चैनल का मालिक समय से पहले चैनल चलानेवाले अधिकारी को कर्मचारियों की पगार दे देता था। लेकिन वो अधिकारी पहली या सात तारीख़ को भी कर्मचारियों को पगार नहीं देता था। बताते हैं कि वो उस रक़म को ब्याज़ की ख़ातिर व्यापारियों को दे देता था। कम पगार वाले कर्मचारियों के बहुत रोने –गाने पर वो 20-22 तक सैलरी देता था। यानी हाड़ तोड़ मेहनत करनेवाले कर्मचारियों को उनकी मेहनत का पैसा जैसे-तैसे महीने के आख़िर में मिलता था। मझोले और बड़े कर्मचारियों का तो और भी बुरा हाल था। उन्हें तो पगार उस समय मिलती थी, जब दूसरा महीना ख़त्म होने वाला होता था। कोढ़ पर खाज वाली बात तो ये भी थी कि चैनल के एक कार्यकारी संपादक महोदय सीईओ साहिब को रोज़ ये ज्ञान देते थे कि पत्रकारों को समय पर और ज़्यादा पैसे नहीं देने चाहिए। क्योंकि ज़्यादा सुखी होने पर ऐसे मुलाज़िम सीनियरों को दुखी करने की राजनीति करने लगते थे।
ख़ैर, चैनल के मुखिया और प्रधान संपादक को तरह-तरह के शौक़ थे। चैनल के पत्रकारों-ग़ैर पत्रकारों के घर में चूल्हा जलाने के लिए भी पैसे भले न हो लेकिन मुखिया जी के शौक़ में कोई कमी नहीं थी। सूर्य अस्त होते ही वो मस्त होने की तैयारी करने में लगे जाते थे। चैनल के कई बड़े अधिकारी उनके सांध्य आचमन के इंतज़मात में लग जाते थे। दफ्तर में वो बड़ी श्रद्धा के साथ सांध्य आचमन किया करते थे। लेकिन बदनामी न हो इसलिए जब भी कोई कर्मचारी सामने पड़ जाता तो वो अपनी गिलास किसी शरणागत कर्मचारी के हवाले कर देते थे। इसके अलावा उन्हें परनारीगमन का भी शौक़ था। एंकर और रिपोर्टर बनाने के नाम पर वो बहुत सुख भोग चुके थे। उनकी पत्नी परदेश में रहती थीं। इसलिए इधर-उधर मुंह मारने में उन्हें डर नहीं लगता था। ये अलग बात है कि कई बार उनका दांव उल्टा भी पड़ गया।
चुनाव आते ही सीईओ –प्रधान संपादक की सारी बांछें खिल जाती थीं। क्योंकि ख़बर दिखाने के नाम पर पार्टियों और नेताओं से मोटी रक़म मिल जाया करती थी। कुछ बोटियां वो कुछ पत्रकारों के भी सामने डाल देते थे। इस काले पैसे का कोई हिसाब बही तो होता नहीं था। लिहाज़ा वो मालिक को बंद कमरे में अपने हिसाब से हिसाब समझा देते थे। रही सही कसर वो ब्यूरो का ठेका देकर पूरी कर लेते थे। बताते हैं कि उन्होंने एक ऐसे आदमी को भी ब्यूरो दे रखा था, जिसका दूर-दूर तक पत्रकारिता या मीडिया से कोई सरोकार नहीं था। वो चैनल आईडी और आई कार्ड के नाम पर दलाली करता था। ख़ुद भी खाता था और ऊपर भी खिलाता था। ऊपर वालों को और भी कई तरीक़ों से ख़ुश रखता था। समय-समय पर महंगी-महंगी गिफ्ट भी दिया करता था। लेकिन कहते हैं न कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती। ऐसा ही सीईओ-प्रधान संपादक के साथ भी हुआ। उनका भांडा मालिक के सामने फूट चुका था। मालिक ने एक दिन उनको उनके चंपूओं के साथ बाहर का रास्ता दिखा दिया।