मुठभेड़ में हुआ है जिनका सूरज कभी भी नहीं डूबता था। देश और समाज की सामाजिक और राजनीतिक आवश्यकताएं बदलती रहती हैं, पत्रकारिता के बीज तत्त्व नहीं बदलते। ये भी याद रखिए कि शिखंडी रथ तो हांक सकते हैं योद्धा नहीं हो सकते। शिखंडियों के हाथ पत्रकारिता का गांडिव मत थमाइए। बाजार के दलाल पत्रकारिता के मूल्य, मर्यादा और सिद्धांत तय ना करें।
लेखक असित नाथ तिवारी तेजतर्रा पत्रकार हैं और कई न्यूज चैनलों में एंकर रहे हैं.
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