: पीएचडी धारकों की सुध नहीं ले रही सरकार : 2009 से पहले की पीएचडी का मामला : उत्तराखंड राज्य के आठ हजार उच्च शिक्षितों के भविष्य पर सियासत-सियासत खेल रही उत्तराखण्ड सरकार को हरियाणा के आईने में अपना चेहरा देखना चाहिए। उसे पता चल जाएगा कि इच्छाशक्ति हो तो कठिन काम के रस्ते भी आसान बन जाते हैं। उत्तराखण्ड में जहां 2009 से पहले के पीएचडी धारक यूजीसी के बेतुके फरमान के कारण नौकरी के लिए लम्बे समय से राज्य सरकार से गुहार लगा रहे हैं, वहीं हरियाणा ने कैबिनेट में प्रस्ताव पारित कर व्यवस्था की है कि राज्य में कोई भी पीएचडी धारक नेट क्वालीफाई के समान ही असिस्टेंट प्रोफेसर पद के लिए अर्ह होगा।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग(यूजीसी) ने 2009 रेगुलेशन में व्यवस्था की है कि अब देश के विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में पढ़ाने वाले असिस्टेंट प्रोफेसरों की अर्हता नेट (राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा) / सेट(राज्य पात्रता परीक्षा) होगी या फिर इस रेगुलेशन के नियमों से की गई पीएचडी से भी असिस्टेंट प्रोफेसर बना जा सकेगा। इस नियम के लागू होने के परिणामस्वरूप देश के करीब पांच लाख उन उच्च शिक्षितों का भविष्य चौपट हो गया, जिन्होंने लगभग पांच साल के परिश्रम से पीएचडी की। बैक डेट से लागू किये गए यूजीसी के इस कानून से शिक्षा जगत में उपहास की स्थिति बनी हुई है। पीएचडी धारक परेशान हैं। प्राइवेट संस्थानों में पढ़ा रहे पीएचडी धारकों का शोषण किया जा रहा है। अनेक लोगों को तो इस रेगुलेशन का भय दिखाकर बाहर करने की धमकी दी जा रही है।
उत्तराखण्ड में पीएचडी धारक लम्बे समय से इस मसले पर हक की लड़ाई लड़ रहे हैं, पर उन्हें नौकरी देना तो दूर, हलद्वानी में निदेशालय पर तालाबन्दी कर रहे पीएचडी धारकों की लात-घूसों से पिटाई तक की गई। इस दमन की सरकारी स्तर पर कोई निंदा या कार्रवाई नहीं की गई। उच्च शिक्षा मन्त्री इंदिरा हृदयेश और मुख्यमंत्री हरीश रावत से मुलाकात के बावजूद पीएचडी मसला अधर में है। कॉलेजों में नेट-यूसेट पास को गेस्ट टीचर बनाया गया,पर इन लोगों को भर्ती में जगह नहीं मिली। ये पद अस्थायी थे, पर इंदिरा और हरीश ख़ुद को यूजीसी के नियमों से बंधा होने का हवाला देते रहे। अगर सरकार नियमों से बन्धी है तो फिर 2010 में रखे गए संविदा प्रवक्ताओं को स्थायी करने का रास्ता क्यों तलाशा जा रहा है?जबकि वे लोग भी 2009 से पहले के पीएचडी ही हैं।
अगर सरकार यूजीसी के नियमों के पालन का हवाला देती है तो कॉलेजों में 80 प्रतिशत तक संविदा प्रवक्ता क्यों हैं? यूजीसी का नियम कहता है कि यह संख्या 10 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए।
बहरहाल,सरकार चाहे तो 2009 से पहले के पीएचडी धारकों को असिस्टेंट प्रोफेसर के लिए अर्ह बना सकती है, क्योंकि शिक्षा समवर्ती सूची का विषय है। यानी केंद्र के बनाये नियमों में राज्य अपनी परिस्थितियों और नागरिकों के हितों के दृष्टिगत नियम बदल सकता है, पर दो प्रमुख गुटों(इंदिरा-हरीश) में बंटी सरकार ने कभी अपने इस सम्वैधानिक अधिकार का इस्तेमाल करने की जहमत नहीं उठाई। यहां तक कि राज्यपाल से चार बार आग्रह के बावजूद मुलाकात का पीएचडी धारकों को समय नहीं मिल पाया।
ये लोग अब अपनी डिग्रियां राज्यपाल (कुलाधिपति) को सौंपना चाहते हैं। दुर्भाग्य कि दिल्ली, हिमाचल और केरल जैसे राज्यों में भी पुरानी पीएचडी पर नौकरियां मिल रही हैं। ऐसे में यहां का युवा बाहर के राज्यों में नौकरी करने जायेगा तो उच्चशिक्षित प्रतिभा का पलायन होगा। साथ ही उत्तराखण्ड में उच्च शिक्षा की गुणवत्ता गिरेगी, क्योंकि यहां कॉलेजों-विश्वविद्यालयों में पढ़ाने वाले नेट-यूसेट क्वालीफाई लोग होंगे, शोध करने वाले नहीं।
कुछ ज्वलंत बिंदु
# इस कानून को 2009 के बाद लागू किया गया, लेकिन यह इससे पहले की पीएचडी पर भी लागू हुआ, यह नैसर्गिक न्याय के खिलाफ है।
# देश के विभिन्न मान्यताप्राप्त विश्विद्यालयों से 2009 से पहले की गई पीएचडी भी यूजीसी के नियमों के तहत ही हुई तो अब क्यों उस पीएचडी को नकारा जा रहा है?
# देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों-महाविद्यालयों में पढ़ा रहे अनेक नियमित असिस्टेंट प्रोफेसरों, एसोसिएट प्रोफेसरों और प्रोफेसरों की पीएचडी भी 2009 से पहले की है, उनकी पात्रता पर यह नियम लागू क्यों नहीं?
#2009 से पहले एक ही तारीख और वर्ष में अवार्ड पीएचडी से कुछ शोधार्थियों को तब नौकरी मिल गई तो उनकी डिग्री मान्य और जो अब तक कुछ कारणों से सरकारी सेवा में नहीं जा पाये, उनकी डिग्री अमान्य! यह कहाँ का न्याय है?
# पहले बीएड कोर्स 1 साल का होता रहा, अब 2 साल का हो चुका है तो क्या अब बीएड की एक साल वाली डिग्री अमान्य हो जायेगी?
# अगर पुरानी पीएचडी को व्यवस्था से बाहर कर गुणवत्तायुक्त उच्चशिक्षा के उद्देश्य से यह पहल की गई तो इस पहल में बड़ी कमी है, क्योंकि पुरानी पीएचडी लगभग 30 साल तक उच्च शिक्षा व्यवस्था में रहेगी। 2009 तक जो नियुक्तियां पुरानी पीएचडी के आधार पर हुईं, ये लोग अगले करीब 30 साल तक पढ़ाते रहेंगे तो सिस्टम में सुधार कहाँ हुआ?
# नई पीएचडी की क्या गारन्टी है कि ये सारी डिग्रियां गुणवत्ता की कसौटी पर खरी उतर रही हैं?
# यह शोचनीय बात है कि 2 महीने की पढ़ाई से निकाला नेट कैसे करीब 5 साल की अथक मेहनत से की गई पीएचडी से बेहतर होगा?
#2006 में यूजीसी ने पीएचडी को नेट से छूट दी और 2009 में उसे हटा दिया। यानी अपनी ही बनाई इमारत गिरा दी? उच्च शिक्षा को नियंत्रित करने वाले संस्थान से यह उम्मीद कैसे?
#पीएचडी(पुरानी) जैसी एक ही शैक्षिक पात्रता वाला व्यक्ति आज बड़े पद के लिए आवेदन कर सकता है, लेकिन निम्न पद के लिए नहीं। पुरानी पीएचडी डिग्री असिस्टेंट प्रोफेसर के लिए मान्य नहीं, लेकिन एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर के लिए है, इससे बड़ी हास्यास्पद बात क्या हो सकती है?
#विदेश में यही पुरानी पीएचडी भी मान्य है, इस पीएचडी के आधार पर व्यक्ति साइंटिस्ट बन सकता है, मंगल ग्रह पर यान भेज सकता है, लेकिन असिस्टेंट प्रोफेसर नहीं बन सकता, देश की उच्च शिक्षा के साथ इससे बड़ा मजाक क्या होगा?
# इस पुरानी पीएचडी की बदौलत स्कॉलर कई शोधपत्र और पुस्तकें लिखकर नामी साहित्यकार और लेखक बन सकता है, लेकिन असिस्टेंट प्रोफेसर नहीं, यह सरस्वती के प्रति सम्मान नहीं है।
यह है स्थिति
35 से 45 वर्ष के अनेक उच्च शिक्षित आज ऐसी स्थिति में हैं कि आजीविका के लिए दूसरा विकल्प भी नहीं अपना सकते। वे अवसाद और निराशा में हैं। इन लोगों को नेट करने के लिए मजबूर करने के बजाय उन्हीं के विषय क्षेत्रों में उन्हें शोध दिया जाय तो वे बेहतर कार्य कर पाएंगे।
मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने हम लोगों की मांग पर इस मसले के समाधान के लिए प्रो. अरुण निगवेकर की अध्यक्षता में 23 जुलाई, 2015 को कमेटी बनाई थी, जिसे 24 सितम्बर तक रिपोर्ट देनी थी, पर ऐसा न हो पाया। इस बीच उत्तराखण्ड समेत अनेक राज्यों में असिस्टेंट प्रोफेसरों के पदों पर नियुक्तियां जारी हुई हैं, लेकिन कमेटी द्वारा जल्द रिपोर्ट नहीं दिए जाने के कारण अनेक पीएचडी धारक इन पदों पर आवेदन करने से वंचित रह गए। उत्तराखण्ड में गेस्ट टीचर भर्ती में भी इन लोगों को आवेदन से वंचित रखा गया।
देहरादून से डॉ.वीरेन्द्र बर्त्वाल की रिपोर्ट. फोन-9411341443
ashok anurag
January 14, 2016 at 11:42 pm
कोई भी नई नियमावली PROSPECTIVE होता है RETROSPECTIVE नहीं, इसलिए 2009 के पहले इसे लागू नहीं किया जा सकता, ये मैं नहीं माननीय सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक निर्णय कहता है।