यूजीसी ने हंस, वागर्थ, ईपीडब्लयू, मास मीडिया, फारवर्ड प्रेस के ऑनलाइन संस्करण समेत अनेक पत्रिकाओं अपनी मान्यता सूची से बाहर कर दिया है. यूजीसी यानि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग. आयोग द्वारा कई मैग्जीन्स और आनलाइन जर्नल्स को अपने अप्रूवल लिस्ट से बाहर किए जाने को लेकर तरह तरह की चर्चाएं हैं. कहा जा रहा है कि राइट विंग की केंद्र में सरकार होने के कारण यूजीसी का भी तेजी से भगवाकरण किया जा रहा है. यही कारण है कि प्रगतिशील विचार और सरोकार वाली पत्र-पत्रिकाओं को यूजीसी की मान्यता सूची से बाहर किया जा रहा है.
जिन पत्र-पत्रिकाओं को मान्यता सूची से बाहर किया गया है उनमें ईपीडब्ल्यू जैसी चर्चित और शोधपरक मैग्जीन भी है जिसे पढ़ कर हजारों छात्र-छात्राएं आईएएस बने हैं. साथ ही यह मैग्जीन देश की अर्थनीति और सामाजिक सरोकार के वित्तीय नजरिए को गहराई के साथ प्रस्तुत करती है. हंस जैसी चर्चित साहित्यिक मैग्जीन को भी यूजीसी ने बाहर का रास्ता दिखा दिया है. हंस को प्रेमचंद और राजेंद्र यादव के चलते जाना जाता है. हंस ने दशकों तक देश की साहित्यिक दशा-दिशा को नेतृत्व प्रदान किया.
यूजीसी ने वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया के नेतृत्व में निकलने वाली मैग्जीन मास मीडिया को भी मान्यता सूची से बाहर किया है. आक्सफोर्ड और हावर्ड यूनिवर्सिटी के जर्नल भी मान्यता सूची से बाहर किए गए हैं. एनसीईआरटी से निकलने वाले जर्नल के साथ ही इंडियन काउंसिल फार हिस्टोरिकल रिसर्च यानि आईसीएचआर के रिसर्च जर्नल ‘इतिहास’ को भी यूजीसी ने बाहर निकाल दिया है. बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के पांच जर्नल भी यूजीसी की एप्रूवल लिस्ट से आउट हो गए हैं. वागर्थ मैग्जीन भी यूजीसी की लिस्ट से बाहर हो चुकी है.
यूजीसी की सूची में अखरा पत्रिका भी शामिल है जिसका प्रकाशन रांची से किया जाता है. यह पत्रिका झारखंड आदिवासी भाषाओं में आलेख प्रकाशित करती है. अखरा की संपादक वंदना टेटे इसे कारपोरेट मीडिया को बढ़ावा देने वाला कदम बताती हैं.
ईपीडब्ल्यू के प्रबंधक गौरंग प्रधान ने कहा कि “अब यह कहने की जरूरत नहीं रह गयी है कि देश में किस तरह का माहौल बनाया जा रहा है. उन्होंने कहा कि यूजीसी का व्यवहार उसके फैसले को कटघरे में खड़े करता है. एक तरफ यूजीसी ने ईपीडब्ल्यू के प्रिंट संस्करण को अपनी सूची में शामिल रखा है, वहीं उसने ऑनलाइन संस्करण जो कि प्रिंट संस्करण का ही डिजिटल स्वरूप है, को अमान्य कर दिया है.
यूजीसी के फैसले का विरोध करते हंस के संपादक संजय सहाय ने कहा है कि वर्तमान केंद्र सरकार देश में अभिव्यक्ति के सारे विकल्पों को बंद कर देना चाहती है. यह पूर्व में देश में थोपे गये आपातकाल से भी अधिक खतरनाक है. यह विचारों के कत्ल की तैयारी है. इसका विरोध किया जाना चाहिए. इसके लिए सभी लघु पत्र-पत्रिकाओं को एकजुट होना पड़ेगा.
इसी तरह फारवर्ड प्रेस जैसी आनलाइन जर्नल को भी अप्रूवल लिस्ट से बाहर कर दिया गया है. यह मैग्जीन देश के दलितों-वंचितों की चेतना को उन्नत करने के साथ-साथ इस तबके के इतिहास, शख्सियत, सरोकारों को शोधपरक तरीके से प्रस्तुत करती है. फारवर्ड प्रेस के संपादक प्रमोद रंजन हैं. प्रमोद ने भड़ास को बताया कि पत्रिकाओं ने यूजीसी के इस फैसले का विरोध किया है. यूजीसी ने प्रगतिशील और जाति विरोधी पत्रिकाओं को मान्यता सूची से बाहर किया है.
दर्जनों विद्वानों, प्रोफेसरों, पत्रकारों ने यूजीसी के इस कदम का विरोध किया है. गुवाहाटी के North Eastern Social Research Centre के सीनियर फेलो Dr Walter Fernandes, कर्नाटक के धारवाड़ में स्थित Centre for Multi-Disciplinary Development Research में Hon. Professor के रूप में कार्यरत Prof. Gopal K Kadekodi, गांधी नगर स्थित Madras Institute of Development Studies के Associate Professor Dr. K. Sivasubramaniyan, जापान के क्योटो यूनिवर्सिटी में कार्यरत Associate Professor Rohan D’ Souza, MIDS Chennai के Former Director V.K.Natraj, गुंटूर आंध्र प्रदेश स्थति SRM University के Prof. V. Krishna Ananth समेत कई लोग खुलकर यूजीसी के इस कदम के विरोध में सामने आए हैं.
Sumati Saxena Lal.
July 6, 2019 at 9:10 pm
बेहद दुखद। स्वतंत्र सार्थक स्वरों को बंद किया जाने की शुरूआत है ये॥आगे की सोच कर चिंता होती हैं।