वाराणसी। आज घुंघरू उदास है। अपनी विषिश्ट शैली में उन्हें खनक देती कथक नृत्य का सितारा अस्त हो गया। मुबंई के अस्पताल में पिछले कई दिनों से कोमा में चल रही सितारा देवी की सांस 94 साल की उम्र में थम गयी। भले ही गुरूदेव रविन्द्र नाथ टैगोर ने 16 साल की उम्र में उनका नृत्य देख उन्हें नृत्य साम्राज्ञिनी की उपाधि दी हो पर जिस शहर में वो लम्बे समय तक रहीं हों उसी शहर ने उन्हें भुला दिया था।
अब भले ही उनके निधन के बाद शहर के कला-संस्कृति के प्रेमी उनके नाम पर लम्बा-चौड़ा व्याख्यान दें, श्रद्धांजलि के नाम पर उनकी तस्वीर रख पुष्प अर्पित करें पर कबीरचौरा स्थित उनके आवास के बाहर लगा शिलापट्ट तो न जाने कब से धूल फांक रहा था। तब किसी को सितारा देवी की याद नहीं आयी। सास्ंकृतिक नगरी कहे जाने वाले काशी के कला-जगत की अन्दरूनी तस्वीर बड़ी भयावह है। आपसी गुटबाजी के तानेबाने के चलते यहां जिन्दा लोग उनके नाम से जुड़ी चीजों तक का सम्मान नहीं कर पाते। हां, कला के नाम पर गाल बजाने वालों की यहां कमी नहीं है।
सितारा जी तो अब नहीं रहीं। भले ही उनका जन्म कोलकाता में हुआ लेकिन बनारस से उनका अटूट नाता था। कभी लंदन के एल्बर्ट हाल में नृत्य प्रस्तुत कर कथक नृत्य को उचाईयों तक ले जाने वाली सितारा देवी के नाम पर कबीरचौरा स्थित उनके घर के बाहर शिलापट् तो जरूर लगा दिया गया लेकिन वो शिलापट्ट न जाने कब से जमीन पर धूल-धूसरित होता रहा। किसी ने उसकी सुध तक नहीं ली। बेहतर होता कि हम कलाकार के जीते जी भी उससे जुड़े यादों को समेटते-सहेजते और उसका सम्मान करते। लेकिन यहां तो लोग तब याद आते हैं, जब सम्मान मिलता है, या फिर हम दुनिया से रुखसत हो जाते हैं। ऐसे में कहना पड़़ता है, बाद मरने के सलाम आया तो क्या।
बनारस से युवा और तेजतर्रार पत्रकार भाष्कर गुहा नियोगी की रिपोर्ट. संपर्क: 09415354828