एक ऐसा संस्थान जहां लोग पैसे कमाने के लिए नहीं जाते. दिल्ली में एक मीडिया संस्थान ऐसा है जहां कर्मचारियों को हर महीने सैलरी नहीं मिलती. इसके बावजूद न कोई कर्मचारी छुट्टी करता है और न ही मजबूती से सेलरी न दिए जाने का विरोध ही करता है. एक एडमिन विभाग है लेकिन वहां सैलरी के बारे में नहीं पूछ सकते. अकाउंट्स विभाग भी है लेकिन वहां बैठे साहब महीना पूरा होने के बाद ‘इस हफ्ते इस हफ्ते’ कहकर हफ्तों निकाल देते हैं.
ब्यूरो के लोगों पर कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि किसी की पत्नी सरकारी नौकरी में है तो कोई बेधड़क कहीं और भी अपनी सेवायें दे रहा है. रेडियो में तो साथ साथ कइयों ने काम किया है और अब भी सकते हैं. तनख्वाह न मिलने पर भी कमाल ये है कि कुछ पत्रकार तो पार्टियां करते हैं तो एक हैं जो अभी प्रेस क्लब ऑफ इंडिया की कार्यकारिणी चुनाव में भी उतरे थे. हालांकि वोटों की गिनती और फिर हार से ही सब पता पड़ गया लेकिन जहां 19-20 महीनों की सैलरी बैक लॉग में हो, वहां कोई चुनाव का क्या ही सोच सकता है. ये बात देश की दूसरी सबसे बड़ी न्यूज एजेंसी यूनीवार्ता की है.
एक मीडियाकर्मी द्वारा भेजे गए पत्र पर आधारित.
Comments on “यूनीवार्ता में बिना सेलरी के काम करते हैं मीडियाकर्मी!”
ये खबर अत्यंत भ्रामक है। यह सही बात है कि सैलरी अनियमित है परन्तु 40-42 दिन में अवश्य मिल जाती है। मजीठिया वेतन मंडल की सिफारिशें यूएनआई में लागू हो चुकीं हैं। सैलरी ठीक ठाक ही हो गयी है। अागे कहने की आवश्यकता नहीं है। सैलरी विलंब से मिलने के पीछे बहुत व्यापक कारण हैं। सब लोग संस्थान के बारे में सब जानकारी रखते हैं। इसलिये असंतोष नहीं है।
सैलरी में ये गैप तात्कालिक है। कुछ माह पहले तो समय से मिलती रही है।
चले कम से कम कोई तो ऐसा आया सामने जिसने ये हिम्मत दिखाई। हालात सामने लाने वाला कोई तो है ।
चले कम से कम कोई तो ऐसा आया सामने जिसने ये हिम्मत दिखाई। हालात सामने लाने वाला कोई तो है ।
हे यूएनआई कर्मियों, एकजुट होकर अपनी ताकत क्यों नहीं दिखा देते? यूएनआई, देश की एजेंसियों में बड़ा नाम लेकिन अंदरूनी हालात कितने बदतर। सैलरी में 19-20 महीने का बैक लॉग। इसके बावजूद न कोई शोर, न शराबा और न ही कोई विरोध। लोग यहां काम नहीं सेवा करते हैं। पुराने बाशिंदों पर तो कोई खास फर्क नहीं पड़ता और नये लोग भी पिसते हैं उनके साथ। कमाल तो ये है कि सिर्फ अंदर अंदर घुटते रहते हैं , हुक्मरानों के आगे कोई नहीं बोलता। किसी दिन कोई हिम्मत करने की कोशिश भी करता है तो साथी ही उसे चुप कराने की सलाह देते हैं। कोई ये नहीं सोचता कि जो यहां पुराने हैं, वो तो इस तरह अपना हिसाब बैठा चुके हैं कि हर महीने ‘दूसरी सैलरी’ कहीं और से लेते हैं। एक हिंदी वार्ता के ब्यूरो में हैं, इस कदर जुगाड़ सेट कर चुके हैं कि हाल में एक नई कार भी ली और फिर प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के चुनाव भी लड़ने पहुंच गये।
हार गये लेकिन सोचने को मजबूर कर दिया कि जहां महीने की सैलरी 50 दिनों के बाद आती हो, वहीं यूनियन का सदस्य होने के बावजूद आवाज उठाने के बजाय आप अपनी गोटी सेट कर रहे हैं। ऐसे एक नहीं काफी हैं लेकिन जब कोई बोलता ही नहीं, विरोध नहीं करता तो वहां तो शोषण होना तय ही है ना। सिर्फ इतना ही कहना है कि जब तक एकजुट नहीं होगे तो कोई न तो सुनेगा आपकी और न ही कभी टाइम पर सैलरी ही मिलेगी। तीन लोगों पर तो कानूनी मुकदमे चल रहे हैं जिसमें से हिंदी वार्ता का अधिकारी भी है। इंग्लिश यूएनआई में तो ज्यादातर अब कॉन्ट्रैक्ट पर है लेकिन वार्ता में हालात ये हैं कि मन मर्जी से काम हो रहा है। लोग छुट्टी लेते हैं तो फोन पर बढ़ा लेते हैं। काम पर फिर फर्क पड़ता है तो भी क्या। डेस्क से जो लोग पहले आपसी रंजिश में ट्रांस्फर करके इधर उधर भेद दिये गये थे, उन्हें वापिस बुलाया जा रहा है। ऐसा करने से बेहतर है कि एक बार अपनी आवाज बुलंद करो, कॉन्ट्रैक्ट वालों की सैलरी टाइम पर आती है तो परमानेंट वाले साथियों की क्यों नहीं।
हम अगस्त 2008 से यूनीवार्ता में अंश कालीन संवादाता के रूप में उत्तर प्रदेश के मुज्जफरनगर/शामली जनपद में रिपोर्टिंग कर रहे है। आज से चार-पांच वर्ष पूर्व नेट, फेक्स, टाइप के मात्र 900 रुपए चैक के रूप में मिले है। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि हमने उस चैक को आजतक कैश नही कराया है। पंकज वालिया