लिखित है अलिखित संविधान में अंतर
भारतीय संविधान और कोर्ट की व्याख्या पढ़कर ताजुब होता है कि देश का संविधान लिखित है फिर भी कुछ जज संसद बनने की कोशिश क्यों करते हैं? दरअसल ब्रिटेन में संविधान अलिखित है। और इसे अलिखित इसलिए रखा गया है जिससे समय आने पर राजपरिवार अपने अनुसार फैसला करा सके। और इसी की पढ़ाई कर आए जज भी अपने अधिकार असीमित समझने लगे। कुछ जज फैसला ऐसा करने की कोशिश करते हैं जो संविधान या कानून में लिखा ही नहीं है। या कानून की अपने अनुसार व्याख्या कर लेते हैं।
पत्रकारों के लिए अवमानना अधिनियम में व्यापक छूट
पत्रकारों को न्यायालय की अवमानना से व्यापक छूट प्राप्त है। इसमें वही पत्रकार फंस सकता है जो दुर्भावना वश न्यायालय के खिलाफ लिखा हो वो भी बिना तथ्यों के आधार पर लेख हो। न्यायालय अवमानना अधिनियम 1971 की धारा 5 के अनुसार न्यायालय के फैसले के बाद यदि कोई व्यक्ति न्यायालय की निष्पक्ष आलोचना करता है तो उसे न्यायालय अवमानना का दोषी नहीं माना जाएगा। और इसी अधिनियम की धारा 4 के तहत न्यायालय सुनवाई के दौरान कोर्ट की आलोचना अवमानना नहीं मानी जाती। हालांकि गोपनीय सुनवाई और राष्ट्रहित की सुनवाई में न्यायालय की अनुमति से ही कार्यवाही प्रकाशित कर सकते हैं (धारा 7)। लंबित मुकदमों की प्रेस द्वारा की गई टिप्पणी न्यायालय अवमानना के दायरे में आने के वाबजूद धारा 3 (1) में पत्रकारों के छूट प्राप्त है। लेकिन यह छूट तभी मिलेगी जब प्रेस और पुस्तक राजिस्ट्रेशन अधिनियम 1867 की धारा 3 और 5 की जरूरी औपचारिकताएं पूरी कर ली गई हो। और न्यायालीन कार्यवाही उस समय लंबित माना जाता है जब मजिस्ट्रेट दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 173 के तहत पुलिस द्वारा प्रस्तुत अभियोग पत्र का संज्ञान ले लेता है। इसके बाद भी यदि न्यायालय अवमानना का प्रकरण बनता भी है तो दोषी संपादक को माना जाता है पत्रकार नहीं।
कोर्ट की आलोचना कब?
एक ही मुद्दे पर अलग-अलग फैसले आलोचना के कारण हो सकते हैं। जैसे समान अपराध पर अलग-अलग सजा। सामान्यत: जिस कानूनों में सजा या जुर्माना लिखा होता है उसमें कोर्ट अपने विशेषाधिकार का उपयोग कर सजा नहीं दे सकता। क्योंकि सजा से एक व्यक्ति जेल में जाने के साथ ही देश का विकास बाधित होगा और सरकार पर उस व्यक्ति का अनावश्यक बोझ बढ़ेगा। इसलिए जुर्माना लेकर छोड़ दिया जाता है। लिखित संविधान या कानून से बाहर जाकर सुनवाई आलोचना का कारण हो सकती है।
कोर्ट का विशेषाधिकार कहां तक?
कोर्ट का विशेषाधिकार सीमित होता है। यदि एक्ट में लिखा है कि अधिकतम सजा 5 साल और न्यूनतम सजा 1 साल है तो कोर्ट अपराध की गंभीरता को देखते हुए अधिकतम और गैर गंभीरता पर न्यूनतम सजा दे सकता है। लेकिन इसे परिभाषित भी करना होता है। आपने अधिकतम सजा किस हिसाब से और न्यूनतम सजा किस कारण से दी। अब इसका मतलब यह नहीं कि कोई दोषी सिद्ध हो गया और जज चाहे तो अधिकतम और न्यूनतम की सीमा तोड़ते हुए फैसला दे दे।
महेश्वरी प्रसाद मिश्र
पत्रकार