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सुख-दुख

टुंडे कबाबी ब्रांड को मशहूर करने वाले स्वाद के जादूगर हाजी रईस का इंतक़ाल

डाक्टर शारिक़ अहमद ख़ान-

ग़ैर शौक़ीनों को ख़बर छोटी लगेगी लेकिन शौक़ीनों के लिए ख़बर बड़ी है और ख़बर बुरी है कि जिनकी वजह से टुंडे कबाबी मशहूर हुआ, लखनऊ की पहचान बना, लखनऊ का ब्रांड बना, उन स्वाद के जादूगर हाजी रईस का कल दो दिसम्बर सन् दो हज़ार बाइस को निधन हो गया है। टुंडे का मतलब लूला होता है, जैसे लंग का मतलब लंगड़ा होता है।

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मुराद अली उर्फ़ टुंडे की तस्वीर

टुंडे किसी कबाब का नाम नहीं है,जैसे शामी कबाब और नरगिसी कबाब वग़ैरह कबाब के नाम हैं।उन्नीसवीं सदी में जन्मा मुराद अली भोपाल के नबाब के यहाँ ख़ानसामा था,भोपाल से लखनऊ किसी खाना बनाने के मुक़ाबले में आया।उस दौर में लखनऊ के नबाबों के वंशजों में भी पुरानी ठसक थी और अपने पुरखों की तरह ऐसे तमाम खाना पकाने का हुनर दिखाने वाले मुक़ाबले रखते।लखनऊ के किसी पोपले मतलब दंतहीन लेकिन शौक़ीन नवाब के लिए उसने ऐसे गलावटी कबाब बनाए जो मुंह में रखते ही घुल जाएं।कबाब पसंद किए गए।

मुराद अली लखनऊ में ही बस गया।दुर्घटना से उपजी नासूर की बीमारी की वजह से उसका एक हाथ कटा था,उसके दोनों हाथों में से सिर्फ़ एक हाथ काम करता।उर्दू में लूले को टुंडा भी कहा जाता है।उसने सबसे पहले लखनऊ के चौक अकबरी गेट की तहसीन की मस्जिद वाली गली में मस्जिद के पास पर एक झोपड़ी में उम्दा शामी और गलावटी कबाब तैयार करना सन् 1905 में शुरू किया।उसके कबाब चल निकले और ये टुंडा व्यक्ति हर ख़ास-ओ-आम में टुंडे कबाबी के नाम से मशहूर हो गए।

टुन्डा साहब अपनी ज़िन्दगी जीने के बाद इस दुनिया से चले गए लेकिन उसके कबाब की रेसिपी यहीं रह गई जिसे उनके पुत्र हाजी रईस ने आगे बढ़ाया और सही मायनों में हाजी रईस ने ही टुन्डे कबाबी को लखनऊ की एक पहचान बना दिया और टुन्डे की इंटरनेशनल पहचान उन्हीं की मेहनत से बनी।हाजी रईस टुंडे की एक ब्रांच जब लखनऊ के अमीनाबाद में लाए तो टुंडे पहले से अधिक मशहूर होना शुरू हो गया था,आज लखनऊ समेत देश के तमाम हिस्सों में इनकी तमाम ब्रांच हैं।

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टुंडे कबाबी की जो पुरानी दुकान लखनऊ के अकबरी गेट की तहसीन की मस्जिद वाली गली में है वहाँ आज भी पांच रूपये में कबाब मिल जाते हैं,कबाब पराठा वहाँ का मशहूर है,लेकिन वो कबाब बड़े मतलब बफ़ेलो मीट के होते हैं।अमीनाबाद वाली ब्रांच में टुंडे के मटन कबाब ही मशहूर हैं।टुंडे की कई ब्रांचें भी जगह-जगह हैं लेकिन जो लज़्ज़त टुंडे की चौक की तहसीन की मस्जिद की गली वाली ब्रांच के कबाबों में हमने पायी वो उनके कबाब के मामले में कहीं और नहीं पायी।

कबाब की असली लखनवी लज़्ज़त लेनी हो टुंडे के यहाँ जाना चाहिए।यूँ तो बस टुंडे कबाबी तक ही लखनऊ के कबाबियों की दुनिया नहीं है,लखनऊ के उन कबाबियों का संसार विशाल है, लेकिन टुंडे लखनऊ की पहचान बड़ी है,उनके कबाबों की अलग और अनोखी लज़्ज़त है।टुंडे के कबाबों की तमाम हस्तियाँ मुरीद रहीं।जैसे एक उदाहरण दें कि फ़िल्म स्टार ट्रेजिडी किंग दिलीप कुमार जब भी लखनऊ आते तो हाजी रईस के हाथ के बने टुंडे के कबाब ज़रूर पसंद करते,उनके लिए होटल में कबाब जाता,दिलीप कुमार की एक तस्वीर टुंडे की दुकान अमीनाबाद में लगी हमने देखी है।

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हमें तो टुंडे के कबाब पसंद ही हैं,हम तो जाते ही हैं नोश फ़रमाने लेकिन मेरा कोई क़रीबी लखनऊ आता है तो अक्सर टुंडे के कबाबों की मांग करता है,हम मंगाते हैं,कई बार साथ लेकर भी दुकान जाकर खिलाते हैं,पैक कराकर लखनऊ के एक तोहफ़े के तौर पर जाते समय देते हैं।अक्सर दुबई मतलब यूएई वग़ैरह में रहकर काम करने वाले मेरे इंडिया के दोस्त रिश्तेदार मांग करते हैं कि किसी के हाथों टुंडे के कबाब भेजवा दीजिए,कोई परिचित जाता होता है तो हम जहाज़ से लखनऊ से कबाब भेज देते हैं।

इसी तरह लखनऊ में जितने भी टूरिस्ट आते हैं वो अगर नॉनवेज के शौक़ीन हैं तो टुंडे कबाबी अमीनाबाद उनका तीर्थ है। टुंडे को दुनिया में मशहूर करने वाले और स्वाद का नायाब तोहफ़ा देने वाले हाजी रईस के निधन पर उनको श्रद्धांजलि। टुंडे पर ये पोस्ट दो बरस पहले लिखी थी, आज संशोधन समेत पुन:जारी। मेरे कैमरे की तस्वीरों में तहसीन की मस्जिद चौक की गली वाली टुंडे की पुरानी दुकान, मुराद अली उर्फ़ टुंडे की तस्वीर और अमीनाबाद का टुंडे कबाबी रेस्त्रां।

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