Connect with us

Hi, what are you looking for?

सुख-दुख

एक महान दोस्त का अवसान और वह आखिरी मुलाकात !

सुनील साह के निधन की खबर पाकर मैं स्तब्ध रह गया। अभी कुछ ही दिन पहले उन्होंने फोन पर मुझसे बात की थी। मेरे स्वास्थ्य की जानकारी लेने के बाद उन्हें काफी संतोष हुआ और बोले थे, पंडित जी इलाज में लापरवाही मत बरितएगा, आपसे जल्दी ही फिर बात होगी। मुझे क्या पता था कि वह मेरी उनकी अंतिम बातचीत होगी। जो भी उन्हें जानता है, निश्चित ही मेरी तरह उसे झटका लगा होगा।

<p>सुनील साह के निधन की खबर पाकर मैं स्तब्ध रह गया। अभी कुछ ही दिन पहले उन्होंने फोन पर मुझसे बात की थी। मेरे स्वास्थ्य की जानकारी लेने के बाद उन्हें काफी संतोष हुआ और बोले थे, पंडित जी इलाज में लापरवाही मत बरितएगा, आपसे जल्दी ही फिर बात होगी। मुझे क्या पता था कि वह मेरी उनकी अंतिम बातचीत होगी। जो भी उन्हें जानता है, निश्चित ही मेरी तरह उसे झटका लगा होगा।</p>

सुनील साह के निधन की खबर पाकर मैं स्तब्ध रह गया। अभी कुछ ही दिन पहले उन्होंने फोन पर मुझसे बात की थी। मेरे स्वास्थ्य की जानकारी लेने के बाद उन्हें काफी संतोष हुआ और बोले थे, पंडित जी इलाज में लापरवाही मत बरितएगा, आपसे जल्दी ही फिर बात होगी। मुझे क्या पता था कि वह मेरी उनकी अंतिम बातचीत होगी। जो भी उन्हें जानता है, निश्चित ही मेरी तरह उसे झटका लगा होगा।

मुझे याद है कि एक बार पहले भी नई दिल्ली में उनका एक्सीडेंट हुआ था और काफी गंभीर रूप से घायल हुए थे। यह बात 1989 के पहले की है। इसी साल अक्टूबर माह में हम दोनों ने अमर उजाला बरेली ज्वाइन किया था। वो जनसत्ता नई दिल्ली छोड़कर आए थे और मै स्वतंत्र भारत वाराणसी। बरेली में अमर उजाला का एक छत्रराज चलता था। प्रतिद्वन्द्वी कोई अखबार था ही नहीं। इसी माह दैनिक जागरण की लांचिंग थी। अमर उजाला के लिए एक चुनौती थी। सभी डायरेक्टर बरेली में जमा थे और जागरण से निपटने के लिए रणनीति बना रहे थे। एक-दो और नए लोग अमर उजाला में आए थे। हम और सुनील साह सेंट्रल डेस्क पर थे और न्यूज एडीटर थे इंदु भूषण रस्तोगी। बाद में जागरण मेरठ से पलाश विश्वास भी आ गए थे। पलाश दा कहानीकार के साथ साथ सामाजिक विचारक भी हैं। सेंट्रल डेस्क कुल मिलाकर हम चार पर ही निर्भर। पहले पेज की खबरें यहीं बनती थीं,अनुवाद से लेकर संपादन तक सब इसी डेस्क को करना होता था।

Advertisement. Scroll to continue reading.

साह जी को अंग्रेजी से हिंदी के अनुवाद में महारत हासिल थी। अब तो ऐसे संपादक मिलेंगे, जो अनुवाद की बात छोड़ें, एक लाइन अंग्रेजी भी नहीं पढ़ पाते। पलाश दादा खबरों में मार्मिकता और मानवता का पक्ष रखने के प्रबल हिमायती थे। दोनो ही पद में मुझसे एक सीढ़ी वरिष्ठ थे और दोनों से ही मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला। पलाश जी तीन साल बाद अमर उजाला छोड़कर जनसत्ता कोलकाता चले गए। हम और सुनील साह 15 साल तक यहीं बने रहे। हम दोनों के बीच इतनी गहरी दोस्ती हो गई, जो उनके जीवन पर्यन्त रही। 

उन्होंने हर परेशानी में मेरी मदद की। अमर उजाला के डायरेक्टर्स की आपसी लड़ाई में मुझे जब रुख्सत किया गया तो वो सबसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने फोन करके मुझे हिम्मत दी। चंडीगढ़ में मैं इस कदर निराश हुआ कि मैंने किसी अखबार में नौकरी न करने की कसम खा ली थी। मैं घर आकर  विकलांग बच्चों  की शिक्षा के प्रोजेक्ट पर काम करने लगा। इस बीच अमर उजाला के डायरेक्टर (अब एमडी) राजुल माहेश्वरी का घर पर फोन आया और उन्होंने सुझाव दिया कि मैं घर पर बिल्कुल न बैठूं और कहीं न कहीं जाकर ज्वाइन जरूर कर लूं, वेतन व पद का मोह भी न रखूं। वो (राजुलजी) अमर उजाला में वापस आने पर मुझे बुला लेंगे। उनके आश्वासन पर मैंने तीसरे दिन ही दैनिक भास्कर ग्वालियर जाकर ज्वाइन कर लिया। हालांकि पद व पैसे का कोई खास लाभ नहीं हुआ। मेरे सभी दोस्तों में सबसे ज्यादा खुशी सुनील साह को हुई। वो इस बात से खुश थे कि मैं अब बेरोजगार नहीं हूं। इसके बाद से वो लगातार इस बात का इंतजार करते रहे कि मैं कब अमर उजाला वापस लौटूं। राजुलजी से बराबर मेरी बातें होती रहीं। उन्होंने मुझसे कहा, मैं जब चाहे तब ज्वाइन कर लूं। नवंबर 12 में एक दिन सुबह 1 बजे राजुल जी का फोन आया। बोले, आपको दिसंबर तक ज्वाइन कर लेना है। मैंने हामी भर ली। बाद में कुछेक कारणों से मैंने तय कर लिया कि अब अमर उजाला नहीं लौटूंगा, चाहे कुछ भी हो। साह जी को यह बात मैंने बताई तो उन्हे बुरा भी लगा। उन्होंने राजुल जी से बात की। राजुल जी ने उन्हें बताया कि वो मुझसे जल्दी ही मिलेंगे।

Advertisement. Scroll to continue reading.

जनवरी 13 को मेरे लंग्स में इंफेक्शन हो गया और मैं ग्वालियर से इलाहाबाद आ गया ताकि परिवार के बीच रहकर इलाज करा सकूं। हालत बिगड़ने पर मुझे स्वरूपरानी अस्पताल इलाहाबाद में भर्ती होना पड़ा। यहां मैं तीन महीने से भी अधिक समय तक भर्ती रहा। कोई फायदा नहीं हुआ। इस दौरान साह जी का बराबर संपर्क बना रहा। वो हर सप्ताह एक बार मेरी पत्नी प्रेमलता को फोन कर मेरी स्थिति की जानकारी लेते रहे। इंफेक्शन दूर नहीं होने पर साह जी ने हल्द्वानी में सुशीला तिवारी चिकित्सालय के चेस्ट विभाग के डा. नौटियाल से मेरी बात कराई और हल्द्वानी आने का सुझाव दिया। डा. नौटियाल ने मुझे बताया कि मोतीलाल नेहरू मेडिकल कालेज के असिस्टेट प्रोफेसर एबी शुक्ल जो मेरा इलाज कर रहे थे, किंग्स जार्ज मेडिकल कालेज में उनके (डा. नौटियाल) जूनियर रह चुके हैं। वो उनसे इलाज के बारे में जानकारी लेंगे।

हालत बिगड़ी तो साहजी ने प्रेमलता से कहा कि मुझे एम्स दिल्ली ले जाया जाए वर्ना स्थिति बिगड़ेगी। प्रो. शुक्ल भी तमाम कोशिशों के बाद भी इंफेक्शन दूर नहीं कर पा रहे थे। साहजी ने राजुल जी को मेरे बारे में जानकारी दी। राजुल जी का प्रेमलता के पास फोन आया, उन्होंने कहा कि दिल्ली में किसी भी अच्छे अस्पताल में भर्ती करा दें, जो भी मदद चाहिए मुझसे बिना संकोच कहें। यदि मेरा फोन न उठे तो एसएमएस कर दें, मेरा आदमी हास्पिटल पहुंच जाएगा। कितनी बड़ी विडम्बना है कि जिस अखबार में काम करता था, वहां के संपादक सुनील शुक्ल ने एक बार भी फोन करके मेरा हालचाल नहीं लिया जबकि जिस अखबार को छोड़े नौ साल हो गए वहां के मालिक और मेरे पुराने दोस्त हर तरीके से मदद के लिए तैयार खड़े थे। एम्स दिल्ली में इलाज कराने पर मुझे काफी लाभ हुआ। हर माह एक बार पल्मोनरी विभाग के अध्यक्ष प्रो. रणदीप गुलेरिया के पास जाना पड़ता है, वही इलाज कर रहे हैं। साहजी को इस बात से काफी राहत हुई कि मैं खतरे से  बाहर आ गया हूं। लेकिन दुख है कि मेरे एकदम ठीक होने की खबर सुनने के लिए वो नहीं रहे।

Advertisement. Scroll to continue reading.

वर्ष १९९० की बात है मेरी बेटी रिमझिम जो मात्र एक साल की थी, एक रात काफी बीमार पड़ गई. मैं उस समय आफिस में था। रात ११ बजे थे। घर से फोन आया, उस समय डेस्क पर मैं अकेला था और मुझे ही रात का एडीशन िनकालना था। साह जी का वीकली आफ था. मैंने उन्हें फोन किया तो वो अपनी राजदूत मोटर साइकिल से ५ मिनट के अदर घर पहुंचे और बेटी को  चाइल्ड स्पेशलिस्ट के पास ले गए। वहां दो घंटे रुककर बेटी का इलाज कराया। फिर घर ले आए।   

साह जी एक ऐसे दोस्त थे जो हमेशा सही सलाह देते थे। आज की पत्रकारिता मे छल-कपट, चापलूसी एक प्रमुख योग्यता हो गई है। लेकिन उन्होंने अपने साथ काम करने वाले सहयोगियों को  इससे दूर रहने की ही सलाह दी। छल-कपट व चापलूसी आगे बढ़ने का शाटॆकट तो हो सकता है, पर स्थायित्व नहीं दे सकता।

Advertisement. Scroll to continue reading.

जब परिस्थितियां उनके विपरीत हुईं तो साह जी भी अमर उजाला छोड़ना पड़ा। हिंदुस्तान व सहारा में उन्हें  एक-दो ऐसे सहयोगियों के साथ काम करना पड़ा जो अमर उजाला में उनके साथ कर चुके थे। यहां उन्हें बेहद कड़वे अनुभव के दौर से गुजरना पड़ा। ये सहयोगी मैनेजमेंट की निगाह में अच्छा दिखने के लिए  हर तरह की गंदी राजनीति पर उतर आते थे। साह जी ने मुझे कई बार इस बारे में अपनी पीड़ा बताई थी। उनके साथ धोखेबाजी, विश्वासघात का खेल हुआ और अंततः  वहां से हटना पड़ा। अतुल माहेश्वरी से पुराने संबंधों की वजह से अमर उजाला में आसानी से उनकी वापसी हो सकी।

अस्पताल मे जब मैं भर्ती था, तो प्रेमलता ने उनसे दोनों बेटों के बारे में पूछा, तो साह जी ने बताया कि दोनों की पढ़ाई का खचॆ बहुत आ रहा है। बड़ा इंजीनियरिंग कर रहा है जबकि छोटा नैनीताल में संत जोजफ कालेज में पढ़ता है वहीं हास्टल में रहता है। छोटे बेटे के बारे में बड़ी मामिॆक बात बताई। उसने अपने बेड के पास  पापा मम्मी की फोटो रखी है, जब सोने लगता है तो दोनों को प्रणामं करता है। जब भी घर की याद आती है तो हास्टल के कैंपस से हल्द्वानी को निहारता है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

साह जी एक महान दोस्त थे। सुख-दुख के सच्चे साथी थे। हजारों में एक भी ऐसा दोस्त अब नहीं मिलता। उनका अवसान कई सालों तक पीड़ा देगा। 

लेखक इंद्रकांत मिश्रा से संपर्क : 7505374377

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

0 Comments

  1. Sumant

    April 30, 2015 at 12:53 pm

    शाह जी को नमन। इसे कहते हैं श्रद्धांजली।
    वहीं कुछ लोग जो सुनील शाह जी के पैर दाब के आगे बढ़े वो आज शाह जी को श्रद्धांजली देने के नाम पर उन्हे घनघोर शराबी बताने पर तुले हुए हैं। बता रहे हैं के शाह जी कैसे शराब की एक बूंद भी नहीं छोड़ते थे। ऐसे लोग बड़े-बड़े लोगों से शराब मुर्गे का अपना रिश्ता बखान कर अपने को महान साबित करने की कोशिश करते रहते हैं। अरे भाई शाह जी ने अपना पूरा जीवन पत्रकारिता को समर्पित कर दिया और तुम उनके साथ सिर्फ मुर्गा शराब खा पीकर अपने को उनके बराबर साबित करने पर तुले हो। मैंने आज तक सार्वजनिक रूप से कहीं भी शाह जी की शराबनोशी का कोई किस्सा नहीं सुना और कुछ लोगों ने बड़े आराम से शाह जी के बारे में अपने फेसबुक वॉल पर उन्हे घनघोर शराबी लिख दिया। ये भी न सोचा कितना दुख होगा शाह जी के परिजनों को ये सब पढ़कर। कितना दुख हो रहा होगा शाह जी की आत्मा को, उनके पैर दाब के आगे बढ़ने वाला कितनी जल्दी अपनी औकात भूल गया।

    देखिए क्या लिखा है महान लोगों ने:

    शाहजी! कैसे भुला पाएंगे आपको

    सुनील शाह जी चले गए। ………. एक बार शाहजी को पंडितजी ने बता दिया कि छह महीने घर में दारू और मांस नहीं लाना है। वह अपने पास शराब का अच्छा कलेक्शन रखते थे। सारी बोतलें कार में भरकर मेरे घर ले आए…और बेड के नीचे रखवा दीं। ….हिदायत भी देते गए थे कि एक भी बूंद कम हुई तो तुम्हारी खैर नहीं। उन दिनों ऐसे मौके भी आए जब शाहजी को कुछ वरिष्ठ जनों के साथ बैठना होता था, तो मेरे घर पर ही बैठते। …….

    ………पिछले साल मेरे कहने पर दिनेशपुर में वह एक कार्यक्रम में शिरकत करने गए थे। लौटते वक्त बोले, आज तुम्हें अफगानी चिकन खिलवाता हूं। घर पर गए …दो-दो पेग लिए और ढेर सारा चिकेन मसाला के साथ हम लोगों ने अफगानी चिकन खाया। शाहजी से उस दिन यह मेरी आखिरी मुलाकात थी……….

    अजीत बिसारिया, अमर उजाला, के फेसबुक वॉल से

Leave a Reply

Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement