: इलेक्ट्रानिक मीडिया को शर्म क्यों नहीं आती? : जल्द खबर देने और ब्रेकिंग न्यूज चलाने की अंधी होड मीडिया को सच से दूर कर रही है। ये बात छोटे और नये चैनलों की नहीं है। देश के प्रमुख टी.वी. चैनल भी झूठी और बेसिर-पैर की खबरें चलाने लगे हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया के सच से दूर होने और झूठी खबरें प्रसारित करने का एक बड़ा प्रमाण 21 अप्रैल को मिला। उत्तराखंड हाई कोर्ट की डिवीजन बैंच के आदेश के हवाले से देश के लगभग सभी न्यूज चैनल बड़े जोर शोर के साथ झूठी खबर चलाते रहे।
इन चैनलों पर हाई कोर्ट के हवाले से 21 अप्रैल को दोपहर बाद से खबर प्रसारित होने लगी थी कि कांग्रेस के बागी विधायकों की सदस्यता खत्म कर दी गई। एक दो बार नहीं, बल्कि देर रात तक लगभग सारे चैनल इस झूठ को सच बता कर अपने दर्शकों को गुमराह करते रहे। भला हो अखबारों का… उन्होंने ये झूठ नहीं छापा।
हाई कोर्ट डिवीजन बैंच के फैसले की जानकारी देने के लिए जिन सरकारी और निजी वकीलों ने मीडिया को बाइट दी, उनमें से किसी में ऐसा उल्लेख नहीं था कि बागी विधायकों के बारे में डिवीजन बैंच ने फैसला सुना दिया है। इस अदालत में बागी विधायकों का मामला चल ही नहीं रहा था। मीडिया के धुरंधर कहे जाने वाले लोगों के ज्ञान पर आश्चर्य होता है कि जिस अदालत में बागी विधायकों का मामला नहीं चल रहा है, हाई कोर्ट की ऐसी डिवीजन बैंच के निर्णय में बागी विधायकों के बारे में आदेश देने की बात जोड़ दी गई।
दरअसल, कांग्रेस के बागी विधायकों का मामला नैनीताल हाई कोर्ट की न्यायमूर्ति यू.सी. ध्यानी की अदालत में चल रहा है और मीडिया दूसरी अदालत (हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली डिवीजन बैंच) के आदेश की रिपोर्टिंग कर रहा था। जिस अदालत में किसी खास मामले पर सुनवाई ही नहीं हो रही है, वह उस मामले में कोई आदेश कैसे दे सकती है? यह सीधी सी बात इलेक्ट्रानिक मीडिया के जिम्मेदार लोगों की समझ में क्यों नहीं आई? इसका जवाब देने का साहस वे शायद ही कभी कर पाएं।
ये और ज्यादा शर्मनाक स्थिति है कि लगातार कई घंटे झूठी खबर दिखाने के बाद टी.वी. चैनलों ने अपने दर्शकों से माफी भी नहीं मांगी। इतनी बड़ी गलती के बाद माफी मांगना तो बनता ही था। कई बुलेटिनों में माफी मांगते हुए दर्शकों को सही स्थिति की जानकारी दी जाती, तो लगता कि मीडिया के तथाकथित जिम्मेदार लोगों की आंखों में शर्म हया जैसा कुछ बचा है। पता नहीं क्यों, मुझे आज भी लगता है कि ये महज एक गलती ही थी, किसी को नुकसान या किसी को फायदा पहुंचाने की बदनीयती से झूठ को सच बनाकर नहीं परोसा गया? भगवान से प्रार्थना है कि यही सच निकले।
लेखक सुभाष गुप्ता उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार और मीडिया शिक्षक-विश्लेषक हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.
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manmeet kaur
April 26, 2016 at 8:29 am
An insight to the truth of the media industry. While we study the theories like agenda setting, or bullet theory of media we always try and focus on the positive effects of these theories but this article very well written and analysed gives a different picture of the electronic media. Its the media that is setting false agenda for its audience. Hope electronic media and also other forms of media understand their responsibilities towards its viewers.
himani binjola
April 26, 2016 at 8:32 am
Media is the fourth pillar of the constitution and works as a watch dog for the society but the above story actually reflects the real picture of the media industry. Hope this article brings a change in the minds of those who manipulate the minds of the masses.
Taha Siddiqui
April 26, 2016 at 8:39 am
The article reflects the reason why the print yet flourishes with its credibility and authenticity to the masses. Though the reach of the electronic media is vast but it may loose its authenticity if it reports the same. Media is something that people rely on for news but seems the people now need to cross check their facts.
rajk
April 26, 2016 at 12:46 pm
‘……कांग्रेस के नौ असंतुष्ट विधायकों की सदस्यता समाप्त किये जाने को बरकरार रखते हुए अदालत ने कहा कि उन्हें अयोग्य होकर दलबदल करने के ‘संवैधानिक गुनाह’ की कीमत अदा करनी होगी…..’
गुप्ताजी, उपरोक्त पंक्तियां पीटीआई-भाषा द्वारा 21 अप्रैल 2016 को जारी किए गए समाचार की हैं. आश्चर्य इसी बात को लेकर है कि जब यह मसला माननीय हाई कोर्ट के विचाराधीन ही नहीं था, तो उसने इस बारे में फैसला क्योंकर सुनाया?