किसी भी न्यूज़ चैनल का मकसद नंबर-1 होना होता है और उसे पैसे की कमी शोभा नहीं देती। ऐसा चैनल, जिसमें नामचीन हस्तियों का पैसा लगा हो। मगर अब बात समझ में आ गई है कि क्यों नहीं नं.-1 चैनल न्यूज़ स्टेट अपने स्ट्रिंगरों को पैसा नहीं दे रहा है।
न्यूज़ स्टेट ने स्ट्रिंगर्स के कई महीनों के पैसे मार रखे हैं तो उनके पारिश्रमिक से बहुत कम दिए जा रहे हैं। मसलन, 2000 से 7000 रु महीने में ही उन्हें बुक कर दिया जा रहा। अब तो हद हो गई है। स्ट्रिंगर्स की तो जान लेने के चक्कर में पड़ गए हैं न्यूज़ स्टेट वाले। इतना ज्यादा दबाव विज्ञापन का कैसे झेलेंगे। अब तो इस्तीफों का दौर भी शुरू हो गया।
न्यूज़ स्टेट के एक ऑफिसियल खबरिया व्हाट्सएप्प ग्रुप में विज्ञापन को लेकर इस्तीफा दिया जा रहा है। कुछ स्ट्रिंगर डरे सहमे हैं कि उन्हें निकाल न दिया जाय तो कुछ जरुरत से ज्यादा दबाव में असहज महसूस कर रहे हैं। हालाँकि चैनल के कुछ प्रोड्यूसर्स को फर्क नहीं पड़ता किसी भी स्ट्रिंगर की भावनाओं को लेकर लेकिन ये गलत है। पत्रकारिता से दूसरों के दुःख दर्द को कम किया जाता है लेकिन ये चैनल वाले अपने ही संस्थान के लोगों का दुःख दर्द समझने की बजाय उसे और बढ़ा रहे हैं।
न्यूज़ स्टेट के ऑफिसियल व्हाट्सप्प ग्रुप पर विज्ञापन के दबाव से पीड़ित एक स्ट्रिंगर ने इस्तीफा दे दिया लेकिन उसने अपने दर्द को भी बयान किया, जो न्यूज़ स्टेट वालों ने अनदेखा कर उसे ग्रुप से हटा दिया। संभव है कि उसे चैनल से भी हटा दिया गया होगा। एक अन्य पीड़ित स्ट्रिंगर ने भड़ास को उस ग्रुप पर हुई बातों के स्क्रीन शॉट्स भेजे, जिसके आधार पर हकीकत सामने है। सवाल ये उठता है कि जब चैनल विज्ञापन प्रतिनिधि रखता है तो इसे अपने संवाददाता पर दबाव बनाने की क्या जरुरत। बहरहाल अगर स्ट्रिंगर्स पर विज्ञापन का दबाव कम नहीं हुआ तो न्यूज़ चैनल्स मुसीबत में भी आ सकते हैं।
एक पत्रकार द्वारा भेजे गए पत्र पर आधारित