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सियासत

ट्रेन में चाय बेचने से लेकर 7 रेसकोर्स तक का सफरः नरेंद्र मोदी- एक शोध

कुलदीप सिंह राघव अपनी पीढी के उभरते लेखक हैं. हाल ही में उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जीवन काल पर एक छोटे-मोटे शोध प्रबंध जैसी एक किताब लिखी है. किताब भारतीय जनता पार्टी और संघ के स्वयं सेवकों में कितनी लोक प्रिय होगी इसका जायजा तब ही हो जाता है जब पूर्व सासंद राजनाथ सिंह ‘सूर्य’ उसकी समीक्षा खुद लिखते हैं. किताब की समीक्षा कुछ इस तरह हैः- कुलदीप सिंह राघव लिखित नरेंद्र मोदी- एक शोध की उपादेयता के बारे में अपना अभिमत प्रगट करूं इसके पूर्व मेरे लिए यह बता देना आवश्यक है कि सर्वप्रथम 1984 में गुजरात विधानसभा चुनाव के समय एक पत्रकार के रूप में नरेंद्र मोदी से मेरी भारतीय जनता पार्टी के अहमदाबाद कार्यालय में भेंट हुई थी और उन्होंने परिणाम का जो आंकलन पेश किया था, वह एकदम सटीक साबित हुआ। पत्रकारिता और कुछ काल के लिए राजनीतिक सक्रियता के दौरान मुझे नरेंद्र मोदी से बार-बार मिलने का अवसर मिला। मेरा अहमदाबाद साल में कई बार जाना इसलिए होता रहा क्योंकि मेरा आधा परिवार वहीं रहता है। मैंने नरेंद्र मोदी से उनके विभिन्न दायित्व निर्वाहन के दौरान संपर्क की जानकारी देना इसलिए आवश्यक समझा क्योंकि कुलदीप सिंह राघव ने जो शोध किया है, उसकी प्रामाणिकता की पुष्टि कर सकूं। नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री के रूप में 2002 में गुजरात वापसी के साथ ही भयावह भूकंप और हिला देने वाले सांप्रदायिक तांडव की अनेक कोणों से गत डेढ़ दशक में जिस रूप में चर्चा हुई है उससे कुलदीप सिंह राघव द्वारा उदहृत मोदी का यह कथन सार्थक साबित होता है कि ‘आप मुझे पसंद करें या नफरत-मेरी उपेक्षा नहीं कर सकते।’ नरेंद्र मोदी के परिवार, उनके प्रारंभिक काल से प्रधानमंत्री का दायित्व संभालने तक के घटनाक्रम का सटीक संकलन और आलोचना, समीक्षाओं तथा उनके व्यक्तित्व के आंकलन को संक्षेप में समेट लेना बहुत कठिन है। जो व्यक्ति एक स्टेशन पर बाल्यकाल में पिता के साथ चाय बेचने का काम करता रहा हो वह देश का प्रधानमंत्री कैसे और क्यों बना उसके प्रत्येक पहलू पर सैकड़ों पृष्ठ का ग्रन्थ तैयार हो सकता है फिर भी राघव ने उसे संक्षेप में समेटने का प्रयास किया है। पूरी पांडुलिपि पढ़ने के बाद मुझे ऐसा नहीं लगा कि नरेंद्र मोदी के जीवन का कोई संदर्भ अछूता रह गया है। हां उसका विस्तार जितना हो सकता है, उसका अभाव अवश्य खटने वाला है। मैं शोध के संकलन की संपूर्णता की सराहना किए बिना नहीं रह सकता, विशेषकर इसलिए भी कि राघव ने विपरीत अभिव्यक्तियों की उपेक्षा नहीं की है। भूमिका में कुलदीप सिंह राघव ने जनवरी 2014 से जुलाई 2014 के बीच ‘‘मोदी की जनसभाओं और कई महत्वपूर्ण पहलुओं को संकलित’’ किया है। राघव ने स्वयं यह स्वीकार किया है कि यह पुस्तक ‘संकलन’ भर है। संभवतः यही कारण हो सकता है कि लेखक ने अपनी ओर से कोई टिप्पणी नहीं की है। जो लोग अति संक्षेप में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्म, परिवार और उनके सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन के घटनाक्रम का अवलोकन करना चाहते हैं उनके लिए ‘नरेंद्र मोदीः एक शोध’ उपयोगी साबित होगी। मैं कुलदीप सिंह राघव को इसके लिए बधाई देता हूं। मेरी शुभकामना और अपेक्षा है कि इस पुस्तक से पत्रकारिता की युवा पीढ़ी को ‘नित्य शिकार कर खाने की’ परिधि से निकलकर कुछ ठोस योगदान की प्रेरणा मिलेगी।

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