गेंद को दूसरे के पाले में करने में जुटा है श्रम विभाग
देहरादून। मामले को लटकाए रखने के लिए सरकारी विभाग यूं ही नहीं बदनाम है। उसकी कार्यशैली ही उसे बदनाम करने के लिए काँफी है। ताजा मामला पत्रकारों/गैर पत्रकारों के लिए गठित वेज बोर्ड मजीठिया को लेकर है। मैंने जून 2016 में वेज बोर्ड के अनुसार वेतन और अन्य परिलाभ के लिए उत्तराखंड श्रम आयुक्त के हल्द्वानी (नैनीताल) स्थित कार्यालय में आवेदन किया था। पत्रांक संख्या (5467-73/दे.दून-सी.पी.1/2026 तददिनांकित) के अनुसार पूरे गढ़वाल मंडल में यह पहला प्रकरण था।
मेरे मामले में सीए से गलती पद को लेकर हो गई। कट ऐंड पेस्ट में पद सब एडिटर की जगह सीनियर न्यूज एडिटर हो गया। लेबर आँफिस में सुनवाई के दौरान मेरे संस्थान सहारा इंडिया माँस कम्युनिकेशन ने 16-09-16 को लिखित आपत्ति दर्ज कराई। मैंने सीए से दूसरा क्लेम बनवा कर 24-5-17 को श्रम विभाग से
इसमें संशोधन की मांग की। श्रम विभाग ने 07-09-17 को संशोधन तो किया लेकिन न पद सुधारा और न पद के अनुरूप धनराशि। इस संबंध में मैंने 20-11-17, 01-01-28 , 30-01-18, 08-02-18 व 14-02-18 को श्रम आयुक्त/उम श्रमायुक्त को पत्र रिसीव कराकर दावे में संशोधन करने की मांग की। यही नहीं 24 मई 2017 से अब तक कम से कम पचास बार श्रम विभाग के अधिकारियों से दावे में संशोधन करने की चिरौरी की लेकिन नतीजा ” ढाक के तीन पात ” रहा।
इसी क्रम में 30 मार्च 2018 को मैंने अपर सचिव श्रम उत्तराखंड शासन को पंजीकृत पत्र के जरिये अपने पद और उसके अनुरूप धनराशि में सुधार करने का अनुरोध किया। बताते चलें कि , उत्तर प्रदेश औद्योगिक विवाद नियमावली के नियम 6 के तहत क्लेम में संशोधन का अधिकार सरकार/शासन को है किंतु शासन ने यह अधिकार श्रम विभाग के अधिकारियों (श्रमायुक्त/उपश्रमायुक्त) को डेलीगेट कर रखी है। इसकी पुष्टि नियुक्त प्राधिकारी/सहायक श्रमायुक्त गढवाल क्षेत्र देहरादून द्वारा श्रमायुक्त उत्तराखंड को लिखे गए पत्र (2466-67 / दे.दून-एन.पी.ई. / 2018 दिनांक 16अप्रैल 2018) से प्रतीत होता है। इस पत्र के बिंदु 3- में संबंधित शासनादेश कार्यालय में न होने की बात कही गई है।
गौरतलब है कि, दावे में संशोधन करने संबंधी शासनादेश न तो क्षेत्रीय कार्यालय में है और न ही मुख्यालय में। अपर सचिव श्रम को 30 मार्च 18 को लिखे गए पत्र के क्रम में जो पत्र शासन ने अपने अधीनस्थ विभाग को लिखा है उससे तो ऐसा लगता है कि शासनादेश शासन में भी नहीं है।
ध्यान देने वाली बात यह है कि अपर सचिव श्रम से मैंने अपने दावे में संशोधन करने या श्रम विभाग से करवाने की मांग मैंने की थी किंतु अनु सचिव उत्तराखंड शासन ने श्रमायुक्त को भेजे पत्र (459(1)/VII/18-42(श्रम) / 2013 4 अप्रैल 18) में मजीठिया वेज बोर्ड की संस्तुतियों के आधार पर वेतन निर्धारण किये जाने की बात कही है। यानि गुहार लगाई दावे में संशोधन भेजने/भिजवाने की शासन में बैठे अधिकारियों ने वेतन निर्धारण की बात कर दी। जबकि मामला श्रम न्यायालय में विचाराधीन है।
अब एक निगाह आज के डिजिटल इंडिया की ओर बढ़ रहे देश के सरकारी कार्यालयों की 18वीं सदी वाले तरीक़े पर। मैंने मई -जून 16 के दूसरे सप्ताह में श्रमायुक्त को अपना आवेदन भेजा। 24 जून को प्रकरण अपर/उप श्रमायुक्त गढवाल क्षेत्र को भेजा गया। लगभग दो माह बाद (29 अगस्त 16) यह प्रक्रिया में आया। तीन सुनवाई के बाद 16-9-16 को मेरा मामला श्रम न्यायालय को रेफर कर दिया गया। 27-9-16 को श्रम न्यायालय उत्तराखंड ने आह्वान पत्र जिसे सम्मन कहते हैं भेजा। 23-01-17 से अदालती कार्यवाही शुरू हुई जिस पर अभी सिर्फ तारीख ही मिल रही है और इसके लिए जिम्मेदार है देवभूमि उत्तराखंड का श्रम विभाग। लगभग 11 माह होने जा रहे हैं अभी तक रिफरेंस में संशोधन नहीं किया गया जबकि यह आठ जिलों वाले गढ़वाल मंडल का पहला (दावा संख्या एक है) प्रकरण है।
बताते चलें कि, पिछली सुनवाई में न्यायाधीश महोदय ने अगली तिथि जो अब 24 अप्रैल हो गई है रिफरेंस में/का संशोधन न पहुंचने पर मामले को बंद कर देने की बात कही। जहां तक मुझे जानकारी है अदालतें उसी आधार पर सुनवाई करती है जो उसके पास भेजा जाता है। अब एक नजर दावे में संशोधन/पुनः संशोधन पर। यदि रिफरेंस में कोई गलती मसलन अरुण कुमार की जगह वरुण हो जाए तो क्या मुकदमा वरुण के नाम से चलेगा। वादी/प्रतिवादी को संशोधन कराने का आधिकार नहीं है। मेरे मामले में पद उप संपादक की जगह सीनियर न्यूज एडिटर हो गया। विभाग ने संशोधन किया लेकिन न पदनाम बदला और न उसके अनुरूप धनराशि ठीक की यानि गलती श्रम विभाग की और भुगते श्रमिक। माना कि गलती वादी/याची की है तो भी विभाग उसे ठीक नहीं करेगा। विभाग के एक अधिकारी के अनुसार उसके कार्यालय में शासनादेश धारित नहीं है। तो यह किसकी गलती है ? शासनादेश मंगवाने की जिम्मेदारी किसकी है ? अब तक रिफरेंस में जो भी संशोधन हुए हैं क्या वे बिना शासनादेश के हुए हैं।
अब कुछ सहयोग भड़ास4मीडिया के पाठकों से…
यदि श्रम न्यायालय रिफरेंस में संशोधन/पुनः संशोधन के अभाव में मेरा मामला बंद कर देता है तो मेरे या हम जैसों के पास क्या रास्ता रहेगा। क्या हाईकोर्ट जाना होगा। इस स्थिति में पार्टी किस-किस श्रम सचिव/अपर श्रम सचिव/श्रमायुक्त और श्रम विभाग के किस अधिकारी को। मेरे हिसाब से आदरणीय सर्वश्री उमेश शर्मा जी, महेश्वरी प्रसाद जी और रवींद्र अग्रवाल जी आदि मददगार हो सकते हैं। जयपुर के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने श्रम न्यायालयों से 30 जून 2018 तक सभी मामले निपटाने को कहा है। यदि उत्तराखंड श्रम विभाग का यही रवैया रहा तो एक भी मामला नहीं निपट पाएगा।
सुझाव की अपेक्षा में
आपका
अरुण श्रीवास्तव
देहरादून
+918218070103
rajeev saxena
April 26, 2018 at 3:27 am
यू पी में तो भईया और भी जलवे हैं, श्रम विभाग के कारनामों के । शासनादेश तक उपश्रमाधिकारियों की गर्ड फाइलों में नहीं है। योगी सरकार ने ई-गर्वनेंस फेल करे रख दी है। मेल के जबाब योग्य अधिकारी ‘बे मेल’ जबाबो से दे रहे हैं। न्यूनतम वेतन दर खास कर अखवारों के मामले में कौन डिसाइड करेगा कम से कम यू के श्रम विभाग को नहीं मालूम । अखवरों के टर्नओवर मुकदमा लडने वालों से मांगे जा रहे है, जबकि अखबारों में इंस्पैक्टरी करने का अधिकार श्रम विभाग के इंस्पैक्टराेें को है। ये इंस्पैक्शन रिपो्रं गोपनीय नहीं होतीं किन्तु आर टी आई एक्ट तक में जानकारी देने से विभाग बचरहा है। श्रम विभाग से केस रैफ्रंस होकर शासन के माध्यम से लेबर कोर्ट पहुंचे तब हो कंप्लांइस । किन्तु जब मामला श्रन्म विभाग में ही अटका हुआ है फिर कौन क्या कह सकता है।