रामनाथ गोयनका की स्मृति में हुए व्याख्यान में बोलते हुए न्यायमूर्ति गोगोई। फोटो साभार- इंडियन एक्सप्रेस
सुप्रीमकोर्ट के वरिष्ठतम जज और अगर मोदीजी ने टांग नहीं अड़ाई तो इसी साल के अंत में चीफ जस्टिस बनने वाले न्यायमूर्ति रंजन गोगोई ने लोकतंत्र को बुरी नजर से बचाने वाले प्रहरियों की प्रथम पंक्ति में मुखर जजों और अग्रणी न्यायपालिका के साथ स्वतंत्र पत्रकारों को भी शुमार किया है.
इंडियन एक्सप्रेस के जुझारू मालिक स्वर्गीय रामनाथ गोयनका की स्मृति में हुए व्याख्यान में बोलते हुए न्यायमूर्ति गोगोई ने कहा की समाज में बदलाव के लिए सिर्फ सुधारों से काम नहीं चलने वाला बल्कि एक किस्म की क्रांति जरूरी है जिसके लिए न्यायपालिका आदि संस्थाओं को सजग रहना होगा.
जस्टिस गोगोई ने स्वतंत्र पत्रकार की जो कल्पना की है वह वर्तमान मीडिया के चरित्र को देखते हुए दूर की कौड़ी लगती है. हो सकता है बड़े महानगरों में बतौर फ्रीलांस स्थापित इक्का-दुक्का स्वतंत्र पत्रकार मिल जाएँ पर नौकरी करने वाले अधिकाँश मीडिया मालिकों का बंधक बनने के लिए मजबूर हैं. दबाव बनाए रखने के लिए सरकारी अमले की तरह तबादले कर उन्हें फेंटा जाने लगा है. उनके बजाय मैनेजमेंट गुरुओं को ज्यादा तरजीह, तवज्जो और तनख्वाह दी जाती है. सिस्टम को आईना दिखाने वाली खबरों को ख़ारिज कर उन्हें ठकुरसुहाती खबरों के लिए प्रेरित किया जाता है.
मीडिया की इस नई संस्कृति के मूल में मालिकों की बिजनेसमेन बनने की लालसा है जो उन्हें सरकारों का पालतू बना देती है. मध्यप्रदेश में वे स्कूल-यूनिवर्सिटी चला रहे,नमक तेल बना रहे,ऑटो एक्सपो/आवास मेले आयोजित कर रहे, गरबा-डांडिया नचा रहे और माल, बांड तथा शेयरों के धंधों में मशगूल हैं, जहाँ पग-पग पर सरकार के संरक्षण की जरूरत होती है. ऐसे में निष्पक्ष और निडर पत्रकारिता का कलेजा कहाँ से लाएंगे.?
उधर मीडिया के रुतबे और पहुँच ने बिजनेसमेनों में मीडिया मुग़ल बनने की ललक जगा दी है. रियल स्टेट, अस्पताल, मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेज आदि के कारोबारी पीपुल्स ग्रुप, बंसल ग्रुप,राज ग्रुप और एलएन ग्रुप के मीडिया में पदार्पण को और क्या कहेंगे.?
मुकेश अम्बानी द्वारा ईटीवी और सीएनएन आईबीएन+आईबीएन7 न्यूज़ चैनलों और कुछ कारोबारी चैनलों का अधिग्रहण इसी का नतीजा है.अब तक हिंदुस्तान टाइम्स से संतुष्ट बिड़ला ने इंडिया टुडे ग्रुप में पच्चीस-तीस फीसदी की भागीदारी कर मीडिया में पैर पसारने का संकेत दे दिया है.दरअसल मीडिया का तामझाम इतना खर्चीला है की स्वतंत्र पत्रकारिता के लिए पत्रकारों की मालिक बनने की कोशिशें कामयाब नहीं हो रही हैं.ऐसी पहल करने वालों को अंततःधनपतियों और नेताओं की मार्फ़त पार्टियों का पल्लू थामना ही पड़ता है. जो ऐसा नहीं कर पाते वे फिर किसी चैनल से जुड़ जाते हैं. कुल मिलाकर स्वतंत्र पत्रकार का वजूद फ़िलहाल दिवास्वप्न ही है.
लेखक श्रीप्रकाश दीक्षित भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार हैं.
https://www.youtube.com/watch?v=HyV9FscD1Dw
हेमंत राजपूत
July 31, 2018 at 4:38 pm
100 % सटिक बात कही है सर आपने