संजय कुमार सिंह-
आज द टेलीग्राफ का बर्थ-डे है। 40 साल का हो गया। टेलीग्राफ होने के अलावा इसकी खासियत यह भी है कि यह 40 साल से लगभग वैसा ही है।
इसके साथ और बाद में शुरू हुए अंग्रेजी और हिन्दी के जो प्रकाशन व संस्थान बंद हो गए उनके मुकाबले यह निश्चित रूप से बहुत अच्छा है। हर लिहाज से। जो चल रहे हैं उन्हें देखिए तो लगता है कि रीढ़ बेचकर उनका ये हाल है तो रीढ़ के साथ क्या होता।
कहने की जरूरत नहीं है कि जो प्रकाशन और संपादक पतन के शिकार हुए उनकी ना टीम थी और ना सेकेंड लाइन का टीम लीडर। जो ना कॉरपोरेट हो पाए ना बनिये की दुकान रह पाए।
हालांकि, पत्रकारिता में अगर कुछ बचा रह गया है तो उन्हीं लोगों के चुने और छांटे हुए लोग हैं जो झंडा उठाए डटे हुए हैं। बाकी और उनके बनिये बने रहने के लिए शर्मनाक समझौता कर चुके हैं।