Naved Shikoh : रज्जन लाल के संकट ने उठाये कई सवाल… जी न्यूज़ लखनऊ के वीडियो जर्नलिस्ट रज्जन लाल को कैंसर से जंग लड़नी है। इस युवा मीडियाकर्मी के मुंह में कैंसर हो गया है। इस दुर्जन मर्ज से लड़ने के लिए रज्जन के पास पूरा हौसला और हिम्मत है, बस नहीं है तो धन। आर्थिक सहायता के लिए रज्जन लाल ने एक भावुक पत्र लिखा है, जो भड़ास के जरिए देशभर में वायरल हो रहा है।
जिस संस्थान में रज्जन ने सेवाएं दी हैं वो जी न्यूज उनकी कुछ मदद कर रहा है या नहीं, ये बात उन्होंने नहीं लिखी। किंतु सैकड़ों करोड़ की कंपनी जी न्यूज को अपने सहयोगी/कर्मचारी के बुरे वक्त में काम आना चाहिए है, ये सवाल उठ रहे हैं।
युवा वीडियो जर्नलिस्ट रज्जन की बीमारी और बेकसी ने लखनऊ के मीडिया जगत के सामने तमाम सवाल खड़े कर दिए हैं। रज्जन लाल की बीमारी की नकारात्मक खबर से सकारात्मक कदमों की नई आहट भी सुनाई दे रही है।
अक्सर आहत करने वाला वक़्त भी राहत देता है। बुरी ख़बर आती है कि कोई गरीब मीडियाकर्मी बीमारी की चपेट में है और उसके पास इलाज के ख़र्च की परेशानी है। इसी ख़बर के साथ ये खबर राहत देती है कि हमपेशा बीमार मीडियाकर्मी की मदद के लिए साथी मीडियाकर्मी जुट गये हैं। जागरूक पत्रकार सोशल मीडिया पर मदद की गुहार लगाते हैं और मदद के लिए हाथ बढ़ने लगते हैं। पत्रकार मिलजुलकर अपने स्तर से मदद करते हैं और फिर सरकार, शासन-प्रशासन से सहयोग मांगा जाता है। बुरे वक्त में भी कुछ अच्छा महसूस होता है।
अपने पेशे से जुड़े पेशेवरों के बुरे वक्त का अहसास, सहयोग की भावना वाले मीडियाकर्मियों, संगठनों के प्रयासों और मदद करने वाले सरकारी तंत्र को सलाम। बस एक बात नहीं समझ में आती है – आपसी सहयोग से हम सब अक्सर साथी के इलाज के लिए एकजुट होते रहे हैं। आपस में धन एकत्र करते रहे हैं। सरकारों पर दबाव बनाकर या आग्रह करके सरकारी आर्थिक सहयोग हासिल करने में सफल होते रहे हैं। किंतु उस सैकड़ों करोड़ के मीडिया ग्रुप्स से सहयोग नहीं ले पाते जहां पीड़ित पत्रकार अपने सेवाएं देता हो।
जिस मीडिया समूह का मीडिया कर्मी बीमार या दूसरे किस्म की किसी परेशानी में घिरा है, उस ग्रुप का कर्तव्य बनता है कि वो अपने कर्मचारी की मदद करे। उसकी बीमारी का खर्च उठाये। यदि मीडिया संस्थान अपने गरीब कर्मचारी का खर्च नहीं उठाता तो मीडिया कर्मियों की यूनियन ऐसे संस्थान के खिलाफ सख्त कदम उठा सकती है। लेकिन दुर्भाग्य है कि श्रमजीवी मीडिया कर्मियों की यूनियनें मीडिया कर्मचारियों का हक़ मांगने के लिए कभी भी आवाज नहीं उठाती। हालांकि इन यूनियनों में ऊर्जा बहुत है। जब यूनियनों में आपस में गैंगवार जैसे हालात पैदा होते हैं तो उनकी आंतरिक ऊर्जा ख़ूब नजर आती है।
उम्मीद है कि जहां मीडियाकर्मी अपने साथी मीडियाकर्मी के बुरे वक्त में साथ देने के लिए आगे आने लगे हैं वैसे ही यूनियनें भी अपने फर्ज का अहसास करने लगेंगी। मीडिया कर्मियों का हक दिलाने के लिए मीडिया संस्थानों पर मीडिया यूनियनें दबाव बनायेंगी। क्योंकि ये सोशल मीडिया इन यूनियनों को भी ठोक-पीट कर सीधा कर देगा।
वक्त के साथ बहुत कुछ बेहतर हुआ है। एक जमाना था कि दुनियाभर की खबरों को परोसने वाली मीडिया की खुद की दुनिया की खबरों का कोई प्लेटफार्म नहीं था। खबरनवीस ही अपने पेशे की अंदरूनी खबरों से बेखबर रहते थे। मीडियाकर्मियों के दुख-दर्द, खुशी और ग़म की हर आवाज को देश-दुनिया के कोने-कोने मे पंहुचाने वाली देश की सबसे बड़ी मीडिया की खबरों की वेबसाइट भड़ास की एक नई क्रांति ने नयी रोशनी दिखाई। बड़ी अजीब परंपरा या यूं कहिए कि एक कुप्रथा थी कि मीडिया ही मीडिया के आदमी की किसी अच्छी-बुरी खबर को नजरअंदाज करे। भड़ास4मीडिया और सोशल मीडिया ने ऐसी परंपराओं को तोड़ा।
लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार नवेद शिकोह की एफबी वॉल से.
मूल खबर-
Amar Singh
November 30, 2018 at 5:21 pm
अनुशासन ऊपर से चलकर नीचे की तरफ आता है और जहां से अनुशासन सही सलामत अपने अंतिम छोर तक पहुंचना चाहिए उस ऊंचाई पर अनुशासन रक्षक के भेष में कुछ लट्ठधारी अनुशासन के हाथ पैर तोड़ने के लिए बैठे हों तो अनुशासन औंधे मुंह खाई में ही गिरेगा जो आज देश देख और भुगत रहा है..