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मीडिया मंथन

चैनलों ने बड़ा काम करके आश्चर्यजनक गंभीरता दिखाई

: खुशफहमी का मनोविज्ञान : बीते लगभग १५ दिनों से भोपाल गैस हादसे के फालोअप से मीडिया पटा पड़ा रहा. भोपाल के सीजेएम कोर्ट का एक प्रत्याशित फैसला जिस पर सभी कानूनी धाराएं सालों पहले लग/ मिट चुकी थीं, प्रोसिक्युसन हो चुका था. लब्बोलुआब ये कि तय फैसले को मीडिया ने बहुत ही अप्रत्याशित मानकर मुहिम चलाई. हर चैनल और अखबार उसे ऐसे परोस रहा था मानों ये अन्याय भोपाल की कोर्ट से हुआ है जबकि सालों पहले इस केस की रीढ़ सुप्रीम कोर्ट ही तोड़ चुका था लेकिन उस वक्त तक किसी भी समाचार माध्यम को इसमें ऐसी संभावनाएं नज़र नहीं आईं. बहरहाल इस सबके बावजूद मीडिया ने लाजवाब भूमिका अदा की और इस लाड़ाई को लड़ लड़ कर कमर झुका चुके भोपाल के गैस पीड़ितों को सहारा दिया.

<p>: <strong>खुशफहमी का मनोविज्ञान</strong> : बीते लगभग १५ दिनों से भोपाल गैस हादसे के फालोअप से मीडिया पटा पड़ा रहा. भोपाल के सीजेएम कोर्ट का एक प्रत्याशित फैसला जिस पर सभी कानूनी धाराएं सालों पहले लग/ मिट चुकी थीं, प्रोसिक्युसन हो चुका था. लब्बोलुआब ये कि तय फैसले को मीडिया ने बहुत ही अप्रत्याशित मानकर मुहिम चलाई. हर चैनल और अखबार उसे ऐसे परोस रहा था मानों ये अन्याय भोपाल की कोर्ट से हुआ है जबकि सालों पहले इस केस की रीढ़ सुप्रीम कोर्ट ही तोड़ चुका था लेकिन उस वक्त तक किसी भी समाचार माध्यम को इसमें ऐसी संभावनाएं नज़र नहीं आईं. बहरहाल इस सबके बावजूद मीडिया ने लाजवाब भूमिका अदा की और इस लाड़ाई को लड़ लड़ कर कमर झुका चुके भोपाल के गैस पीड़ितों को सहारा दिया.</p> <p>

: खुशफहमी का मनोविज्ञान : बीते लगभग १५ दिनों से भोपाल गैस हादसे के फालोअप से मीडिया पटा पड़ा रहा. भोपाल के सीजेएम कोर्ट का एक प्रत्याशित फैसला जिस पर सभी कानूनी धाराएं सालों पहले लग/ मिट चुकी थीं, प्रोसिक्युसन हो चुका था. लब्बोलुआब ये कि तय फैसले को मीडिया ने बहुत ही अप्रत्याशित मानकर मुहिम चलाई. हर चैनल और अखबार उसे ऐसे परोस रहा था मानों ये अन्याय भोपाल की कोर्ट से हुआ है जबकि सालों पहले इस केस की रीढ़ सुप्रीम कोर्ट ही तोड़ चुका था लेकिन उस वक्त तक किसी भी समाचार माध्यम को इसमें ऐसी संभावनाएं नज़र नहीं आईं. बहरहाल इस सबके बावजूद मीडिया ने लाजवाब भूमिका अदा की और इस लाड़ाई को लड़ लड़ कर कमर झुका चुके भोपाल के गैस पीड़ितों को सहारा दिया.

चूँकि मुद्दा मीडिया ने बनाया था लिहाजा सरकार और उनसे जुड़े लोगों को जागना ही था. सरकार जागी और एंडरसन का प्रत्यर्पण भले ही ना करा पाई हो लेकिन लोगों के लिए मुआवजे को लेकर खज़ाना तो खोल ही दिया. अब भोपाल के पीड़ितों के लिए १३९२ करोड़ का प्रावधान किया गया है. एक व्यक्ति के खाते में दस लाख रुपये तक अब आ सकते हैं. ये ठीक है कि मरने वाले को दोबारा नहीं लाया जा सकता लेकिन ये पैसा बेशक मरहम का काम तो करेगा. मीडिया जब प्रभावी तौर से सक्रिय होता है तो सरकारें इसी तरह से हड़बड़ी में आती हैं.

इस पूरे मसले पर मीडिया की सक्रियता ने सियासत करने वालों को भी बढ़िया मौका दिया. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इस मामले की आड़ में केंद्र सरकार को घेरने की कोशिश की क्योंकि उस वक्त अर्जुन सिंह मुख्यमंत्री थे और राजीव गांधी प्रधानमंत्री. शिवराज ने पहले बयानों के तीर छोड़े फिर ये दिखाने को कि हम उस वक्त के किसी भी दोषियों को नहीं छोड़ेंगे,  उस वक्त के एसपी स्वराज पुरी से इस्तीफा मांग लिया. पुरी को इसी सरकार ने राज्य मंत्री का दर्ज़ा दे रखा था. पहले नवाज़ा, फिर लगा कि कांग्रेस की ओर से पलटवार न हो तो पुरी को पद से हटा दिया गया. सरकार के प्रवक्ता नरोत्तम मिश्रा ने कहा कि उन्हें टीवी में चल रहे फुटेज देख कर पता चला कि पुरी ने अपनी कार में एंडरसन को एअरपोर्ट छोड़ा था.

धन्य है इस सरकार का नेटवर्क कि उसे इतनी छोटी सी बात पता करने में २६ साल लग गए. दरअसल अब तक इस मसले को लेकर कोई सियासत नहीं हुई तो सभी जिम्मेदार लोग मलाई मार रहे थे लेकिन इस बार मीडिया के कारण मामला इतना गरमाया कि ठंडा होने का नाम ही नहीं ले रहा था. केंद्र की सरकार को भी लग गया कि एंडरसन को वापस लाना तो असम्भव सा काम है फिर इसमें जल्द ही यदि मुआवजे की बर्फ नहीं डाली गई तो मामला सुलग कर शोले में तब्दील हो जाएगा, जो हो सकता है सरकार को ही भस्म कर दे. लिहाजा आनन फानन में जीओएम गठित की गई. जल्दी से उनसे रिपोर्ट मांग कर इसे ठंडा किया गया.

ऐसा नहीं है कि श्रेय लेने की सियासत सिर्फ राजनेता करते रहे. मीडिया ने भी श्रेय बटोरा. ख़ास तौर पर प्रिंट ने. यदि देखा जाए तो इसमें इलेक्ट्रोनिक मीडिया की भागीदारी सबसे महत्वपूर्ण रही. अंतर्राष्ट्रीय दबाव बनाने में इसी माध्यम का योगदान था लेकिन श्रेय बटोर रहे थे अखबार. आज देश के सबसे बड़े अखबार समूह दैनिक भास्कर ने तो अपनी वाहवाही में पूरा मुख्य पृष्ठ ही रंग दिया और भोपाल के पाठकों को इस मुहिम में साथ देने के लिए धन्यवाद भी दिया. जबकि देखा जाये तो हमेशा प्रिंट के निशाने पर रहने वाले इलेक्ट्रोनिक मीडिया का ही इसमें ज्यादा योगदान था और उन्होंने इसका श्रेय भी नहीं लूटा. किसी चैनल ने नहीं कहा कि हमारे कारण ये बड़ा कदम सरकार ने उठाया. पहली बार चैनलों ने बड़ा काम करके आश्चर्यजनक गंभीरता दिखाई.

गैस पीड़ितों की लड़ाई लड़ने वाले भी मानते हैं कि यदि मीडिया में इतना हायतौबा नहीं मचता तो ये नतीजे तुरंत तो नहीं ही आ सकते थे. चैनलों को गाली देने वाले “विद्वान टीकाकारों ” का अंतर्मन भी शायद ये मानता होगा कि ये लड़ाई इलेक्ट्रोनिक के दम पर जीती गई है प्रिंट के दम पर नहीं. फिर भी फायदा भोपाल की जनता का हुआ. अब शुरू होगी बंदरबांट, गैस राहत विभाग जो फटेहाल हो गया था फिर आबाद होगा. फिर आरोप प्रत्यारोप के दौर चलेंगे. मुआवजे के हड़पे जाने या गलत व्यक्तियों को अधिकारियों की मिली भगत से दिए जाने के चर्चे होंगे. भोपाल की अर्थव्यवस्था में अचानक से आये १३९२ करोड़ रुपये के कारण उछाल आयेगा. प्रोपर्टी के रेट बढ़ेंगे, लोगों का “बाइंग बिहेवियर” भी बदलेगा लेकिन अब शायद ही कोई इस बात की पुकार लगाए कि हज़ारों मौतों के जिम्मेदार लोगों को सजा क्या मिली?

लेखिका जान्हवी स्वतंत्र पत्रकार हैं.

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