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सुख-दुख

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के लड़के अब नहीं बन पाते आईएएस-आईपीएस!

Shivansh Tiwari : संघ लोक सेवा आयोग ने 2019 का परिणाम आज घोषित कर दिया। फेसबुक पर शुभकामनाओं की ढेर लगी है। मैं भी शुभकामनाएं लिखना चाहता हूँ। लेकिन किसे लिखूँ ? अपनी बिरादरी या अपने जिले के किसी चयनित की तस्वीर खोजूँ लिखने के लिये? क्योंकि मुझे मेरे छात्रावास और मेरे विश्वविद्यालय का तो कोई मिल नहीं रहा है।

‘यूपीएससी का जब रिजल्ट आता था तो इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रावासों में दीपावली मनती थी’ मुझे नहीं पता कि इस बात में कितनी सच्चाई है लेकिन कुछ न कुछ तो था जिससे ‘आइएएस की फैक्ट्री’ का मुकुट सीनेट हाउस को पहनाया गया।

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आज भी चौराहों पर बकैती करते हुए हम सब कहते हैं कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय ‘पूरब का ऑक्सफोर्ड’ है , ‘आइएएस की फैक्ट्री है’ और ये बातें सिगरेट की धुएँ की तरह यहाँ पढ़ने वाला हर इंसान उड़ाता है।

‘फलाने भैया को लेखपाल बनने की बधाई’ , ‘धमकाने भैया को सिपाही बनने की बधाई’ जैसी ही बधाइयां अब हमारे परिवार में बची हैं।

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इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अब अभिभावक अपने बच्चों को भेजने से डरते हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रों के लिये काशी हिन्दू विश्वविद्यालय , दिल्ली विश्वविद्यालय और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में चयन न होने के बाद एक विकल्प बचा है जहाँ आपको कक्षाएँ लेने की कोई आवश्यकता नहीं है, जहाँ योग्यता को किनारे रखकर चाटूकारिता , बालिका और जाति के नाम पर शोध में प्रवेश दिया जाता है।

ख़ैर बात यूपीएससी की हो रही है ….

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यूपीएससी ‘शादी में जरूर आना’ फ़िल्म नहीं है कि आपका दिल टूटा और आप आइएएस हो गए। यूपीएससी वही है जो रोनाल्डो के लिये फुटबॉल है, जो सचिन के लिये क्रिकेट है, जो आनंद के लिये चेस है। यूपीएससी को सोते जागते, खाते पीते, उठते बैठते जीना पड़ता है। अनुशासित होना पड़ता है।

लेकिन हम सब तो ठहरे इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र। हम सब अगर सुधर गए तो हमारी कितनी बेइज्जती होगी। है न? अगर ऐसा हो गया तो हमारी पहचान बुरा मान जाएगी। है न?

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किताबों से इविवि के अधिकतर छात्रों का सालभर ब्रेकअप ही रहता है। परीक्षा की पूर्वरात्रि उसकी सहेली डी कुमार्स सारी समस्या का हल देकर फर्स्ट डिवीजन रिजल्ट दे देती है। और ये परम्परा अनवरत चली आ रही है।

असल में कमीं सीसैट और हिन्दी के कारण नहीं है। कमी हमारी कमी के कारण है जिससे हर परिणाम के बाद हमें मुँह छिपाना पड़ता है।

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हर रिजल्ट के बाद ऐसे मुँह छिपाने से बेहतर है कि कुछ ऐसे परिवर्तन किये जायें कि अगली बार हम चौराहों पर निकलकर नाचें न कि मुँह छिपाएँ। ये आसान नहीं है लेकिन मुश्किल भी नहीं है अगर विश्वविद्यालय प्रशासन और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पुराछात्र एक साथ इस समस्या के समाधान की योजना पर काम करें तो मुझे आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि अगली बार हमें मुँह छिपाने की नौबत नहीं आयेगी।

फेसबुक पर बने ग्रुप ‘इलाहाबाद विश्वविद्यालय परिवार’ में छात्र शिवांश तिवारी द्वारा पब्लिश की गई पोस्ट.

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https://youtu.be/4j6xLrIntwo
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