Connect with us

Hi, what are you looking for?

सुख-दुख

कुमार अशोक की मौत और जिले की पत्रकारिता : अब भी न चेते तो बहुत देर हो जाएगी….

(स्वर्गीय कुमार अशोक : अब यादें ही शेष….)

कुमार अशोक का यूं चले जाना एक सबक है…. आज यह सूचना आई… ”चन्दौली मुगलसराय जनपद के वरिष्ठ पत्रकार हिंदी दैनिक हिन्दुस्तान के पूर्व प्रभारी व मुगलसराय मेल के प्रधान संपादक श्री कुमार अशोक जी का आज (बुधवार) भोर में वाराणसी स्थित चितईपुर के आदित्य अस्पताल में निधन हो गया। उनका पार्थिव शरीर प्रातः साढे सात बजे तक उनके रविनगर स्थित आवास पर पहुँच जायेगा। बताते चलें कि वे काफ़ी दिनों से किडनी के रोग से ग्रसित थे।” इन लाइनों पर पढ़ने के बाद मैं सन्न रह गया। की-बोर्ड पर उंगलियां नहीं चलीं।

(स्वर्गीय कुमार अशोक : अब यादें ही शेष….)

कुमार अशोक का यूं चले जाना एक सबक है…. आज यह सूचना आई… ”चन्दौली मुगलसराय जनपद के वरिष्ठ पत्रकार हिंदी दैनिक हिन्दुस्तान के पूर्व प्रभारी व मुगलसराय मेल के प्रधान संपादक श्री कुमार अशोक जी का आज (बुधवार) भोर में वाराणसी स्थित चितईपुर के आदित्य अस्पताल में निधन हो गया। उनका पार्थिव शरीर प्रातः साढे सात बजे तक उनके रविनगर स्थित आवास पर पहुँच जायेगा। बताते चलें कि वे काफ़ी दिनों से किडनी के रोग से ग्रसित थे।” इन लाइनों पर पढ़ने के बाद मैं सन्न रह गया। की-बोर्ड पर उंगलियां नहीं चलीं।

Advertisement. Scroll to continue reading.

उनके साथ इतने साझे पल इतनी यादें जुड़ी हैं कि कैसे क्या कहूं, समझ में नहीं आया। उनके जीवन के बारे में आज अभी कुछ नहीं लिखा-कहा तो आगे कहने बताने का मतलब नहीं होगा. एक पत्रकार साथी का असमय यूं चला जाना बहुतों के लिए एक सामान्य सी घटना होगी. मीडिया संस्थानों के लिए शायद एक पत्रकार का चले जाना कोई बड़ी बात नहीं होगी, लेकिन जिलों में बिना पारिश्रमिक या नाम मात्र के मेहनताने पर जूझते रहने वाले अखबारों-चैनलों के पत्रकारों के लिए यह सबक है. बड़ा सबक. एक पत्रकार का आर्थिक दिक्कतों के बीच यूं मर जाना बड़ी बात है. निराशाजनक भी. दर्दनाक और खौफनाक भी. अब भी नहीं चेते तो शायद बहुत देर हो जाएगी. यह हमारा भविष्य भी हो सकता है. रोज ऐसी मौतें आती रहेंगी, आज उनकी तो कल हमारी. यह सिलसिला यूं ही चलता रहेगा. किसी को कोई फर्क नहीं पड़ेगा.

आलसी तो नहीं हूं, पर अंतर्मुखी होने के चलते ज्यादातर मसलों पर पोस्ट लिखने से बचता हूं. चाहकर भी नहीं लिखता, पर आज नहीं. क्योंकि एक पत्रकार कुमार अशोक का यूं चले जाना केवल सामान्य मौत का मामला नहीं है. एक ऐसी मौत का मामला है, जो सबके लिए लड़ता रहा, लेकिन अपने लिए नहीं लड़ पाया. उनकी मौत को भुला पाना बहुत मुश्किल है. और तकलीफदेय भी. जीवन भर अभावग्रस्त रहने के बाद भी चेहरे पर हंसी का भाव कभी नहीं मिटने देना ही कुमार अशोक की खासियत थी. इसी खासियत के साथ आखिर तक जिए और मर भी गए. बिना किसी शिकवा-शिकायत के. हर व्यक्ति में कुछ अच्छाई होती है तो थोड़ी बुराई भी. कुमार अशोक में भी रही होंगी, लेकिन उस शख्स के चेहरे पर शायद ही कभी किसी ने परेशानी के भाव देखे होंगे, जब उनकी जेब में दस रुपए भी नहीं होते थे, तब भी. जब वह पूरी तरह से ठन-ठन गोपाल होते थे, तब भी. 

Advertisement. Scroll to continue reading.

कुमार अशोक से हमारी अच्छी जान-पहचान तो पत्रकारिता का ‘धंधा’ अपना लेने के बाद हुई, लेकिन उन्हें जानने का सिलसिला तब शुरू हुआ, जब हम बनारस में नया-नया कंम्यूटर सीखने जाया करते थे. मुगलसराय-बनारस आने-जाने के दौरान अपनी बातों-कविता-कहानियों-मुहावरों-चुटकुलों से भीड़ को अपनी ओर आकर्षित करने की कला ने कुमार अशोक को एक पहचान दी थी. खिलंदड़ शख्स होने की पहचान. मस्तक-मौला होने की पहचान. इससे इतर भी पहचान थी रोज यात्रा करने वाले मुगलसराइयों के बीच, एक पत्रकार होने की पहचान. वह हिंदुस्तान अखबार के संवाददाता थे. पत्रकार थे. यह शायद 1996-97 का दौर था. तब पत्रकारिता इज्‍जत  की निगाह में शामिल हुआ करती थी. उस समय हिंदुस्तान अखबार लखनऊ से छपता था. बनारस में इसके कदम नहीं पड़े थे. वह हिंदुस्तान अखबार के चंदौली के प्रभारी थे, उसी साल शायद चंदौली को बनारस से काटकर नया जिला बनाया गया था. खूब आंदोलन-प्रदर्शन होते थे, इसको लेकर खूब कहानियां थीं कुमार अशोक के पास. खैर. 

कुमार अशोक रोज तो नहीं, पर अक्सर बनारस से मुगलसराय आते समय टकरा जाते थे. डूप्लीपकेट पंजाब मेल की एसी बोगी में. 3050 डाउन ऐसी ट्रेन थी, जो दून-पंजाब मेल के बाद ज्यादातर बनारस में काम करने वालों के मुगलसराय लौटने की पसंदीदा ट्रेन थी. 10 डाउन दून और 06 डाउन पंजाब मेल तो छात्रों को बनारस से मुगलसराय लौटाकर ले जाने वाली ट्रेन थी. 3050 के बाद केवल 3308 डाउन ही बचती थी, जिसे कोई मुगलसराई मजबूरी में ही पकड़ना चाहता था. लिहाजा 3050 में ही अक्सर कुमार अशोक हम जैसे कई लोगों से टकरा जाते थे, और हमारे जैसों की भीड़ उनके आसपास ही बैठना पसंद करती थी. इसलिए कि मुगलसराय तक का रास्ता आनंद से कट जाए. इस ट्रेन से यात्रा करने वाले यात्री लोकल भीड़ देखकर अंदर से जल-भुन जाते थे, लेकिन मुगलसराय आते-आते कुमार अशोक की बातें उन पर भी असर कर चुकी होती थीं. वो भी काशी स्टेशन पर ही अपना टेंशन छोड़कर आनंद के साथ मुगलसराय तक आते थे. पूरा हंसते-मजा लेते.

Advertisement. Scroll to continue reading.

यह समय काल बीत चुका था. वर्ष 2000 के आसपास हिंदुस्तान अखबार बनारस से लांच हो चुका था. फ्री में अखबार की सेवा करने वाले कुमार अशोक को उनका संस्थान कुछ सौ रुपए देने लगा था. गौर कीजिए, कुछ सौ. हिंदुस्तान के बनारस में आने के बाद कुमार अशोक का रुतबा तो बढ़ गया, लेकिन आमदनी नहीं बढ़ी. कुछ सौ रुपए पारिश्रमिक और विज्ञापनों के जरिए मिलने वाला कुछ परसेंट कमीशन ही उनकी अर्जित आय थी. कोई गाहे-बगाहे मदद कर दे तो अलग बात थी. संस्थान को विज्ञापन दिलाने के लिए भी जी-जान से मेहनत करते थे. शायद इसलिए भी कि उनकी अभाव ग्रस्त जिंदगी में कुछ मदद मिले. पहले संस्थात में अकेले थे, जब जिले में अखबार बढ़ने लगा तो अखबारी परिवार भी बढ़ा. सामंजस्य. बैठाने में कई तरह की कठिनाइयां भी उनके सामने आईं. कई तरह की समस्‍याएं भी हुईं. अमूमन वो सारी समस्याएं कुमार अशोक के सामने आईं, जो अखबारी संस्थानों में आती हैं. या जानबूझकर लादी जाती हैं. 

कुमार अशोक खबरों के संकलन के अलावा हिंदुस्तान संस्थान के बड़े अधिकारियों का मुगलसराय से टिकट कराने से लेकर उसे कन्फर्म कराने तक का सारा काम लगातार करते रहे, दिन-रात करते रहे, लेकिन संस्थान ने उन्हें कभी परमानेंट होने लायक नहीं माना. किसी को उन पर रहम नहीं आया. उन्हें केवल मुगलसराय का प्रभारी बनाकर लॉलीपाप थमा दिया गया. पर, कागजों में वह थे संवाद सूत्र ही. यही मुझे एक मात्र सूत्र लगता है, जिसे मैं कभी सुलझा नहीं पाया. खैर, सैलरी उनकी तब भी नहीं बढ़ाई गई. इधर, जब मैं दैनिक जागरण छोड़ने को मजबूर हुआ तो तत्कालीन जिला प्रभारी आनंद सिंह की कृपा से कुछ समय हिंदुस्तान के साथ भी जुड़ा. कंटेंट के आदमी को विज्ञापन पकड़ा दिया गया. यह पारी लंबी नहीं चली. काम रास नहीं आया. दो महीनों में अंदरूनी राजनीति से तंग आकर मैंने दिल्ली का रूख कर लिया. खैर, इसके बाद कई बदलाव हिंदुस्तान अखबार, चंदौली में हुए. बाद में जो भी हुआ हो, पता चला कि कुमार अशोक को हिंदुस्तान से हटा दिया गया है. 18 साल जुड़े रहने के बावजूद कुमार अशोक को अखबार से वनवास दे दिया गया. एक पल भी उनके संस्थान ने उनके समर्पण और मेहनत को याद नहीं किया.

Advertisement. Scroll to continue reading.

हिंदुस्तान से हटने के बाद तो कुमार अशोक अंदर से टूट गए. पूरी तरह टूट गए. पहली बार तब टूटे थे, जब उनका जवान बेटा दुर्घटना में असमय काल का शिकार हो गया. उस दुख को तो सहन कर लिया, लेकिन यह दुख भारी पड़ा. इस घटना के बाद से ही उनकी शारीरिक परेशानियां शुरू हो गईं. शायद उन्होंने अपने को कभी हिंदुस्तान से अलग माना ही नहीं था. देखा ही नहीं था. शायद सोचा भी नहीं था. कुमार अशोक ने एक कोशिश अपने घर पर प्ले  स्कूल खोलने का भी किया, लेकिन बड़े संसाधन वाले स्कूलों के आगे यह प्रयोग टिक नहीं पाया. इसे बंद करना पड़ गया. हिंदुस्तान से हटने के बाद उन्होंने कहीं और नौकरी नहीं की. खुद का अखबार ‘मुगलसराय मेल’ निकलाना शुरू किया, लेकिन जैसी इंसानी फितरत होती है, बड़े बैनर से हटते ही लोगों ने उन्हें नोटिस करना बंद कर दिया. कुमार अशोक को जो लोग खबर छपवाने के नाम पर हाथों-हाथ लिया करते थे, वो किनारा करने लगे. कुछ पर्सनल संबंधों के बल पर विज्ञापन जुटाकर कुमार अशोक ने ‘मुगलसराय मेल’ को पटरी पर लाने का प्रयास किया, लेकिन उनकी यह कोशिश प्लेटफार्म के बाहर नहीं निकल पाई. 

‘मुगलसराय मेल’ शुरू करने के बाद कुमार अशोक से हुई आखिरी मुलाकात में उन्हों ने कहा था कि किसी अखबार की नौकरी से अच्छा है कि अपना अखबार निकाला जाए. मैंने भी कहा कि आपने अब सही निर्णय लिया है. बड़े संस्थानों की फोबिया से बाहर निकलना जरूरी है. किसी अखबार या चैनल की नौकरी से बढि़या है कि कुछ अपना किया जाए. मैंने भड़ास का उदाहरण भी दिया, क्यों कि उन दिनों भड़ास के जरिए ही पत्रकारिता का हाल-चाल लेता रहता था. खर्चा-पानी भी इसी से चल रहा था. खैर, उसके बाद केवल एक बार फोन पर बात हुई, फिर ना तो कुमार अशोक से मिल पाया और ना ही बात हो पाई. अब जब आज पता चला कि कुमार अशोक चले गए तो मन अंदर तक व्याकुल हो गया. बेचैन हो गया. अपना भविष्य सा नजर आने लगा. बौखलाहट भी होने लगी पत्रकारिता को लेकर. पैसे के अभाव में ही कुमार अशोक समय से पहले चले गए. अगर पैसे होते तो किडनी का खराब हो जाना कोई बड़ी बीमारी नहीं है. ट्रांसप्लांमट भी होती हैं किडनियां. बड़े लोगों की. सांसद अमर सिंह एक भी उदाहरण हैं. कई और उदाहरण बिखरे पड़े होंगे.

Advertisement. Scroll to continue reading.

दरअसल, कुमार अशोक का यूं ही चले जाना, सबक है उन पत्रका‍रों को लिए, जो बिना पैसे या मामूली पैसे में अपना सब कुछ दांव पर लगा देते हैं. जवानी. परिवार. सामाजिकता. दोस्ती. यारी. एकता. खैर, बुढ़ापा तो शायद कुछ को ही नसीब हो पाता होगा. ऐसे पत्रकारों के समक्ष आर्थिक दिक्कत हर वक्त बनी रहती है. बच्चों का फीस भरना तक पहाड़ जैसा लगता है. मां-बाप की जरूरतों की कौन कहे, पत्नी की जरूरतें ही भारी लगने लगती हैं. अब इस स्थिति में दो ही रास्ते हैं कि या तो भ्रष्ट  हो जाया जाए. दलाली में जुट जाया जाए या फिर गरीब-बेचारगी की मौत मरने की तैयारी कर ली जाए. पर, एक अन्य उपाय यह भी है कि पत्रकारिता करते हुए कुछ नए रास्ते तलाशें जाएं. कुछ नया इनवेंट किया जाए. कोई अलग-काम धंधा किया जाए. पूंजीवादी हो चुके संस्थानों को कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपने फ्री में या नाम मात्र की धनराशि पर उनके लिए कितना खून-पसीना बहाया है. उनकी जरूरत जिस दिन खत्म हो गई आपको लात मारकर बाहर निकाल देंगी. बिना एक पल गंवाए. हिंदुस्तान, दैनिक जागरण जैसे संस्थानों को तो लगता है कि उन्होंने जिलों में पत्रकार बनाकर एहसान कर दिया है, उनके संवाद सूत्र जमकर खाने-पीने का सूत्र लगा रहे हैं. इसी सूत्र से धनवान बनते जा रहे हैं. संस्थान को इनके काम के बदले पारिश्रमिक देने की को‍ई आवश्यकता नहीं है. खैर, इसमें बहुत दोष हम पत्रकारों का भी है. फ्री में काम करने को उतावले हुए रहते हैं. मरे जाते हैं.   

पत्रकार, जो भ्रष्ट हैं, उन्हें कोई दिक्कत नहीं. जो दलाल हैं मस्त हैं. जो यह काम नहीं कर सकते अब उनके लिए जरूरी है कि अब अपने भीतर एकता पैदा करें. बिना एक हुए अब कोई सुनने वाला नहीं. सरकार और ब्यूरोक्रेसी तो पत्रकारों को आपस में लड़ाकर अपना उल्लू  सीधा कर रही है. फ्री की नौकरी करने वाले पत्रकार को खुद को जिले का डीएम-कलक्टर समझने वाले तेवर और मानसिकता से बाहर निकालना पड़ेगा. जब तक खुद को तोप समझने की मानसिकता से जिले या कहीं के भी पत्रकार बाहर नहीं निकलते, अपने आपसी इगो को किनारे नहीं रखते तब तक कई कुमार अशोक ऐसे ही मरते रहेंगे और हम बस की-बोर्ड दबाकर उन्हें श्रद्धाजंलि देते रहेंगे. थोड़ा लालच और इगो छोड़ देने से सबका भला होता है, तो छोड़ देने में कोई बुराई नहीं है. यह मेरे लिए भी लागू होता है और बहुतों के लिए भी.

Advertisement. Scroll to continue reading.

लेखक अनिल सिंह लखनऊ के सरोकारी और प्रतिभाशाली पत्रकार हैं. वे दिल्ली में कई न्यूज चैनलों में काम कर चुके हैं. भड़ास4मीडिया के कंटेंट एडिटर भी रहे हैं. उनसे संपर्क 9984920990 या anil [email protected] के जरिए किया जा सकता है.

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement