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सुख-दुख

हर दक्षिणपंथी अनपढ़ या कुपढ़ होता है, इसमें कोई संदेह नहीं है : सुशोभित

सुशोभित-

वामपंथी कौन? आजकल किसी को भी वामपंथी कह दिया जाता है। हाल ही में एक मित्र ने मुझसे कहा कि “इन दिनों आप वामपंथियों जैसी बातें करने लगे हैं!” इस पर मैं चकित हुआ। मैंने उनसे पूछा कि वामपंथी यानी क्या? वे इसका कोई उत्तर नहीं दे सके। शायद उन्होंने सोचा होगा कि धर्म, संस्कृति, परम्परा के विरुद्ध चिंतन करना वामपंथ है। जबकि तकनीकी रूप से ऐसा आवश्यक नहीं है। आप एथीस्ट भी हो सकते हैं, पोस्ट-मॉडर्निस्ट भी हो सकते हैं, एनार्किस्ट भी हो सकते हैं- इसके लिए आपका लेफ़्टिस्ट होना ज़रूरी नहीं।

आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि लेनिन ख़ुद वामपंथी नहीं थे! वास्तव में वे तो वामपंथ के विरोधी थे। उन्होंने 1920 में एक किताब लिखी थी- ‘वामपंथी कम्युनिज़्म : एक बचकाना मर्ज़।’ इसमें उन्होंने वामपंथियों की ख़ूब लानत-मलामत की थी। दूसरी तरफ़, वामपंथी चिंतक (जिनमें रोज़ा लग्ज़मबर्ग अग्रगण्य हैं) लेनिन के बोल्शेविज़्म के कट्‌टर आलोचक थे। उन्हें बोल्शेविज़्म में निहित केंद्रीयकरण की प्रवृत्तियों से आपत्ति थी, जो कि एक सघन ब्यूरोक्रेसी के मार्फ़त संचालित होती है। सोवियत कमिस्सारों की यह वही ब्यूरोक्रेसी थी, जिसने कभी काफ़्का और वेबर को इतना आतंकित किया था!

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हम अकसर वामपंथ, मार्क्सवाद, सेकुलरिज़्म, फ़ेमिनिज़्म, लिब्रलिज़्म आदि का घालमेल कर बैठते हैं। जबकि ये तमाम भिन्न-भिन्न कोटियाँ हैं। इन्हें अलग-अलग समझें।

लिब्रलिज़्म को लीजिये। हमारे यहाँ जिसे अमूमन वामपंथी कहा जाता है, वह मूलत: लिबरल होता है। जबकि दोनों में भेद है। वास्तव में, दोनों एक-दूसरे के विपरीत हैं! क्योंकि लिब्रलिज़्म की बुनियादी चिंता व्यक्तिगत स्वतंत्रता है। यह मार्क्सवाद की बुनियादी चिंता नहीं है, उलटे वह इसके प्रतिकूल है, क्योंकि व्यक्तिगत स्वतंत्रता पूँजीवाद का मूल-मंत्र है। मार्क्सवाद राज्य की सत्ता को स्थापित करता है। समानता आख़िरकार प्राकृतिक न्याय नहीं है। यदि आप समतामूलक समाज बनाना चाहते हैं तो आपको पर्सनल फ्रीडम को अवरुद्ध करना होगा। इसके लिए स्टेट-मशीनरी अपने को समाज पर सुपर-इम्पोज़ करेगी। इसमें हिंसा है। आश्चर्य नहीं कि लगभग सभी कम्युनिस्ट देशों में तानाशाही शासन प्रणालियाँ रही हैं। सर्वहारा अधिनायकत्व तो यूँ भी मार्क्सवाद की बुनियादी अवधारणाओं में से है- डिक्टेटरिशप ऑफ़ प्रोलिटेरियट। एक क्लासिकल मार्क्सिस्ट जो है, वह स्तालिनिसट हो सकता है, पर लिबरल नहीं हो सकता!

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फ़ेमिनिज़्म को मार्क्सवाद का अनुषंग समझा जाता है। क्योंकि दोनों की बुनियादी सोच यह है कि समाज में वर्ग-व्यवस्था है और एक वर्ग दूसरे का शोषण करता है। मार्क्सवाद में यह बूर्ज्वा और सर्वहारा है, नारीवाद में यह पुरुषसत्ता और स्त्रियाँ। लेकिन फ़ेमिनिज़्म के आदर्श लिबरल हैं, मार्क्सिस्ट नहीं हैं। वह मूलत: स्त्रियों के लिए अधिक सुरक्षा और स्वतंत्रता सुनिश्चित करने का आंदोलन है। फ़ेमिनिज़्म समानता की आड़ में विशेषाधिकारों की तलाश करता है। जबकि एक क्लासिकल मार्क्सवादी व्यवस्था में विशेषाधिकारों का हनन होगा, क्योंकि व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर स्टेट का कंट्रोल होगा। सोवियत यूनियन में औरतें हार्ड-लेबर करती थीं। वे खेतों में, फ़ैक्टरियों में, खदानों में, रेलवे में काम करती थीं, क्योंकि ईक्वल-सोसायटी तो ऐसी ही होगी, जिसमें आदमी-औरत बराबर होंगे। जबकि फ़ेमिनिज़्म का जो लोकप्रिय स्वरूप आज प्रचलित है, वह मुख्यतया लाइफ़-स्टाइल और पर्सनल चॉइसेस तक सीमित है। वह वस्तुत: पेटी-बूर्ज्वा वर्ग का आंदोलन है। रोज़गार भी उसको चाहिए तो व्हाइट-कॉलर जॉब्स चाहिए, लोकप्रिय नारीवाद की आकांक्षा खदानों, खेतों, फ़ैक्टरियों में काम करके पुरुष के बराबर होने की नहीं है- यह याद रखें।

वामपंथी धर्म, संस्कृति और परम्परा का विरोधी होता है? शायद हाँ। पर किस थ्योरिटिकल फ्रैमवर्क में? उसका थ्योरिटिकल फ्रैमवर्क जो है, वो कल्चरल हेजेमनी का है (अंतोनियो ग्राम्शी)। ग्राम्शी कहते थे कि रूलिंग क्लास ऐसे वैल्यू सिस्टम का निर्माण करता है, जिससे वह समाज पर अपना आधिपत्य क़ायम कर सके। मिसाल के तौर पर- यही ले लीजिये कि पत्नी के द्वारा पति के पैर छूना, या इस्लाम में लड़कियों का हिजाब-बुरक़ा पहनना। ये कल्चरल हेजेमनी है, जिसमें पुरुषसत्ता ने धर्म, संस्कृति, परम्परा का हवाला देकर शोषित वर्ग के दिमाग़ में यह बैठा दिया है कि यह तुम्हारा वैल्यू-सिस्टम है। अब वे ख़ुशी-ख़ुशी इसका पालन कर रही हैं, पाँव छूकर गर्वित हो रही हैं, हिजाब पहनकर कह रही हैं यह हमारी पसंद है। उनसे यह जबरन करवाया जाता तो वे विद्रोह कर बैठतीं, पर कल्चर की चाशनी लपेटकर कड़वी गोली खिला दी गई है।

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भारत के परिप्रेक्ष्य में आमजन समझते हैं कि वामपंथियों के द्वारा हिंदू धर्म पर प्रहार किया जा रहा है। जबकि वो कल्चरल हेजेमनी को प्रश्नांकित कर रहे होते हैं। तब वे दूसरे धर्मों पर सवाल क्यों नहीं उठाते, हिंदू धर्म की ही बात क्यों करते हैं? इस आरोप से कम से कम मैं तो पूर्णतया मुक्त हूँ, क्योंकि मैंने दूसरे धर्मों की कुरीतियों पर भी नियमित प्रहार किए हैं। लेकिन अगर लेफ़्ट के दायरे में आने वाले वैसा नहीं करते, तो उसका तात्कालिक कारण यह है कि भारत में हिंदू बहुसंख्यक हैं और उनकी नज़र में अल्पसंख्यक एक सबाल्टर्न कैटेगरी होती है, जिसके हितों की रक्षा की जानी चाहिए। एक इस्लामिक बहुसंख्या वाले देश में वामपंथी झुकाव रखने वाला कोई भी व्यक्ति इस्लामिक मुख्यधारा की मुख़ालफ़त करेगा। करता ही है। अगर आपको इस्लाम और वाम के बीच एक संगति दिखलाई देती है तो उसका कारण यह कि एक तो सोवियत यूनियन में बहुत सारे मध्येशियाई मुस्लिम मुल्क शामिल थे, दूसरे तीसरी दुनिया के देशों में अनेक मुस्लिम बहुसंख्या वाले थे जिन पर वामपंथी विचारधारा का प्रभाव था। तो वाम और इस्लाम के बीच एक रणनीतिक सामंजस्य इससे पश्चिमी वर्चस्व (व्हाइट सुप्रीमेसी) के विरुद्ध बन गया था। वो एक स्ट्रैटेजिक एलायंस है। पर विचारधारागत रूप से दोनों सर्वथा भिन्न हैं, क्योंकि लेफ़्ट सबसे पहले इस्लाम के फ़ंडामेंटल्स पर ही प्रहार करेगा, उनको हेजेमनी बताकर।

उन मित्र ने जाने क्या सोचकर मुझे वामपंथी कहा। क्योंकि वामपंथ भी एक नहीं है, तरह-तरह के मार्क्सवाद हैं। लेनिन का अलग था, ट्रॉटस्की का अलग। माओ का और अलग। क्यूबा की पद्धति भिन्न थी, वियतनाम की भिन्न। भारत में इसका एक अपेक्षाकृत कोमल स्वर (फ़ेबियन समाजवाद) नेहरू ने अपनाया था। पूर्वी यूरोप के देशों में कम्युनिज़्म के अलग-अलग प्रतिरूप आप 1960-70 के दशक में देख सकते थे। रोमानिया में Ceaușescu था, हंगारी में János Kádár और फ्रांस जैसे क्लासिकी बूर्ज्वा मुल्क तक में कम्युनिस्ट पार्टी एक समय सत्ता की दहलीज़ तक चली गई थी। हाल के सालों में वेनेज़ुएला का मॉडल हमारे सामने रहा है। भारत में मानिक सरकार, उसके पहले नम्बूदरीपाद और ज्योति बसु के मॉडल थे। लाल गलियारे में नक्सलबाड़ी आंदोलन चलता था। एक द्वंद्वात्मक भौतिकवाद है, जो हेगेल से मार्क्स तक आया। एक क्रिटिकल थ्योरी है- पश्चिमी अकादमियों वाली। एक फ्रांकफ़ुर्त स्कूल है- बेन्यामिन और अदोर्नो का। एक पब्लिक स्फ़ीयर है- युरगेन हेबरमास का। उत्तर आधुनिकों में भी मार्क्सवादी हैं- टेरी ईगल्टन से लेकर फ्रेडरिक जेमेसन और ज्याँ बोद्रिला तक। मिशेल फ़ूको कहता है कि “मैं मार्क्स को ख़ूब उद्धृत करता हूँ, बस उद्धरण चिह्नों का उपयोग नहीं करता।” देरीदा ‘मार्क्स के प्रेतों’ को पुकारता है!

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जब हम किसी को वामपंथी कहकर पुकारें तो हमें इन तमाम परिप्रेक्ष्यों की जानकारी होनी चाहिए। अमूमन हमारे यहाँ यह चलन है कि जब कोई व्यक्ति बहुत पढ़ा-लिखा होता है तो उसको वामंपथी कह देते हैं। तिस पर मैं कहूँ कि हर पढ़ा-लिखा व्यक्ति वामपंथी हो, ये ज़रूरी नहीं है। लेकिन हर दक्षिणपंथी अनपढ़ या कुपढ़ होता है, इसमें कोई संदेह नहीं है! इति!

सुशोभित चर्चित युवा लेखक और पत्रकार हैं.

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