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उत्तराखंड

उत्तरा प्रकरण और देहरादून के अखबारों का कवरेज : पिछले दो दिन से ‘हिंदुस्तान’ पढ़कर दुख हो रहा था…

Dinesh Juyal : उत्तरा प्रकरण और सोशल मीडिया का प्रभाव… जब सरकार आलोचना से परे नहीं तो अखबारों की समालोचना क्यों नहीं होनी चाहिए? उत्तरा प्रकरण पर अपनी टिप्पणी के साथ मैंने अखबारों की भूमिका पर भी छोटी सी टिप्पणी कर दी थी। लानत तो खुद को भेजी थी। कुछ पुराने साथी नाराज है और होना ही चाहिए, नहीं तो मेरी वो टिप्पणी व्यर्थ जाती।

उत्तराखंड में सोशल मीडिया पर शुक्रवार को जितनी पोस्ट उत्तरा जी के मामले पर दिखी उतनी अब तक शायद ही किसी और मामले पर हुई हों। Ndtv, ajtak, avpnew से लेकर रीजनल, लोकल चैनल्स तक ने चिंता के साथ इस घटना को रखा। उत्तराखंडी ही नहीं राष्ट्रीय स्तर के पत्रकारों, विचारवान लोगों ने सोशल मीडिया पर सरकार के मुगलिया बादशाही अंदाज की निंदा की। ऐसे में देहरादून के अखबारों में सरकार की छवि की गंभीर चिंता के साथ खबर को सही ढंग से ना देने पर यहां के पत्रकारों को भी खूब गालियां पड़ी। ये गालियां मैंने नहीं दी। कुछ न्यूज पोर्टल देखे उनमें भी मीडिया की भूमिका पर सवाल उठाए गए हैं। यहां के पत्रकारों की प्रतिक्रिया भी है।

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मीडिया प्रभारी, मीडिया सलाहकार, मीडिया समन्वयक सब अपनी ड्यूटी कर रहे थे, नमक का फर्ज अदा कर रहे थे। लेकिन जब लगा कि संपादक पर मीडिया समन्वयक भारी पड़ गए तो लोगों ने जो महसूस किया, लिख दिया।

इनका का काम सरकार की अच्छी छवि पेश करना और जनता के मतलब की सूचनाएं मीडिया के माध्यम से पहुंचाना है। जब ये खुद संपादक की हैसियत में आ जाते हैं। खबर का एंगल बताते हैं या गलत जानकारी फीड करने लगते हैं तो मीडिया की हत्या करने लगते हैं। ऐसे ही मीडिया को लुभाने भरमाने वाले लोगों की वजह से हमारे देश का मीडिया प्रेस की आजादी के मामले में १३८वें स्थान पर आ गया है।

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अगर मीडिया की समालोचना का अपराध हुआ तो इसमें मेरे साथ सैकड़ों और लोग शामिल हैं। हम सबने ये बहुत अच्छा गुनाह कर डाला। चलो हिंदुस्तान में इस प्रकरण का फॉलोअप तो दूसरे दिन पहले पेज पर आया।

सवाल तो अब भी है कि जब असल घटना हुई तो धोकर अन्दर क्यों खदेडी गई। आज अन्दर एक पैकेज भी है।

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कल वाकई निराशा हुई थी, जबकि इस अखबार में पूरन बिष्ट जैसे पहाड़ के प्रति बेहद संवेदनशील समाचार संपादक, और एक एक बीट पर एक्सपर्ट जानकारी रखने वाले वरिष्ठ रिपोर्टर हैं। तो क्या जिस तरह खबर परोसी गई उसके पीछे इस अखबार के रिपोर्टर रह चुके सूचना समन्वयक दर्शन रावत की मेहनत थी। या फिर बॉस की?

अगर ऐसा होता रहता है तो उन पत्रकारों का क्या मनोबल रहेगा जो काबिल हैं और इस अखबार से बड़ी आस्था से जुड़े हैं। जागरण में काफी हद तक जनभावनाओं की कद्र दिख रही है। यहां के धीर गंभीर संपादक कुशल जी विवादों से दूर रहते हैं। आज के उनके पैकेज में भी कुछ चिंताएं दिख रही हैं। अमर उजाला ने कल भले ही पूरा भाव न पकड़ा हो लेकिन प्लेसिंग सबसे अच्छी थी। टॉप बॉक्स। आज भी पहले पेज पर फ्लायर के अलावा अन्दर पूरा पेज, जिसमें उत्तराखंड की उत्तराओं की चिंता दिख रही है। संपादक जी ने शहर से बाहर होते हुए भी अपनी टीम को गाइड किया उसके लिए सराहना।

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मैं आज सोशल मीडिया का प्रभाव भी देख रहा हूं। यहां बात सिर्फ इस प्रकरण की हो रही हैं और मेरा मानना है कि ऐसे ही और मुद्दों पर भी ये दबाव बनना चाहिए। वैसे सोशल मीडिया पर सब कुछ बहुत अच्छा नहीं हो रहा है। वहां तो चुनाव लडा जा रहा है। ये देखना भी सुखद रहा कि उत्तरा प्रकरण पर सरकार के समर्थन में उतरे कुछ भाड़े के जैसे लोगों को मुंह की खानी पड़ी और मैदान छोड़ना पड़ा।

एक बात साफ है कि इस प्रकरण में अगर बात कुछ न्याय की तरफ जाती है, मुख्यमंत्री परोक्ष रूप से ही सही अपनी गलती का अहसास करते हैं, ठस्की अफसरों और खुद को ख़ुदा मान बैठे लोगों को थोड़ी सी भी अक्ल आत्ती है तो क्रेडिट उन सैकड़ों लोगों को जाता है जो कल से अपनी भावनाएं व्यक्त कर रहे थे। सब इसलिए दुखी थे कि एक शिक्षिका का भरे दरबार में अपमान हुआ। सबको अपनी प्राइमरी शिक्षक की शक्ल याद आयी होगी । जिसने हमें अक्षर ज्ञान ही नहीं जीवन के बुनियादी पाठ पढ़ाए थे। मुख्यमत्री ने भी प्राइमरी जरूर पढ़ी होगी, लेकिन उनके लिए सब नौकर है। वो मालिक ठहरे सूबे के। सस्पेंड करो इसको, ले जाओ इसको, कस्टडी में लो इसको…… उत्तरा जी के कानों ये इसको … इसको…. इसको … बार बार गूंज रहा था।

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पति की मौत के बाद बिखरी गृहस्थी से दुखी शिक्षिका के लिए न्याय नहीं है तो ऐसा अपमान तो ना करो। ऐसी तो जेलर की भी भाषा नहीं होती । बहरहाल शिक्षिका थी कुछ तो सबक सिखाया ही। परोक्ष रूप से ही सही। चोर उचक्के तो उन्होंने एक बिरादरी के लिए कहा और यकीन मानिए सामने चाटुकार कुछ भी कहें पीठ पीछे आम जनता इस बिरादरी को ऐसे और इससे मिलते जुलते संबोधनो से नवाजती है। यहां मीडिया से द्रवित होने की अपेक्षा थी। रिपोर्ट कर रहे और खबर तय कर रहे लोगों में भी कुछ शिक्षकों की संतान होंगे और उन्हें पता होगा सम्मान और स्वाभिमान का महत्व शिक्षक क्या बताते हैं।

मीडिया में अगर कुछ लोग ये गलतफहमी पाले बैठे हैं कि सच तो वहीं माना जाएगा जो हम लिखेंगे तो पोलैंड की तानाशाही का इतिहास पढ़ लें। हम तो भारत जैसे लोकतंत्र में हैं। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री को नेक सलाह कि सिर्फ मीडिया मैनेजमेंट के भरोसे ना रहें। यहां की राजनीति में टांग खींचने का खेल आप तो जानते ही हैं।

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(30 जून 2018)

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अच्छा है। हमारा मीडिया संवेदनशील है। दो दिन से हिंदुस्तान पढ़कर दुख हो रहा था। आज संपादक जी ने पुराने फॉर्म में आते हुए सब ठीक कर दिया। उत्तरा प्रकरण पर जनभावनाओं का ध्यान रखते हुए और मामले की संवेदनशीलता समझते हुए बेह तरीन कवरेज। पहले पेज की लीड के साथ अंदर दो पेज। मैं इस टीम से जुड़ा रहा हूं इसलिए अपनी पीड़ा सार्वजनिक कर दी।

जिनका दिल दुखा हो वो अपने बड़े भाई को माफ कर सकते हैं। सब मेरे भावुक स्वभाव से परिचित हैं। गुरुरानी जी के साथ पूरी टीम को बधाई। अमर उजाला में संपादक जी लौट आए हैं लेकिन इस मुद्दे पर अखबार के तेवर और कवरेज ढीली पड़ गईं। मीडिया और समाज पर विस्तार से फिर कभी। कुछ लोग ज्यादा विचलित हैं उन्हें भी समझाऊंगा।

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(1 जुलाई 2018)

हिंदुस्तान और अमर उजाला जैसे अखबारों में संपादक रह चुके दिनेश जुयाल की एफबी वॉल से.

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